अजय देवगन की नई फिल्म भोला का ट्रेलर रिलीज़ हो गया है। टाइटल ही बता रहा है कि इस फिल्म की लक्षित ऑडियंस कौन हैं और किस हद तक फिल्म को सांकेतिक रूप से भगवान शंकर या यूं कहें कि हिन्दू-आस्था से जोड़ने का प्रयास किया गया है।
ट्रेलर में फिल्म का मुख्य पात्र भोला (अजय देवगन) को पहले ही सीन में ‘श्रीमद्भगवतगीता’ को पढ़ते हुए दिखाया गया है। अगले ही सीन में भोला अपने ललाट पर ‘भस्म’ लगाता है। साथ ही, भगवान शंकर के ‘त्रिशूल’ को भी दिखाकर अपने इंटेंट पर और बल दिया गया है।
अगर आपने दक्षिण के कार्तिक शिवकुमार (कार्थी) स्टारर तमिल मूवी ‘कैथी/कैदी’ देखी हो तो आप इन दोनों फिल्मों को रिलेट कर पाएंगे। वास्तव में ‘भोला’ इसका हिंदी रीमेक है। जैसा कि हमेशा होता है, बॉलीवुड में फिल्म का हिंदी रीमेक आ रहा है तो यूट्यूब से ‘कैथी’ के हिंदी में डब किए गए वर्ज़न को हटा दिया गया है।
ओरिजिनल फिल्म में कहीं भी धड़ल्ले से भगवान शंकर या किसी अन्य हिन्दू देवी-देवताओं को दिखाने का प्रयास नहीं किया गया तो फिर हिंदी रीमेक में क्यों?
एक दौर था जब बॉलीवुड के किसी भी कथित बड़े स्टार की फिल्म के लिए 100 करोड़ की कमाई करना फिल्म की सफलता का आधारभूत पैमाना हुआ करता था। प्रतियोगिता इस बात पर हुआ करती थी कि किस बड़े सुपरस्टार की फिल्म सबसे तेज़ी से सौ, दो सौ या तीन सौ करोड़ का कारोबार करती है।
वेंटीलेटर पर दम तोड़ रही घटिया पटकथाओं वाली फिल्मों को भी ‘स्टारडम’ की प्राणवायु देकर हिट, सुपरहिट और ब्लॉकबस्टर हिट करवा लिया जाता था। फिल्में तो पहले भी हिट-सुपरहिट हुआ करती थी लेकिन कमर्सिअली यह दौर बॉलीवुड का ‘स्वर्णिम काल’ था।
फिर ऐसा हुआ कि दर्शकों के बीच अचानक ही बॉलीवुड की फिल्मों का रुझान कम या खत्म होने लगा। अब न तो बड़ा ‘स्टारडम’ काम आ रहा है और न ही ‘पीआर मशीनरी’। पैसे देकर बढ़िया रिव्यू और रेटिंग स्टार्स दिलवाए गए, लेकिन इनकी एक न सुनी गई। रही-सही कसर बॉयकॉट ट्रेंड्स ने पूरी कर दी।
बॉलीवुड के जो बड़े स्टार्स जिन्होंने ईद-दिवाली-क्रिसमस-होली जैसे त्योहारों को बपौती मान कोई भी कूड़ा-करकट उढेल देने के आदी थे। उनकी भी फिल्में कब आई, कब गई, किसी को कानों-कान खबर नहीं लगी। कुछ एक घटनाएँ तो ऐसी हुई कि इनकी फिल्में थिएटर के बाहर दूसरे फिल्मों के पोस्टर लगाकर चलाई गई।
इस दौरान खाली पड़े वैक्यूम को भरने का काम दक्षिण भारतीय फिल्मों ने किया। इन फिल्मों में हिन्दू धर्म और आस्था का पूरा ध्यान रखा गया। इस कारण हिंदी-भाषी दर्शकों का झुकाव होना स्वाभाविक है। अब दक्षिण भारत की फिल्म रिलीज़ होने के साथ ही हिंदी भाषी दर्शकों के लिए सिनेमाघरों में उपलब्ध होती हैं। इसके अलावा, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर उपलब्ध ‘वैरायटी ऑफ़ कंटेंट’ ने मेनस्ट्रीम बॉलीवुड सिनेमा की और भी नैया डुबो दी।
बॉलीवुड में कुछ लोगों ने बाध्य होकर, दर्शकों को लुभाने के प्रयास में बिना सिर-पैर के ‘ब्रह्मास्त्र’ जैसी फिल्मों में जबरन हिन्दू-आस्थाओं को जोड़कर परोसने का असफल प्रयास किया। मतलब साफ़ है कि अगर एंटरटेनमेंट के नाम पर फिल्मों में हिन्दू-आस्थाओं का उपहास किया जाएगा तो उस फिल्म का पिटना तय है। जैसा कि पिछले कुछ समय से होता आ रहा है। जो एकाध फिल्में चली भी वह स्क्रिप्ट, कास्टिंग, एक्टिंग, डायरेक्शन के नज़रिये से अच्छी थी।
अब देखना है कि दर्शकों की नब्ज़ टटोल कुछ (जी हाँ, कुछ ही, क्योंकि अधिकांश अभी भी हिन्दू-घृणा से पीड़ित हैं) बॉलीवुड स्टार्स और प्रोडक्शन हाउस धार्मिक-आस्था के सहारे अपने फिल्मों का बेड़ा पार करने के प्रयासों में फिल्म और हिन्दू-आस्था दोनों के साथ कितना न्याय कर पाएंगी?