हिंदी में एक बहुत प्यारा शब्द है अवसन्नता। अवसन्नता उस स्थिति को कह सकते हैं जब अवसाद के कारण आलस आने लगे। वर्तमान में देखें तो हमारे देश की कई विपक्षी पार्टियां, वामपंथी बुद्धिजीवी, मीडिया का एक धड़ा और कांग्रेसी इकोसिस्टम के सिपाही अवसन्नता में दिखाई देते हैं।
यह अवसाद का आलस ही तो है कि संभल में जब कोर्ट ने मस्जिद के सर्वे का आदेश दे दिया, सर्वे हो गया- तब कहा जा रहा है कि अरे, दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस DY Chandrachud ने इस आदेश में यह निर्णय दिया था, इसलिए निचली अदालतें अब सर्वे का आदेश दे पा रही हैं।
इस तर्क के साथ अब पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को निशाना बनाया जा रहा है। मजे कि बात ये है कि इस बार कांग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम ही नहीं बल्कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया जैसे मैनस्ट्रीम न्यूज़पेपर भी इसमें शामिल हैं।
इन लोगों का कहना है कि ज्ञानवापी मामले पर DY Chandrachud की बेंच ने जो फैसला दिया था उसी से पूजा स्थलों के सर्वे का रास्ता खुला। अब यहाँ दो सवाल उठते हैं- पहला ये कि पूर्व CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने क्या आदेश दिया था? और क्या उनका आदेश सही था?
तो देखिए, ज्ञानवापी मामले को लेकर मई, 2022 में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई थी। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 पर सुनवाई की थी। फैसले में तब के CJI चंद्रचूड़ ने कहा था कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 किसी भी विवादित स्थल के चरित्र की जाँच से नहीं रोकता।
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उनके कहने का अर्थ था कि पूजा स्थल और पूजा स्थल का चरित्र निर्धारण दो अलग-अलग बातें हैं। 15 अगस्त, 1947 को किसी पूजा स्थल का चरित्र क्या था, पूजा स्थल अधिनिमय 1991 में उसके निर्धारण के लिए सर्वे या फिर ऐसी किसी दूसरी प्रक्रिया को रोकने का कोई प्रावधान नहीं है।
आसान शब्दों में कहें तो उनका कहना था कि 15 अगस्त, 1947 को कोई पूजा स्थल मंदिर था, मस्जिद थी या फिर गुरुद्वारा था, इसकी जाँच की जा सकती है।
संभल की मस्जिद और अजमेर दरगाह के मामले सामने आने के बाद अब इंडी गठबंधन की पार्टियां और उनका पूरा इकोसिस्टम डीवाई चंद्रचूड़ के इसी फैसले की आलोचना करते हुए उन्हें निशाना बना रहा है।
अब दूसरे सवाल पर बात करते हैं कि क्या डीवाई चंद्रचूड़ का निर्णय सही था? तो देखिए, किसी कानून को कैसे परिभाषित या उसकी व्याख्या कैसे करनी है, इसका पूरा अधिकार जज का होता है।
किसी जज को इसलिए दोष नहीं दिया जा सकता है कि उन्होंने फलां कानून को ऐसे क्यों परिभाषित किया। एक ही बेंच में बैठे पाँच जज कई बार एक ही कानून की अलग-अलग इंटरप्रिटेशन करते हैं। देश की संसद भी जजों के कानूनों को इंटरप्रिटेट करने के अधिकार में दखल नहीं देती।
दूसरी बात यह है कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने जिस बेंच पर रहते हुए यह निर्णय दिया था, उस बेंच में 2 और न्यायाधीश थे- जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस पीएस नरसिम्हा।
आप यह जानकर चौंक जाएंगे कि यह दोनों जज भी जस्टिस चंद्रचूड़ की व्याख्या से सहमत थे। यानी कि तीनों जजों की बेंच ने मिलकर यह निर्णय दिया था।
ऐसे में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ को निशाना बनाना कहीं से तार्किक दिखाई नहीं देता- लेकिन बात वही है कि जब विपक्षी नेता और उनका पूरा इकोसिस्टम निरंतर हार के अवसाद में हो और कुछ करना भी न चाहें तो वे अवसन्नता से ग्रस्त दिखाई देते हैं- आलसी दिखाई देते हैं- ऐसे में वे वही करते हैं जो सबसे आसान होता है।
DY Chandrachud इसी वर्ष 10 नवंबर को रिटायर हुए हैं। मोटा-मोटी कहें तो पूजा स्थल अधिनियम पर निर्णय देने के 2 वर्ष बाद वे रिटायर हुए हैं- सवाल है कि इन दो वर्षों में उनके निर्णय पर सवाल क्यों नहीं उठाए गए? क्यों उनकी आलोचना नहीं की गई? अब जब वे कोर्ट में नहीं हैं- तब उन्हें लगातार टारगेट क्यों किया जा रहा है?
देखा जाये तो यह एक राजनीतिक पैंतरा है। न्यायपालिका के निर्णय के अनुसार सर्वे हो रहे हैं और एक ही समुदाय सर्वे के विरुद्ध हिंसा कर रहा है तो हिंसा के इस खेल का बचाव न केवल जस्टिस चंद्रचूड़ की आलोचना करके किया जा सकता है बल्कि उन्हें ही सीधा हिंसा के लिए जिम्मेदार बताया जा सकता है, यह कहते हुए कि उन्होंने निर्णय नहीं दिया होता तो यह हिंसा नहीं होती।
सवाल ये भी उठ रहा है कि विपक्षी दलों को और जैसा कि पीएम मोदी कहते हैं उनके चट्टे-बट्टों को इतनी ज्यादा समस्या है तो वे सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं जाते? सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर तो सुप्रीम कोर्ट में ही सुनवाई हो सकती है।