दस्त-अफ़्शाँ चलो मस्त ओ रक़्साँ चलो, ख़ाक-बर-सर चलो ख़ूँ-ब-दामाँ चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो, आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
वामपंथी साक्ष्यों के अनुसार, हर शोषित वंचित की आवाज़ ने अपना ठिकाना अगर कहीं सबसे अधिक तलाशा है तो शायद वो फ़ैज़ की नज्मों में तलाशा है। यही वजह भी है कि शाहीनबाग का सब्ज़बाग़ हो या फिर जेएनयू की क्रान्तियाँ, जहां कोई नहीं गाया गया वहाँ भी फ़ैज़ सुने गए। कभी कहा गया कि ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’ तो कभी कहा गया कि ‘बोलना ही है’। ये नज़्में गाने और बजाने वालों के सामने आज दूसरी ओर के लोग हैं। लेकिन सवाल ये है कि जब एक संगठित अपराध की दुनिया के ख़िलाफ़ इन महिलाओं ने बोलना शुरू किया और जब इन पीड़ितों की बात करने का कुछ लोगों ने हौंसला दिखाया तो उन्हें उस तरीक़े से नहीं।
कहतें है सिनेमा समाज का दर्पण होता है, और दर्पण सच्चाइयों से भरपुर। आज, कल और आने वाले दिनों में सिनेमा न सिर्फ इसी सच्चाई को जीवित रखेगा बल्कि समय समय पर समाज की पुरानी कथाओ और आने वाले भविष्य का आईना भी दिखाएगा।
‘द केरल स्टोरी’ एक ऐसी कहानी है जो अपने हिस्से के सच के लिए अभी भी संघर्ष कर रही है। जो एक अच्छी बात पिछले कुछ समय में बॉलीवुड में हुई है वो ये है कि लोगों ने वास्तव में अब बोलना शुरू कर दिया है। सिनेमा और साहित्य में जो वर्चस्व सदियों में भारत में बरकरार था, आज उसी को हथियार बनाकर सच के दूसरे हिस्से को सामने रखने का हौंसला लोग करने लगे हैं। सदियों की नाइंसाफ़ी की भरपाई सिनेमा के माध्यम से करने का पहला प्रयास निर्माता एवं निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ फ़िल्म बनाकर की थी। अब इसी अंतराल को भरने का काम ‘द केरल स्टोरी’ के निर्माताओं ने किया है।
द केरल स्टोरी फ़िल्म समाज के सच के उस पहलू को छूती है और लोगों को सोचने पर मजबूर भी करती है कि ये सबके उनके ही आस-पास घटित हो रहा था।
सुदीप्तो सेन के निर्देशन और निर्माता के तौर पे विपुल अमृतलाल शाह ने भरपूर कोशिश की है कि न सिर्फ भारत के अन्य क्षेत्र में हो रही इस स्थिति को परदे पर लाया जाए, बल्कि लोगों को यह इस प्रकार के अपराधों के विरुद्ध शिक्षित भी करे, यह कहानी उन तमाम परिवारों के लिए भी है जहां अपने धर्म के प्रति लोगों की अज्ञानता उन्हें ख़तरनाक प्रयोग की ओर बढ़ने के लिए उकसाती है।
यह फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ ग़ैर-मुस्लिम लड़कियों के मज़हबी धर्मांतरण, उन पर आतंकी संगठन आईएसआई (ISIS) की क्रूरता, लव जिहाद और आख़िर में सेक्स स्लेव बनाने तक की घटनाओं को परदे पर दिखाता है।
अभिनेत्री अदा शर्मा अपने किरदार को लेकर काफी सजग रही हैं, बाकी के कलाकार योगिता बिहानी, सोनिया बलानी और सिद्धि इदनानी अपने अपने चरित्र को सजींदगी से निभाती है। हालाँकि कहानी को आगे बढ़ाने के लिए कई जगहों पर यह फ़िल्म महज़ ख़ानापूर्ति करती भी नज़र आती है मगर इस क़िस्म की फ़िल्मों में सिनेमाई त्रुटियों को नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है। कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म में भी यह अंतराल नज़र आया था लेकिन इन फ़िल्मों का भयावह सच शायद सिनेमा की नज़र से हमेशा कमतर ही रहे। इन फ़िल्मों में सबसे अधिक महत्व ऐसी होता है कि ये कही जाएँ और अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचें। यह फ़िल्म इस मक़सद को पूरा करती है।
कहानी अदा शर्मा के किरदार (शालिनी) से शुरू होती है जो अपनी आपबीती अफ़ग़ान और संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना से जुड़े अधिकारियों को सुनाती है। कहानी चार मासूम केरल की लड़कियों की है, जो नर्सिंग पढ़ने पहली बार हॉस्टल आती है, और वो एक दूसरे से घुल-मिल जाती हैं।
हॉस्टल में साथ रहने वाली इन युवतियों में दो हिन्दू लड़कियाँ हैं, जिनमें से एक नास्तिक बन चुकी है क्योंकि उसके माँ-बाप कम्युनिस्ट थे। इनके अलावा, एक ईसाई और एक मुस्लिम युवती भी उनके साथ रहती है। जिसमें मुस्लिम लड़की आसिफा (सोनिया बलानी) उन्हें इस्लाम की ओर धकेलने की हर कोशिश करती हैं, उनका ब्रैंनवॉश करने के लिए वो इस्लाम का महत्व तो बताती ही है, साथ ही साथ हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान करना नहीं भूलती। अपरिपक्व मानसिकता की लड़कियों को जब इस क़िस्म की खुराक दी जाने लगती हैं तो इस्लाम कहीं ना कहीं हिंदुत्व पर भारी पड़ने लगता है और मासूम लड़कियाँ सोचना और अपना दिमाग लगाना भी छोड़ देती हैं। उन्हें जो कहा जाता है, वही अंतिम सत्य नज़र आने लगता है।
फिल्म में दिखावे के हमले, दिखावे का प्यार और दिखावे की सहानुभति को जोर दिया गया है। आसिफा का किरदार न सिर्फ इस्लाम और अल्लाह की जी हुजूरी करता दिखाई देता है, बल्कि हिन्दू आस्था के महत्व को अनपढ़ के तरह ना मंजूर भी करता है।
मुख्य किरदार शालिनी (अदा शर्मा) अब इस्लाम कबूल कर फ़ातिमा बन जाती है, वह गर्भवती भी है और अब दोज़ख़ की आग से बचने के लिए अपने दूसरे शौहर के साथ सीरिया जाने को राजी हो जाती है। सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान का भयावह दृश्य देखने के बाद उसे समझ आने लगता है वो अब इस नर्क में फँस चुकी है, और वहाँ से निकलने का रास्ता ढूंढने लगती है।
फ़िल्म में दिखाया गया है कि किस तरह से वो ISIS के आतंकियों की सेक्स स्लेव के ढेर के बीच ख़ुद को पाती है। उस पर भी वही ज़्यादतियाँ की जाती हैं।
शालिनी सीरिया में किन त्रासदियों से गुजरती है और वो आख़िर में वहाँ से भागने का फ़ैसला कैसे लेती है, इन दृश्यों में दर्शक बंधे रहते हैं।
इस फ़िल्म ने कई लोगों को असहज करने का काम किया है। इस फ़िल्म पर लगाए जा रहे बैन के संबंध में ही सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को नोटिस जारी किया और तमिलनाडु सरकार से भी जवाब मांगा है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि जब सभी राज्यों में यह फ़िल्म दिखाई जा रही है तो फिर बंगाल में क्यों नहीं। CJI ने कहा कि यह लोगों को ही तय करने दिया जाए कि फ़िल्म अच्छी है या फिर बुरी।
इस्लाम और कट्टरपंथ की खौफनाक सच्चाई
जब एक वर्ग की ओर से इस फ़िल्म को बड़ा विरोध झेलना पड़ रहा है तब यह फ़िल्म आपको सोचने पर मजबूर कर देगी। जो लोग अपनी सुविधा और सहजता के घेरे से कभी बाहर निकले ही नहीं, उन लोगों के रोंगटे खड़े करने के लिए यह फ़िल्म आवश्यक है। साथ ही, इसमें समाज को आईएसआई का डरावना सच भी दिखाता है कि कैसे मज़हबी आतंक से उपजी उनकी बर्बरता सामान्य नहीं है। वो रिश्तों को नहीं समझते, उनके लिए महिलाओं का महत्व कहाँ तक है, उनके लिए महिलाएँ सिर्फ़ बच्चे पैदा करने की मशीन हैं जो ISIS के जिहादियों की यौन कुंठा को शांत करने के लिए ही बनी हुई हैं।
यौन शोषण और यौन सम्बन्ध को अपना अधिकार समझने वाले ये आतंकी घबराहट पैदा करते हैं, उनकी मानसिकता घृणित है और वो खौफ दर्शाता है। एक ऐसा खौफ जो दिलो, दिमाग में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब है।
सिर्फ महिला ही क्यों?
यह फ़िल्म एक महिला के ब्रेनवॉश होने से लेकर उसके अपने लिए जागरूक होने और फिर कठिन फ़ैसले लेने के सफ़र का भी अच्छा दस्तावेज है। जो लड़कियाँ शुरुआत में सरल, नासमझ और भोली-भाली दिखाई गई हैं, वही समय आने पर बहुत अच्छे से समस्याओं का सामना भी करती हैं।
कहते है अंत भला तो सब भला, और इसे यहाँ बखूबी से इस्तेमाल किया गया है। अंत में जब नायिका को गलती और उसके परिणाम का एहसास होता है तब सच्चाई सामने आती है, और इसी से लड़कियों को लव जिहाद और आतंकवादी के चंगुल से बचने का फ़साना शुरू होता है।
न्याय कैसे मिले?
फ़िल्म के आखिरी के कुछ दृश्यों में जब एक नायिका पुलिस के पास जाती है, और न्याय की भीख मांगती है, तो पुलिस की बेचारगी भी इस फ़िल्म में दर्शाई गई है। पुलिस कहती है कि ये समस्या तो है मगर बिना सबूत के तो कानून भी काम नहीं करती। जो लड़कियाँ अपनी मर्ज़ी से सीरिया जाने के लिए तैयार हो जाती हैं आख़िर वो उन्हें ब्रेनवाश होने से कैसे बचा सकते हैं।
यह सच्चाई भी है उस सिस्टम की जहां वास्तविकता काग़ज़ों के आगे झूठी नज़र आती है और इसी का फ़ायदा इस फ़िल्म का फैक्ट चेक कर महिलाओं पर होने वाली इस ज़्यादती का सामान्यीकरण करने वाले भी उठा रहे हैं।
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