फुटबॉल एक ऐसा खेल, जिसकी स्वीकार्यता वैश्विक है। अपने रंग-बिरंगे आयोजनों और लोकप्रियता से अपने साथ प्रशंसकों का हुजूम ले आता है। क़तर में फीफा विश्वकप का आगाज़ हो चुका है और खेल-प्रेमी भी धीरे-धीरे पहुँच ही रहे हैं। यह मध्य एशिया में अब तक का सबसे बड़ा खेल-आयोजन है।
अब खबरें आ रही हैं कि क़तर सरकार ने कई तरह की पाबंदियाँ लगा दी हैं। इसमें अल्कोहल, समलैंगिक, LGBTQ प्रतीक, यहूदियों द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर पूजा और उनके खाने, कपड़ों की लम्बाई घुटनों तक आदि पाबंदियाँ लगा दी गई हैं।
पाबंदियों के अलावा, ओपनिंग सेरेमनी के दौरान नमाज़ भी पढ़ी गई। साथ ही कट्टरवादी सलाफी विचारधारा के ज़ाकिर नाइक जैसे उपदेशक को भी बुलाया गया। जिसे अमूमन किसी मज़हबी आयोजन के दौरान ही देखा जाता है। हालाँकि, इस फैसले के बाद कतर की चारों तरफ आलोचना हो रही है।
फुटबॉल विश्वकप के पिछले दो-तीन संस्करणों को याद करें तो वे भी ईसाइयत को मानने वाले देशों में आयोजित हुए थे। शायद ही ऐसा हुआ हो कि इन देशों के द्वारा जबरन किसी तरह की धार्मिकता थोपी गई।
तो फिर सवाल उठता है कि आखिर इस बार ऐसा क्यों हो रहा है?
इसका जवाब है, ‘धार्मिक-सभ्यतागत टकराव’ (Religious civilizational clash)। इसे इस तरह समझा जा सकता है। एक तरफ हैं लैटिन अमेरिकी देश ब्राज़ील जहाँ कार्निवाल फेस्टिवल का वार्षिक आयोजन होता है। एक तरह से पार्शियल-न्यूडिटी उनके सभ्यता का हिस्सा है। वहीं दूसरी तरफ है क़तर जैसे कट्टर इस्लामी राष्ट्र जो दशकों से तालिबान का ही साथी रहा है।
ऐसे में इस तरह की पाबंदियाँ स्वाभाविक और अपेक्षित भी हैं। यह वैचारिक मत-भेद से उपजी हैं। चाहे ओलंपिक के दौरान ईरान के रेसलर द्वारा इज़राइल के रेसलर से हाथ मिलाने से मना कर देना हो या फिर ईरान में हुए शूटिंग इवेंट्स में हेडस्कार्व्स की अनिवार्यता।
अब तो क्रिकेट भी इससे अछूता नहीं रहा। हालिया घटना पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहम्मद रिज़वान द्वारा टी-20 विश्वकप फाइनल के पोस्ट मैच प्रेजेंटेशन में देखा जा सकता है। ऐसे कई उदाहरण और मिलते रहते हैं।
बहरहाल, फीफा अधिकारियों द्वारा क़तर को मेज़बानी देने के पीछे का तर्क है कि वे खाड़ी और मध्य एशियाई देशों में इस खेल को और लोकप्रिय बनवाना चाहते हैं। तुलनात्मक रूप से फुटबॉल की लोकप्रियता विश्व के अन्य भागों के अपेक्षा यहाँ कम है।
इसी उद्देश्य से साउथ अफ्रीका को भी साल 2010 में मेज़बानी सौंपी गई थी। इसके बहुत अच्छे परिणाम भी देखने को मिले थे। हालाँकि, इसके पीछे कई तरह के विवाद भी जुड़े हैं। कुछ बेतुके तर्क भी दिए गए। इसमें सबसे हास्यास्पद है कि राजशाही फुटबॉल विश्वकप आयोजन के लिए लोकतंत्र से बेहतर है। क्योंकि, पिछले कुछ संस्करणों में फीफा को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। कुछ और विवाद भी हैं मसलन,
- क़तर ने फीफा अधिकारियों को उसे मेजबानी दिलाने के एवज में रिश्वत दी थी।
- फीफा के पूर्व अध्यक्ष ने कहा, क़तर को मेज़बानी सौंपना उनकी गलती थी।
- क़तर द्वारा मानवाधिकारों का हनन किया गया और इस दौरान हज़ारों की संख्या में प्रवासी कामगारों की जान चली गई।
महत्वपूर्ण बात यह है कि फीफा जैसे बड़े स्पोर्ट्स फेडरेशन्स द्वारा मेज़बानी कर रहे राष्ट्रों के लिए बनाए गए मॉडल कोड ऑफ़ कंडक्टस को कितने प्रभावी तरीके से लागू करवाया जाएगा। कैसे क़तर जैसे कट्टर देशों को गैर-धार्मिक आयोजनों को भी धार्मिक रंग से रंगने से रोका जा सके और निष्पक्ष होकर कैसे प्रशंसकों को खेल का लुत्फ उठाने दिया जाए। मेज़बान देशों में खेल-प्रेमियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए।
एक तरफ जहाँ आयोजकों और अधिकारियों द्वारा फुटबाल टीमों को राजनीतिक और वैचारिक लड़ाईयों से बचने की नसीहत दी जा रही है। दूसरी तरफ, इस ग्लोबल इवेंट के ‘इस्लामीकरण’ पर चुप्पी साध ली गयी है।
वैसे भी जब फीफा के वर्तमान अध्यक्ष गिआनी इन्फैनटिनो जो मूल रूप से स्विट्ज़रलैंड से हैं, वह पिछले एक साल से स्थाई तौर पर क़तर में रह रहे हैं और इन विवादों को लेकर उनकी प्रतिक्रियाएँ ज्यादा आशान्वित नहीं करती।