नमस्कार मैं यूट्यूबर रवीश कुमार
मानवाधिकारों की भूमि कतर में एक बार कल फिर मानवाधिकारों की हत्या हुई है। जिस फ़्रांस ने दुनिया को फ़्रेंच और फ़्रेंची दी, वो आज अर्जेंटीना द्वारा हरा दिया गया और इस हार को देख रहे लोग तालियाँ बजा रहे थे। विश्व के बाज़ार में जब नरेंद्र मोदी की साख बढ़ रही है तब लोकतांत्रिक मूल्यों का ऐसा पतन देखने को मिल रहा है। इस से हमें हैरान नहीं होना चाहिए। कतर में फ़्रांस के पर कतर दिए गए।
फ़ीफ़ा देखते हुए बस यही दिमाग़ में चल रहा था कि आख़िर फ़ीफ़ा और फासीवाद में क्या चीज कॉमन है, तो इसमें एक शब्द निकाल आया वह है ‘फ़’, अंग्रेज़ी में जिसे ‘एफ़’ कहते हैं। मैं अंग्रेज़ी दो-बटा चार ही जानता हूँ, इसलिए ज़्यादा इसमें नहीं घुसूँगा, लेकिन फ़ीफ़ा और फासीवाद ही नहीं बल्कि फ़ीफ़ा, फासीवाद के बाद एक और शब्द है और उसका नाम है फ़्रांस।
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मेरे एक बयान पर सारी फासीवादी ताक़तें ट्रिगर हो गईं कि मैं नौकरी छोड़ने के बाद ऑफिस गया और वो भी इतवार के दिन। इसलिए मैंने इस इतवार के दिन सिर्फ़ घर पर रहने का फ़ैसला किया। अंबानी का टीवी खोला तो उसमें फ़ीफ़ा पर बहस हो रही थी। हिन्दी मीडिया से मैं चिंतित हूँ इसलिए मैंने फ़्रेंच मीडिया खोली। फ़्रेंच मीडिया ख़ुद चिंतित दिखी। फ़्रेंच बोलने वाले मैदान पर हार चुके थे।
‘एफ़’ अक्षर से बने ये तीनों शब्द क़तर में मौजूद थे। उसी सब्जबाग़ में मौजूद थे जहां जिलेंस्की को बोलने नहीं दिया गया। जहां एक युद्ध में हार रहे व्यक्ति की बोलने की आज़ादी अंबानी और अड़ानी के पुतिन द्वारा छीन ली गई। वो सिर्फ़ यही तो कहना चाहता था कि बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे। क्या उसका गुनाह यही था कि वो एक टिकटोकिया है? क्या टिकटोकिए का कोई अधिकार नहीं होता? अगर नहीं होता तो कल को आप कहेंगे कि यूट्यूबर के भी कोई अधिकार नहीं होते।
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आपने एनडीटीवी ख़रीद लिया, कल को आप यूट्यूबर भी ख़रीद लेंगे लेकिन आप आवाज़ नहीं दबा सकेंगे। ना ही फ़्रांस की, ना ही जिलेंस्की की और ना ही रवीश कुमार की। आप यूट्यूब ख़रीद सकते हैं लेकिन आप रवीश कुमार को नहीं ख़रीद सकते, ये और बात है कि ये बात मैं जीवन और नौकरी के आख़िरी पड़ाव में आ कर कह रहा हूँ। गोदी अगर गर्म हो तो ज़ुबान खुलने में वक्त तो लगता है। मुझे तो उम्र लग गई।
तो बात जब फ़ीफ़ा की आई है तो क्या हमने फ़्रांस के खिलाड़ियों की बात की? क्या किसी ने फ़्रांस से पूछा कि हारना किसे कहते हैं? जब सारी दुनिया मेसी के स्वर में एकराग हो रखी थी क्या तब किसी ने यह पूछा कि एमबापे कौन जात है?
इन सबके जवाब गोदी मीडिया नहीं देगी और ना ही फ़ीफ़ा के गोदी आयोजनकर्ता। हालाँकि इस सवाल का उतना ही महत्व है जितना कि एमबापे के नाम में लगे ‘एम’ का क्योंकि नाम तो उसका बापे ही है।
एमबापे की सच्चाई, जो गोदी मीडिया ने छुपाई
दरअसल प्राचीन भारत ज्ञान भंडार के विवरण में हमें पता चलता है कि एमबापे भी एक आदिवासी चिंतक और मानवाधिकार कार्यकर्ता है और इसकी वजह आपको हैरान कर देगी। आप मूल में नहीं जाना चाहते। असल में एमबापे झारखंड के घने जंगलों में रहने वाला एक लक्कड़हारा था। एक रोज़ वो जंगल में लकड़ी काटने निकला था और वह यही गाना गुनगुना रहा था, “ओ बापे प्यार कर के पछताया ओ बापे प्यार कर के”
इसके बाद वहाँ से गुजर रहे कुछ मनुवादियों को उसका गाना गाना रास नहीं आया और उसके साथ हिंसक व्यवहार कर उससे उसका नाम पूछा। मनुवादियों ने उस से पूछा कि तेरा नाम क्या है?
इस पर उसने कहा कि “एम बापे” (आई एम बापे, यानी मैं बापे हूँ)
मनुवादियों को ये सुहाया नहीं कि आख़िर एक आदिवासी ख़ुद को ‘बाप’ कैसे बोल सकता है। इसका नतीजा यह हुआ कि उसे कुछ भगवा पहने फ़ासीवादियों ने एमबापे की मार मार कर फुटबॉल बना दी और उसे फ़्रांस की उड़ती फ़्लाइट पर बिठा के फ़्रांस भेज दिया।
इसी से आक्रोशित एमबापे ने मनुवादियों को सबक़ सिखाने के लिए फुटबॉल खिलाड़ी बनने का फ़ैसला लिया। लेकिन उसे नहीं पता था कि फ़ीफ़ा के मैदान में उसका मुक़ाबला एक अर्जेंटीनाई खिलाड़ी से होगा जिसका नाम है मेसी।
मेसी का मनुवादियों से सीधा संबंध
मेसी के तार भी भारत के मनुवादियों से जुड़े हुए हैं। इसका खुलासा उस वक्त हुआ जब मेसी कि बाँह पर भाजपा के कमल का निशान नज़र आया। आख़िर मोदी और शाह के मन में ये कौनसा डर बैठा हुआ है जो 2024 के चुनाव की तैयारी के लिए मेसी के हाथ पर कमल का निशान गुदवा दिया गया।
आपने एनडीटीवी तो ख़रीदा ही लेकिन आपने फ़ीफ़ा भी ख़रीद लिया। लेकिन ये जनता सब कुछ देख रही है। वह सारा तमाशा जानती है। जनता जानती है कि मेसी भी एक भारतीय है और वह भाजपा का आदमी है।
इस से भी बड़ी बात ये है कि मेसी उत्तराखण्ड का रहने वाला पहाड़ी नागरिक है। इसका राज आपको तब पता चलेगा जब आपने वो गाना सुना होगा, “बल नी रायेंदु ‘मेसी’ डांडा पड़िगे भैंसी।” इस गीत से प्रभावित हो कर ही मेसी के पिता ने उनका नाम मेसी रखा था।
जाते जाते एक बात की ओर आपका ध्यान दिलाकर रहूँगा कि जो मेसी UPA के दौरान एक भी विश्वकप नहीं जीत पाया, आख़िर वो मोदी के सत्ता में आते ही फुटबॉल का मुक़ाबले कैसे जीत गया? क्या यही वजह थी मेसी से बार्सिलोना से इस्तीफ़ा दिलवाने की। क्या ये सब लोग मिले हुए नहीं हैं? क्या इसमें कोई साज़िश नज़र नहीं आती?
चाहे आज अर्जेंटीना फुटबॉल विश्व कप जीत गई हो लेकिन ये सच है कि भारत में लोकतंत्र की ये हार ही मानी जाएगी।
मेसी पर लिखे गये इस गढ़वाली गीत का अर्थ खोजते जाइए और मेरे अगले पत्र का इंतज़ार कीजिए। मैं यहीं मिलूँगा।
धन्यवाद