“बच्चे मन के सच्चे सारी जग के आँख के तारे, ये वो नन्हे फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे बच्चे मन के सच्चे”
आपने ये गाना तो सुना ही होगा कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं और उनके मन में मंदिर मस्जिद सब एक होते हैं। लेकिन समाज थोड़ा-थोड़ा कर के बदल रहा है। लाइफस्टाइल के साथ लड़ाई की प्रकृति और युद्धभूमि भी बदलती रहती हैं। पहले पुरुष आपस में लड़ते थे लेकिन धीरे-धीरे कर अब युद्धभूमि भी बदल रही है और युद्ध करने के तरीक़े भी। अब अक्सर सिविलियंस और सैनिकों में फ़र्क़ करना मुश्किल होता जा रहा है। पश्चिमी देशों में ऐसा बहुत पहले से होता रहा है। मैंने आपको क्रूसेड की कहानी में बताया भी था कि ईसाइयों ने चाइल्ड क्रूसेड का सहारा जंग लड़ने के लिए लिया था। आज इसका उदाहरण ख़ुद को क्लाइमेट एक्टिविस्ट कहने वाली ग्रेटा थनबर्ग और नोबेल प्राइज़ जीतने वाली मलाला है।
आप पत्थरबाजी की खबरें अलग अलग शहरों में देखते होंगे कि किस तरह से बच्चों को पत्थरबाज़ी के लिए इस्तेमाल किया जाता है, बच्चों को विक्टिम बताना आसान होता है, अगर पकड़े भी जाएँ तो उन्हें ये कहकर राहत मिल जाती है कि ये भटके हुए नौजवान हैं जिन्हें ब्रेनवॉश किया जाता है। इनके बारे में राय बनाने वाली मीडिया भी हमारे आस पास कई तरीक़ों से मौजूद है।
थूक लगी सब्ज़ियों का फैक्ट चेक करने वाले मोहम्मद ज़ुबैर, गौहर ख़ान, गुरमेहर कौर जैसों ने फ़िलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास से क्या सीखा? @ashu_nauty बता रहे हैं 16 साल की फ़राह बेकर की कहानी जिसके ग़ज़ा से किए गए ट्वीट इज़रायल का सरदर्द बन गए थे #Israel #Hamas #Gaza #FarahBaker pic.twitter.com/PN6MnDqe8g
— The Pamphlet (@Pamphlet_in) October 14, 2023
एक समय था जब मीडिया गवर्नमेंट के कंट्रोल में होती थी यानी सरकार के प्रभुत्व में, फिर टाइम आया कॉर्पोरेट और पेड मीडिया का, जिसमें आप उदाहरण के लिए बरखा दत्त को रख सकते हैं, उनकी कारगिल कवरेज किसके काम आ रही थी ये हम सभी जानते हैं, यानी किसी भी तरह से मुनाफ़ा कमाने वाली मीडिया।
फिर समय आया, जब सिटीज़न जर्नलिज्म (Citizen Journalism) अपना प्रभाव बनाने लगा। इसकी एक ख़ासियत ये होती है कि इसमें कोई एडिटोरियल एम्बार्गो नहीं होता। यानी संपादकीय नीतियों से सिटीज़न जर्नलिज़्म आज़ाद होता है। मीडिया के इस स्वरूप में लोगों के लिए सच और झूठ का फ़ैसला करना सबसे अधिक मुश्किल होता था। दुनिया में कुछ भी घटित हो तो ये लोग उसे समाज के सामने रखने लगे। इसके उदाहरण रवीश कुमार हैं जो माइक लेकर लोगों की जात भी पूछा करते थे, लेकिन आप देखिए कि उनके द्वारा कही जाने वाली बातें कितनी विश्वसनीय होती हैं। वो मुँह खोलते हैं तो आप जान जाते हैं कि ये कोई प्रॉपगैंडा ही उगलने जा रहे हैं।
सिटीज़न जर्नलिज्म में समय के साथ एक सबसे महत्वपूर्ण चीज घुस आई, ये थी इनोसेंट मीडिया। अब मैं आपको बताता हूँ कि ये इनोसेंट मीडिया क्या होती है और इसका चलन क्यों बढ़ गया?
Conflict and Evolution of Media | युद्ध एवं मीडिया का बदलता स्वरुप
इनोसेंट मीडिया यानि राह चलते हुए कोई आदमी कुछ महसूस करता है और जब वो उसे मीडिया की तरह पेश करता है तो हम उस पर ये यकीन करने लगते हैं कि इसका कोई एजेंडा नहीं होगा। इनोसेंट मीडिया; इस तरीके को सबसे पहले भुनाया था हमास ने। हमास यानी फिलिस्तीनी आतंकवादी संगठन जिसने इज़रायल पर हमला किया और अब फिर खुद को पीड़ित दिखा रहा है। इसकी कहानी जानने के लिए मैं आपको 2014 में ले चलता हूँ।
फराह बेकर
2014 में जब हमास और इज़रायल के बीच जंग चल रही थी तब फराह बेकर नाम की एक टीनएजर रातों रात पॉपुलर हो गई थी। वो गाजा पट्टी से लगातार ट्वीट के जरिए लोगों को उस युद्ध की जानकारी दे रही थी, लेकिन फराह बेकर जो काम कर रही थी, वही काम हजारों और लोग भी उस वक्त कर रहे थे। ऐसे में सोचने की बात ये है कि इनमें से सिर्फ फराह बेकर ही क्यों पॉपुलर हुई?
वास्तव में फराह बेकर पश्चिमी देशों के पैरामीटर्स पर एकदम फिट बैठती थी। यरूशलम से कुछ ही किलोमीटर दूरी पर रहने वाली एक मुस्लिम लड़की, उसकी उम्र 16 साल, नीली आँखें, बदन पर बुरका, और यहूदियों से घृणा, इजरायल को विलेन दिखाने के लिए पश्चिमी मीडिया के पास फराह बेकर से बेहतरीन हथियार और कुछ नहीं हो सकता था। पश्चिमी मीडिया ने फराह बेकर को हाथों हाथ लिया और उसे फिलिस्तीनी प्रॉपगेंडा की नायिका बनाकर पेश किया। उन्होंने एक नादान बच्ची के बयानों को स्टेट यानी इज़रायल के आधिकारिक बयानों की काट के रूप में पेश किया और दुनिया को विवश किया कि वो भी इस युद्ध को फराह के ही नजरिये से देखे।
जब सेना आतंकवादियों का मुक़ाबला ज़मीन पर कर रही होती होती है तब सामानांतर रूप से एक और युद्ध भी शक्ल ले रहा होता है, जो डिजिटल होते समाज में सबसे महत्वपूर्ण हथियार की भूमिका निभाता है – ये है सोशल मीडिया के ज़रिए इंटरनेट पर लड़ी जाने वाली नैरेटिव की लड़ाई।
फ़राह उस वक्त एक सोलह साल की टीनएजर थी। उसने ट्विटर के ज़रिए इज़रायली सेना को विलेन के रूप में दिखाने का काम किया। ग्लोबल मीडिया उसके ट्वीट के आधार पर इज़रायल को दानव और हमास के आतंकियों को मानवाधिकार का रक्षक साबित करने लगा।
सोशल मीडिया के जरिए किसी युद्ध का नैरेटिव किस तरह से बदला जाता है ये सोलह साल की फ़राह बेकर तब जान गई थी जब इज़रायल की IDF भी इस बारे में बहुत सक्रिय नहीं थी।
फ़राह बेकर एक इजरायल या यहूदी विरोधी एक्टिविस्ट है। उसने अपनी पहचान बनाई गाजा-फ़िलिस्तीन की एनी फ्रैंक के रूप में, और इसके बहाने उसका मक़सद सिर्फ़ एक था – इज़रायल की छवि को विश्व की नज़रों में ख़राब करना।
फ़राह बेकर की पहचान और फ़िलिस्तीन के समर्थक एक ऐसी टीन एजर के रूप में बताते हैं जिसने ट्विटर पर 140 अक्षरों में पूरी जंग जीत ली थी। एमनेस्टी जैसी संस्थाओं ने उसे हाथों हाथ लिया, सिर्फ़ इस वजह से कि वो इज़रायल की छवि को ख़राब करने का काम कर रही थी।
बेकर ने कहा कि पश्चिमी मीडिया इज़रायल का पक्ष लेकर उस वक़्त चल रहे युद्ध को ग़लत तरीक़े से दिखा रहा था। उसने कहा कि उस समय 2,200 से अधिक फ़िलिस्तीनी मारे गए और आधे मिलियन से अधिक विस्थापित हुए।
बेकर ने अपने ट्वीट के ज़रिए इज़रायल की ऐसी छवि पेश की जिसकी वजह से वो बिना बिजली के रहने को मजबूर है और उसकी ज़िंदगी को निरंतर ख़तरा है। उसने कहा कि वो घर के जनरेटर के ज़रिए दुनिया के समक्ष गाजा की स्थिति को रख पाई।
Introduction about Farah Baker #Gaza pic.twitter.com/pekRoF0DQ2
— Farah Baker (@Farah_Gazan) August 22, 2014
उस वक्त चल रहे युद्ध के दौरान बेकर ने ट्वीट किया कि बमों की लगातार आवाज़ें उसे कैसे प्रभावित कर रही थीं और उसने अपने क्षेत्र के आसपास लगातार बमबारी दिखाते हुए वीडियो पोस्ट किए। जो एक ट्वीट उसका सबसे अधिक पॉपुलर हुआ उसमें बेकर ने लिखा था, “ये मेरा इलाक़ा है, मैं अपने आंसुओं को रोक नहीं पा रही हूँ और मैं आज रात मर सकती हूँ।”
उसने कुछ ही समय पहले गाजा पट्टी के एक कैथोलिक स्कूल से ग्रेजुएशन किया और उसका कहना है कि वो तीन युद्धों से गुजर चुकी है। सबसे आख़िरी युद्ध को उसने सबसे अधिक डरावना बताया था।
बेकर का सिर्फ़ और सिर्फ़ एक मक़सद है अपने ट्वीट के ज़रिए इजरायल को बर्बर दिखाना। ये साबित करना कि इजरायल हमास के ठिकानों को निशाना बनाता है, और इज़रायल के कारण गाजा के लोग असुरक्षित हैं।
2014 में जब इज़रायल हमास पर जवाबी कार्रवाई कर रहा था उस वक्त गाजा में रहने वाली इस 16 साल की लड़की फराह ने लाइव ट्वीट कर पॉपुलैरिटी हासिल की। वोक मीडिया ने यहाँ तक कहा कि ये पैट्रिआर्केल सोसायटी में सोशल मीडिया के जरिये सबसे प्रभावशाली सैनिक बन गई थी। उस वक्त गाजा में क्या चल रहा था उसके बारे में दुनिया सिर्फ़ इज़रायल की मीडिया द्वारा ही जान पा रही थी, लेकिन फ़राह बेकर ने रात को अपने छत पर मोबाइल रखकर दुनिया के सामने इज़रायल को हत्यारा साबित करने के लिए लगातार ट्वीट किए। अब दुनियाभर की मीडिया के लिए पहला स्रोत यही लड़की बन गई थी।
पश्चिमी मीडिया ने उसे एक युवा भयभीत लड़की बताया और कहा कि वो फोन चलाने वाली सैनिक थी। वो ज़ाहिर तौर पर फ़िलिस्तीन का ही काम कर रही थी। 2014 तक, इज़रायल की आईडीएफ की सोशल मीडिया पर अच्छी ख़ासी मौजूदगी थी। आप आज भी सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर देख रहे होंगे कि वे हमास की ओर से हो रहे हर हमले की जानकारी दे रहे हैं। ऐसे में 2014 में फ़राह इसीलिए पॉपुलर हुई कि वो इज़रायल की इस ताक़त को प्रॉपगैंडा के ज़रिए विश्व के सामने रखने में कामयाब रही। दुनिया ने उसके बयानों को बिना किसी दूसरे पक्ष को जाने अपनाया भी क्योंकि उसके नाम में उसका मज़हब था।
फराह के ट्वीट में भय और फिलिस्तीन के प्रति संवेदना के और कुछ भी नहीं था और वे पूरी तरह से इकतरफ़ा प्रॉपगेंडा थे। ग्लोबल मीडिया के लिए लेकिन इतना ही काफ़ी था। वो अपने ट्वीट में लिखती थी कि वो बम के धमाकों से रो रही है और ये आवाज़ें बर्दाश्त कर पाना मुश्किल है।
ये सब मॉडल भारत में ज़ोर पकड़ने लगा साल 2014 के बाद जब फ़िलिस्तीन के गाजा पट्टी में रहने वाली एक युवती फ़राह बेकर ने ऐसा कर के खूब पॉपुलेरिटी कमाई।
इनफार्मेशन डोमेन में दो चीजें महत्वपूर्ण होती हैं – अटैक डिफेंड और डिफेंड अटैक
अटैक डिफेंड में ऑफ़ेंसिव एक्ट्स को भी नैरेटिव निर्माण कर जस्टिफाई करने का काम किया जाता है। यानी आतंकी अपना काम करते रहें और आतंकियों का नैरेटिव निर्माण करने वाले उनका बचाव करते रहें। जैसे हमास के समर्थन में आप इस वक्त कई पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देख रहे होंगे। एक पत्रकार तो उस युवती की हत्या तक को जायज ठहराती दिख रही है जिसे हमास ने बर्बरता से मार दिया।
दूसरी तरह है – डिफेंड अटैक – यानी जब पीड़ित अपने बचाव में कोई कदम उठाता है तो उसे ही निशाना बनाया जाए, जैसा कि अक्सर इजरायल को विलेन दिखाने वाले लोग करते हैं।
अब यही टेमपलेट हर जगह नजर आने लगी है। इसमें युद्ध में भाग लेने वाले पुरुष और महिलाओं के भेद को भी ख़त्म कर दिया गया है। लड़ने वाले फौजी हैं या फिर सिविलियन्स, ये फर्क भी अब ख़त्म कर दिया गया है। कन्फ्यूजन की स्थिति पैदा कर भ्रमित कर युद्ध लड़े जा रहे हैं।
डिजिटल प्रॉपगेंडा कैसे सीख रहे हैं भारत के वामपंथी
दुर्भाग्य से आज के समय में सबसे ज़्यादा दुरुपयोग अगर किसी एक चीज का हो रहा है तो वो सिटीज़न जर्नलिज्म ही है। इसका उदाहरण फ़राह बेकर भी है, इसका उदाहरण सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर प्रॉपगैंडा चलाने वाली इस्लामी आरजे सायमा भी है, इसका उदाहरण फैक्ट चेक के नाम पर समुदाय विशेष के कुकर्मों पर पंचर साटने वाला मोहम्मद ज़ुबैर भी है और ऐसे ही तमाम लोग आप देख लीजिए। इनका मक़सद सिर्फ़ सनसनी पैदा कर भारत की छवि ख़राब करना है।
आपको याद होगा कि शेहला रसीद बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद ट्विटर का इस्तेमाल फ़राह बेकन की ही तरह कर रही थी, वो ये कहते हुए पैनिक क्रिएट कर रही थी कि देसभर में कश्मीरी छात्रों को पत्थरबाज़ बताया जा रहा है। जबकि उस वक्त ये जहां जहां मौजूद थे, वहाँ वहाँ उपद्रव कर रहे थे। आपको यदि लगता है कि इनकी किसी समुदाय या समाज या राष्ट्र के साथ सिम्पथी है तो आप एकदम ग़लत हैं क्योंकि आप इनके ही एकाउंट्स पर जाकर देखिए, फ़िलिस्तीन में जब तक लाशें नहीं गिरेंगी, तब तक ये लोग इनके बचाव में हैशटैग भी इस्तेमाल नहीं करते हैं। ये लाशों पर पत्रकारिता करने वाले दानव हैं। और ये किनके यूजफुल इडिअट्स हैं, ये अच्छी तरह से जानते हैं।
आप सोचिए कि गुरमेहर कौर एक प्लाकार्ड लेकर अपने पिता के हत्यारों को निर्दोष बता रही होती है, और कहती है कि ये युद्ध का क़सूर था, ना कि आतंकवादियों का। मोहम्मद ज़ुबैर खाने में थूक मिलाने से लेकर सड़क पर थूक लगाकर फ़्रूट्स बेचने की घटना का फैक्ट चेक कर के बता रहा होता है कि देखिए भारत में मुस्लिमों को इस तरह से निशाना बनाया जा रहा है, हिन्दुत्ववॉच नाम का अकाउंट अवैध निर्माणों के ख़िलाफ़ होने वाली कार्रवाई को ट्विटर पर ये कहते हुए दिखाता है कि भारत में मज़ारों को ध्वस्त किया जा रहा है। इरेना अकबर जैसे कथित पत्रकार भी हैं जो फ़िलिस्तीन या हमास के आतंकवादियों का दर्द महसूस करने का दावा करते हैं लेकिन उन्होंने कभी भारत में रहकर भारत वालों का दर्द समझने की कोशिश नहीं की। यहाँ तक कि हमास को उस लड़की की हत्या के लिए क्लीन चिट भी देती है, जिसे उन्होंने बेरहमी से मारकर दुनिया को दिखाया।
भारत की छवि को बर्बाद करना इनका पहला मक़सद है, इसी के लिए ये फ़िलिस्तीन का भी इस्तेमाल करते हैं, इसी के लिए ये कश्मीर का भी नाम लेते हैं और यही इनका पैटर्न हैं। इनका इस्तेमाल निजी फ़ायदे के लिए लोग करते हैं, ऐसे वीडियो तैयार किए जाते हैं जिनके ज़रिए एक पक्ष के लिए हमदर्दी पैदा की जा सके और दूसरे पक्ष को विलेन बताया जा सके। इसलिए इनोसेंट मीडिया के खेल को समझना आवश्यक है, और यह भी ज़िम्मेदारी बनती है कि युद्ध या आपात स्थिति में भी उन्हीं खबरों पर भरोसा किया जाए जो आधिकारिक होते हैं, ना कि सनसनी पैदा करने वाली खबरों पर।
इंटरनेट पर दिखने लगी हैं कई फराह बेकर
इज़रायल-हमास युद्ध के बीच सोशल मीडिया पर फराह बेकर की कहानी के बाद अब नई फराह बेकर तैयार की जा रही हैं।
A 13 Years old Palestinian girl sends a message to the world. Share and be her voice. By – @ahmedhijazee pic.twitter.com/vbsSQUuJpg
— Mohammed Zubair (@zoo_bear) October 15, 2023
इस बार हमास के डिजिटल योद्धाओं को कुछ दिन ज्यादा जरूर लगे हैं लेकिन यह नया वर्जन इस बार 16 नहीं बल्कि १3 साल का बताया जा रहा है। वह मुस्लिम है, उसके शरीर पर बुर्का है, उसकी उम्र 13 साल है और जुबान पर फ़िलिस्तीन के समर्थन में नारे! अब आप फराह बेकर के चरित्र से इसकी तुलना कर के देखिए।