इस लेख का शीर्षक इस प्रकार का संदेह उत्पन्न करता है जैसे यूरोप के देशों का आपस में युद्धरत होना कोई आश्चर्यजनक घटना है। सच्चाई यह है कि पश्चिमी यूरोप और यूरोपीय कही जाने वाली सभ्यता ने पूरी दुनिया को पिछले सौ सालों से युद्धरत बनाये रखा है। यूरोपीय सभ्यता वास्तव में युद्ध ही जानती है। शांति से रहना तो यूरोप ने अपने उपनिवेशों से सीखा है। यूरोप ज्ञात इतिहास में कभी युद्ध से बाहर आया ही नहीं लेकिन पूरी दुनिया को यूरोपीय युद्धों ने प्रथम विश्व युद्ध से पहली बार पूरी तरह से चपेट में लिया। पहले विश्व युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से पूरे यूरोप और परोक्ष रूप से यूरोपीय देशों के उपनिवेशों का शामिल होना भूमंडलीकरण की शुरुआत माना जाना चाहिए। जिस शांति की यूरोप कसमें खा रहा है और आश्चर्य कर रहा है, वो शांति भी दूसरे विश्व युद्ध की छाँव में पैदा हुई।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकन सहयोग से पहली बार तथाकथित सभ्य पश्चिमी यूरोप में एक शीतकालीन शांति स्थापित होने की शुरुआत हुई। इसके लिए साम्यवाद नाम का वैचारिक शत्रु ढूँढा गया जिसका निवास उस समय का सोवियत संघ था। अमेरिका के नेतृत्व में इस कम्युनिस्ट शत्रु से युद्ध की घोषणा ने पश्चिमी यूरोप को एकत्र होने और शांति से रहने में मदद की। अमेरिकन नेतृत्व पश्चिमी यूरोप को इसलिए स्वीकार्य हुआ क्योकि पहले तो अमेरिका बाहरी था जिनसे महाद्वीपीय यूरोप को सम्प्रभुता पर खतरा नहीं दिखता था। दूसरे, जिस समय वो यूरोप को ये बात समझा रहे थे उस समय पश्चिमी यूरोप आपस में लड़कर आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से तबाह हो चुका था और अमेरिका की बात मानने के अलावा शायद यूरोप के पास कोई और उपाय नहीं था।
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इस लेख के शीर्षक में यूरोप के युद्धरत होने की बात को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप के देश आपस में नहीं लड़े हैं और पिछली शताब्दी के आखिरी दशक से पूरे यूरोप में कमोबेश शांति रही है। हालाँकि अमेरिकन नेतृत्व में पश्चिमी यूरोप के देश दूसरे विश्व युद्ध के बाद से ही विचारधारा के नाम पर शेष यूरोप सहित दुनिआ के बाकी मुल्कों को लड़ा रहे हैं या उनसे लड़ रहे हैं। इस प्रकार यूरोप के सभ्य कहे जाने वाले राष्ट्रों ने रूस यूक्रैन युद्ध के पहले तक अपनी शांति दुनिया के बाकी मुल्कों की शांति के बदले खरीद रखी थी।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद महाद्वीपीय यूरोप में शांति स्थापित होने की प्रक्रिया भी लम्बी और थकाऊ थी। पहले तो रूस के रूप में एक वैचारिक शत्रु ढूँढा गया जो दूसरी बड़ी लड़ाई में तो नाज़ी जर्मनी के खिलाफ था लेकिन जिस को पश्चिमी यूरोपीय देशों ने कभी यूरोपीय सभ्यता का हिस्सा नहीं माना। दूसरी बड़ी लड़ाई के ख़त्म होते ही यूरोप और बाकी दुनिया में आंग्ल-अमेरिकी पूंजीवाद और रुसी साम्यवाद के बीच हुए संघर्ष में आंग्ल-अमेरिकी गठबंधन की जीत हुई। इस संघर्ष में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो और यूरोपीय संघ यूरोप में एक महाद्वीपीय सैन्य-अर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था के तौर पर उभरे जिनका सामना रूस के नेतृत्व वाले वॉरसॉ संधि संघ से था जो खुद भी एक सैन्य संगठन था। 1991 में सोवियत रूस के विघटन के बाद वॉरसॉ संधि भी इतिहास की बात हो गयी और विजयी पश्चिमी यूरोप की विचारधारा और नाटो फैलते हुए रूस की सरहद तक पहुंच गए जिसकी परिणति रूस-यूक्रैन युद्ध के रूप में देखने को मिल रही है।
अमेरिका-नाटो गठबंधन ने कम्युनिस्ट विचार को दुनिया में फैलने से रोकने के लिए मध्य-पूर्व के देशों में इस्लामिक राज्य के विचार को हवा दी जिसकी परिणति वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद जो एक वैश्विक इस्लामिक राज्य की कल्पना करता है, के रूप में हुई। आज मध्य एशिया के अधिकांश राज्य या तो आतंकवाद से बर्बाद हो चुके हैं या किसी प्रकार की सैन्य तानाशाही के अधीन हैं। पूर्व एशिया में जो राज्य पूंजीवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्था स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए, वो उत्तर कोरिया और बर्मा जैसे सैन्य तानाशाही राज्य में बदल गए। यही लैटिन अमेरिका में भी हुआ। पूर्वी यूरोप के राज्यों से कम्युनिस्ट विचार को निकाल कर फेंकने के बाद इन राज्यों का नाटो-यूरोपीय संघ में विलय कर दिया गया।
यूरोपीय संघ में विलय के बावजूद भी यूरोपीय संघ के पश्चिमी यूरोपीय चरित्र से पूर्वी यूरोपीय देशों को अपनी सभ्यता और संस्कृति को खतरा लगता है जिससे निपटने के लिए इन देशों में लगातार चरम दक्षिणपंथी सरकारें लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से चुन कर आ रही हैं। तुर्की में तय्यप एर्डोगन और हंगरी में वेक्टर ओबोर्न का लगातार चुना जाना पश्चिमी यूरोप के प्रति पूर्वी यूरोपीय समाजों में व्याप्त इसी शंका को रेखांकित करता है। यह अपने आप में पश्चिमी यूरोप और अमेरिकी उदारवादी लोकतंत्र की कमियों को रेखांकित करता है।
उदारवादी लोकतंत्र के विचार के इतर देशों का एक तबका ऐसा भी है जिसने अपनी स्वतंत्र राह बनायी है। चीन, भारत, विएतनाम और इंडोनेशिया आदि ऐसे राज्य हैं जो सोवियत साम्यवाद और अमेरिकी पूंजीवादी व्यवस्था के कहीं बीच खड़े होते हैं और जिन्होंने विश्व में महत्वपूर्ण आर्थिक-राजनैतिक शक्ति के तौर पर या तो अपनी जगह बना ली है या बनाने को तैयार हैं। इन वैकल्पिक व्यवस्था वाले देशों में चीन सबसे महत्वपूर्ण है इसलिए नहीं क्योकि केवल चीन के पास ही अमरीकी विचार के विरुद्ध कोई वैकल्पिक विचार है बल्कि चीन इस लिए सबसे महत्वपूर्ण है क्योकि अमेरिकी चीन को सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। चीन इस मामले में भी महत्त्वपूर्ण है कि उसके कारण पहली बार दुनिआ पश्चिम की छाया से निकलने के लिए तत्पर है।
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सैद्धांतिक तौर पर, एक सफल और वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में चीन अमेरिका से सबसे दूर है क्योकि जहाँ अमेरिका पूंजीवादी राज्य है वहीं चीन में राज्य पूंजीवाद है। राज्य पूंजीवाद के सहारे चीन ने पिछले दो दशकों में असम्भाव्य मानी जाने वाली आर्थिक प्रगति कर ली है और अमेरिका के पूंजीवादी उदारवाद को चुनौती दी है। दोनों व्यवस्थाओं में अंतर ये है कि जहाँ अमेरिका में पूंजीवादी शक्तियां राज्य की दशा और दिशा तय करती हैं वहीँ चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकारी शासन के अंतर्गत चीनी राज्य पूँजीवाद की दशा और दिशा तय करता है। समकालीन समय में अमेरिकी राज्य के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को एक निजी पूंजीवादी प्लेटफार्म ट्विटर द्वारा सदस्यता से बेदखल करना अमेरिकी पूंजीवादी राज्य का चरम बिंदु था जिसके कारण अमेरिकी राष्ट्रपति जो राज्य का वैश्विक प्रतिनिधि है की वैश्विक छवि धूमिल हुई। दूसरी ओर चीन में अलीबाबा नामक कंपनी के संस्थापक की व्यापारिक गतिविधियों को नियंत्रित करना समकालीन समय में चीन के राज्य पूँजीवाद के चरम बिंदु के तौर पर देखा जा सकता है।
रूस-यूक्रैन के बीच का सैन्य विवाद पूँजीवाद के इन्हीं दो चरम बिंदुओं, जिनका प्रतिनिधित्व चीन और अमेरिका करते हैं, के बीच का विवाद है। राष्ट्र राज्य और पूँजी के बीच संघर्ष भूमंडलीकरण के बाद अपने चरम पर पहुंच गया जिसमें पूँजी जीतती दिख रही थी लेकिन चीन के उभार ने इतिहास को पुनर्जीवित कर दिया और इतिहास का ये संघर्ष अब एक नए दौर में है जिसके बाद राष्ट्र राज्य और पूँजी के बीच नए साम्य का उदय होना निश्चित है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नया साम्य लोकतान्त्रिक आदर्शों की तरफ ही झुका रहेगा लेकिन उदारवाद की नयी व्याख्या का उदय निश्चित है। इस सन्दर्भ में कुछ जानकारियां इस बिंदु की व्याख्या करने के लिए आवश्यक है।
पिछले तीन दशकों में आर्थिक उदारवाद द्वारा संचालित भूमंडलीकरण ने पिछड़े देशों को निश्चित रूप से फायदा पहुंचाया है लेकिन जिस वैश्विक उदार लोकतान्त्रिक व्यवस्था की अमेरिका और उसके सहयोगी युद्ध की हद तक वकालत करते रहे हैं, उसके लिए आवश्यक शर्तें विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भले उपस्थित हों लेकिन विकासशील देशों में पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्र को लागू करने के लिए आवश्यक पृष्ठ्भूमि का आभाव है। इसीलिए चीन के नेतृत्व में राष्ट्र राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा फैलाये जा रहे पूंजीवादी उदारवाद और इस पर आधरित उदारवादी लोकतंत्र का विरोध आने वाले समय में करते रहेंगे जब तक कि कोई नया लोकतान्त्रिक विमर्श नहीं खड़ा होता। दूसरी ओर विकसित देशों के भीतर भी नागरिकों का एक तबका है जिसको भूमंडलीकरण के कारण नुकसान उठाना पड़ा है और ये तबका आज एकजुट होकर उदारवादी विचार के विरुद्ध खड़ा है जिसकी परिणति अनेक यूरोपीय देशों में दक्षिणपंथी विचार के उभार में दिखाई देती है। दक्षिणपंथी विचारधाराओं के उभार से अमेरिका, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन जैसे देश जो दशकों से उदारवादी लोकतंत्र की वकालत करते रहे हैं भी नहीं बच पाए हैं। वर्तमान में चीन को रोकने के लिए अमेरिका और यूरोपीय संघ द्वारा लायी जा रही संरक्षणवादी नीतियां इस बात का सबूत हैं कि ये देश उदारवाद को सांस्कृतिक सन्दर्भों में देखने को तैयार हो रहे हैं। इस प्रकार अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में भी राष्ट्र राज्य के नेतृत्व में पूँजी प्रवाह के साथ बहने वाले प्रतिकूल सांस्कृतिक विचारों का विरोध खड़ा हो रहा है।
संरक्षणवादी यूरोप और अमेरिका के साथ ही उदारवाद में निहित विचारधारा मुक्त पूँजी का विचार अब भूतकाल की बात होने वाली है।
इस बारे में विद्वान चर्चा करते रहेंगे कि रूस-यूक्रैन विवाद में कौन गलत था और कौन सही लेकिन अब इस विवाद ने निर्णायक मोड़ लेना शुरू कर दिया है। रूस ने कुछ दिन पहले ही अमेरिका के साथ परमाणु समझौता सस्पैंड कर दिया है जिसका सीधा मतलब है कि अब दुनिया औपचारिक रूप से शीत युद्ध के दौर में पहुंच गयी है। इस युद्ध के कारण यूरोपीय और दुनिया के अन्य देशों में महगाई बढ़ी है और जिसके परिणामस्वरूप कोरोना महामारी के चलते पहले से दबाव झेल रही लोकतान्त्रिक सरकारों की लोकप्रियता और तेजी से गिर रही है। उदारवादी लोकतंत्र जो पहले से दबाव में था उस पर रूस यूक्रैन युद्ध ने दबाव बढ़ा दिया है जो नए लोकतान्त्रिक चिंतन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
इस युद्ध का एक अन्य परिणाम ये हुआ है कि इस युद्ध ने ऐसे देशों को महत्वपूर्ण बना दिया है जो अमेरिका और यूरोप के उदारवादी लोकतंत्र और चीन की राज्य तानाशाही के बीच कहीं हैं और जिन्होंने आर्थिक उदारीकरण का लाभ उठा कर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावशाली बनाया है। भारत, विएतनाम, इंडोनेशिया, सऊदी अरब आदि इसके उदाहरण हैं। राष्ट्र राज्य और पूँजी के बीच संघर्ष के फलस्वरूप उत्पन्न हुए नए शीत युद्ध के समाप्त होने के बाद जिस नए लोकतान्त्रिक साम्य के उदय की बात पहले हो रही थी, उक्त देशों में से कुछ उसी नए साम्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे देशों में सबसे महत्वपूर्ण नाम भारत का है जो न केवल लोकतंत्र है बल्कि बहुसंस्कृतिवादी लोकतंत्र है। पश्चिम में जहाँ यूरोपियन यूनियन और रूस दो विपरीत विचारों को अभिव्यक्त करते हैं वहीँ पूर्व में चीन के अधिनायकवादी विचार का अगर कोई वैचारिक विकल्प है तो वो भारत है, अमेरिका या यूरोप नहीं। भारत का विचार यूरोपियन संघ से इस सन्दर्भ में उत्कृष्ट है कि जहाँ यूरोपीय संघ एक आर्थिक-सैन्य संघ से राजनैतिक सामाजिक संघ होने की तरफ प्रयाण है वहीँ भारत एक संवैधानिक सामाजिक राजनैतिक संघ का आर्थिक संघ होने की तरफ प्रयाण है। सामाजिक तौर पर भारतीय संघ में यूरोपीय संघ से कहीं ज्यादा ऐक्य है। बहुसंस्कृतिवाद का भारत में आर्गेनिक तरीके से उद्भव हुआ है जबकि यूरोपीय संघ में बहुसंस्कृतिवाद राजनैतिक प्रोजेक्ट का हिस्सा है और इसलिए यूरोपीय बहुसंस्कृतिवाद में कृत्रिमता है। भारत के लोकतंत्र की इस विशिष्टता को अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन ने स्वीकार करना भी शुरू कर दिया है और इसीलिए भारत को रूस यूक्रैन युद्ध में वो रियायतें मिली हुईं हैं जो अन्य किसी देश को नहीं मिलीं हैं।
भारत के प्रति अमेरिकी गठबंधन का रुख कैसे अलग है इसको जानने के लिए ये देखना पर्याप्त होगा कि रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के बीच भारत रूस व्यापार लगातार बढ़ रहा है और यूनाइटेड नेशंस में रूस के विरुद्ध अमेरिकन गठबंधन द्वारा लाये गए प्रस्तावों का भारत ने बहिष्कार भी किया है फिर भी पश्चिमी देशों को इससे कोई आपत्ति नहीं है। उदारवादी चिंतकों को भारत का व्यवहार अजीब भले लगे लेकिन भारत जैसे देशों के माध्यम से पश्चिमी सभ्यता रूस को पूरी तरह से चीन के खेमे में जाने से रोके हुए है। इस दृष्टि से भारत इस नए शीत युद्ध में ऐसी ताकत के तौर पर उभर रहा है जो शीत युद्ध की तीव्रता को कम कर रहा है और इस प्रकार से वैश्विक शांति में अपनी निर्णायक भूमिका निभा रहा है। दीर्घकाल में भारत को अगर विश्व चीन के एकमात्र विकल्प के तौर पर देखे तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए और इस लिहाज़ से भारतीयों को वैश्विक स्तर पर बड़ी जिम्मेदारियों के लिए खुद को तैयार करना चाहिए।