सुप्रीम कोर्ट ने आज, यानी सोमवार को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को मिल रहे 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाले 103वें संविधान संशोधन की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। सामाजिक न्याय की अवधारणा में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला मील का पत्थर साबित होने वाला है।
सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच ने 3-2 से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के आरक्षण के पक्ष में फैसला सुनाया। हालाँकि, मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित और न्यायाधीश रवीन्द्र भट्ट ने इसे संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया।
आर्थिक रूप से कमजोर तबके को भी उच्च शिक्षा और रोजगार में समान अवसर मिले, इससे संविधान की मूल भावना ‘सामाजिक समानता’ ही बनी रहेगी। सामान्य वर्ग होने कारण उन्हें आर्थिक रूप से आरक्षण से बाहर रख देना क्या संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं हो जाता है?
हालाँकि, इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट के 3 न्यायाधीशों ने EWS की अवधारणा को सराहा भी है और यह भी स्पष्ट किया है एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों को दिए जा रहे आरक्षण से भिन्न है, यह पूरी तरह से स्वतंत्र है।
आश्चर्य की बात यह है कि भारत की आजादी के समय से ही गरीबी मिटाओ के नारे और दावे किए जाते रहे हैं। आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग यानी सामान्य वर्ग की विडंबना ऐसी कि उनकी गिनती गरीबों में हुई ही नहीं। आरक्षण मिलना तो बहुत दूर की बात है।
देश में आरक्षण की आधारशिला सामाजिक न्याय स्थापित करने के विचार पर ही रखी गई थी, हालाँकि हमारे देश को आज़ादी के इतने वर्षों तक भी यह सोचने में समय लग गया कि सामाजिक न्याय में समाज का हर वर्ग आता है; चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या फिर श्रेणी से क्यों ना सम्बंध रखता हो।
जब वर्ष 2019 में मोदी सरकार ने सामान्य श्रेणी के कमजोर तबके के साथ चले आ रहे इस भेदभाव को मिटाने की पहल की तब कई विपक्षी नेताओं एवं जातिवादी गुटों को इस पहल से सख़्त नाराज़गी होती नज़र आई।
आज सुप्रीम कोर्ट ने जब इस फ़ैसले को संवैधानिक करार दे दिया, तब भी एक बड़ा वर्ग परेशान नज़र आ रहा है। तो फिर वो कौन लोग हैं जो साल के तीन सौ पैंसठ दिन सामाजिक न्याय की दुहाई देते हैं लेकिन जब इस दिशा में तंत्र प्रयास करता है, तब उन्हीं की न्याय की सोच पर तुषारापात हो जाता है, उनकी न्याय की परिभाषा ही बदल जाती है!
देश के अंदर आर्थिक रूप से कमजोर ऐसे वर्गों को जो कि अभी किसी भी आरक्षण का लाभ नहीं पा रहे हैं, 10% आरक्षण देने की घोषणा कर संविधान में 103वाँ संशोधन किया था, जिसे संसद द्वारा भी पारित कर दिया गया था।
भारत जैसे राष्ट्र में शोषित, वंचित और आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों को हमेशा से ही मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास होते आए हैं। इसी समाज ने ऐसे कई नायक भी दिए जिन्होंने समाज की इस खाई को भरने के अथक प्रयास भी किए।
ऐसे में जब सभी वर्ग समाज के लगभग सभी हिस्सों में प्रतिनिधित्व का सपना देख सकते हैं तो फिर महज़ सामान्य श्रेणी से होना ही क्या आर्थिक रूप से पिछड़ों का गुनाह मान लिया जाना चाहिए? मोदी सरकार ने कम से कम यह ख़्वाब ए शहर देखा है, और यह ख़्वाब अच्छा है।