देश में भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच लगभग हर राज्य में चल रही है। तरह-तरह के भ्रष्टाचार के आरोप हैं। शिक्षा, शराब, माइनिंग, गो-तस्करी, शिक्षक भर्ती, बस खरीद, राज्यों के शासन का लगभग हर विभाग सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय की जांच के दायरे में है। छापे मारे जा रहे हैं। दिल्ली से लेकर पश्चिम बंगाल तक छोटे-बड़े नेताओं की गिरफ्तारी हो रही है। कुछ नेता गिरफ्तारी की प्रतीक्षा में हैं। अधिकतर जांच विपक्षी दलों के नेताओं के विरुद्ध चल रही है?
जाँच एजेंसियों की इन कार्रवाइयों पर केंद्र सरकार को देख लेने की धमकी भी जारी की जा रही है। विपक्षी दलों द्वारा बड़े स्तर पर विरोध हो रहा है। जहाँ खुल कर विरोध नहीं हो पा रहा, वहाँ किसी और विषय के बहाने विरोध किया जा रहा है। दिल्ली के आबकारी घोटाले को लेकर चल रही जाँच में विवश होकर सहयोग देने तेलंगाना से दिल्ली पहुँची मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की पुत्री के कविता ने दर्जन भर अन्य दलों के साथ मिल कर दिल्ली में महिला आरक्षण की मांग को लेकर धरने का आयोजन कर डाला।
जांच के विरोध में पत्र भी लिखे जा रहे हैं। प्रधानमंत्री को लिखे जाने वाले सामूहिक पत्र में स्थान मिस कर देने वाले मुख्यमंत्री सोलो पत्र लिख दे रहे हैं। दिन में कई बार प्रेस कांफ्रेंस आयोजित किए जा रहे हैं। एक मामले में तो केंद्र सरकार पर सीबीआई द्वारा गिरफ्तार किए गए मनीष सिसोदिया को जान से मारने की साजिश के आरोप भी लगाये गए। यह सब करने के पीछे कुतर्क एक ही है, केंद्र सरकार विपक्ष को खत्म कर देना चाहती है और वह ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि विपक्ष अपने शासन के मॉडल को लेकर सफल है।
यह सब किया जा रहा है लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर। विपक्ष का कहना है कि वह खत्म हो जाएगा तो लोकतंत्र नहीं रहेगा। यह बात और है कि कुछ मामलों में विपक्ष ने अपना दृष्टिकोण बदला है। कुछ मामलों में पहले खुद को पाक साफ बताने वाले विपक्ष के नेता अब यह नहीं कह रहे कि भ्रष्टाचार के आरोप गलत हैं। अब उनका पूछना यह है कि; भाजपा के नेताओं पर जांच एजेंसियों द्वारा कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? दिल्ली शराब घोटाले में सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा कविता को समन जारी किये जाने के बाद पहले तो उनके दल का कहना था कि कविता का इससे कुछ लेना देना नहीं है। अब उनका यह पूछना है कि; भाजपा में क्या सब हरिशचंद्र हैं?
विपक्षी नेता यह समझते तो हैं कि वर्तमान सरकार के अंतर्गत केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई का जवाब शोर नहीं हो सकता पर वे इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि इस वर्ष कई राज्यों में चुनाव होने हैं और दूसरा यह कि ऐसा स्वीकार करने से उन सरकारी और संवैधानिक संस्थाओं पर भविष्य में छींटाकशी नहीं की जा सकेगी जिसपर बार-बार आरोप लगाकर विपक्ष वर्तमान केंद्र सरकार की वैधता पर चोट करता रहता है। फिलहाल विपक्ष इस बात को लेकर पूरी तरह से स्पष्ट है कि संवैधानिक और केंद्रीय संस्थानों को बदनाम करके ही नरेंद्र मोदी की छवि को तोड़ा जा सकता है।
अपनी इसी योजना के तहत विपक्ष पिछले कई वर्षों से चुनाव आयोग, रिज़र्व बैंक, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और यहाँ तक कि न्यायपालिका को बदनाम करता रहा है। बार-बार खुद संवैधानिक ढाँचे और फेडरल स्ट्रक्चर पर प्रहार करके केंद्र सरकार को उसी काम के किए ज़िम्मेदार ठहराता है। उसे भ्रष्टाचार की जांच से बचने का यही तरीका सबसे सही लगता होगा पर अभी तक यह तरीका कारगर सिद्ध नहीं हुआ है। महाराष्ट्र में एनसीपी नेताओं के विरुद्ध, केरल में विजयन सरकार के विरुद्ध, बिहार में लालू प्रसाद के परिवार के विरुद्ध या फिर दिल्ली में सिसोदिया और सत्येंद्र जैन के विरुद्ध, किसी भी जांच पर शोर का प्रभाव अभी तक नहीं पड़ा है।
दूसरी ओर केंद्र सरकार (नरेंद्र मोदी पढ़ें) के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय तक विपक्ष द्वारा ले जाए गए लगभग हर केस में विपक्ष को असफलता हाथ लगी है। पिछले आठ वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा लिया गया शायद ही कोई नीतिगत फैसला हो, जिसे विपक्ष सर्वोच्च न्यायालय तक न ले गया हो। आधार कार्ड हो, रफाल हो, विमुद्रीकरण हो या फिर कोविड संबंधी निर्णय, विपक्षी दलों ने केंद्र सरकार को सर्वोच्च न्यायलय ले जाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया है। सरकार के हर फैसले को सर्वोच्च न्यायलय तक ले जाने वाले विपक्ष को अभी हर बार निराश होना पड़ा।
यह बात देश के लिए नीति बनाने को लेकर केंद्र सरकार की प्रतिबद्धता पर एक तरह से ऐसी मुहर है जिससे विपक्षी दल अभी तक पचा नहीं पाए हैं। ये विपक्षी दल और उनके नेता अभी तक उस एक दाग की खोज में हैं जिसे ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनकी सरकार पर चिपका सकें। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के केंद्र सरकार के पक्ष में फैसले के बाद भी राहुल गांधी बड़ी निर्लज्जता के साथ लंदन में चुनी हुई अपनी भीड़ को बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने विमुद्रीकरण का फैसला भारतीय रिज़र्व बैंक को बिना बताये लिया।
दशकों के भ्रष्टाचार के बावजूद देश के राजनीतिक दलों को भ्रष्टाचार विरोधी जांच में सहयोग की आदत कभी नहीं रही है। ये दल और उनके नेताओं को इस बात का विश्वास कभी रहा ही नहीं कि कोई सरकार ऐसी भी आ सकती है जो भ्रष्टाचार की भी जांच कर ले। यही कारण है कि केंद्रीय जांच एजेंसियों की कार्रवाई को पहले शोर से रोकने की कोशिश की गई। शोर का कारगर साबित न होना धीरे-धीरे इन दलों और उनके नेताओं की असहजता बढ़ा रहा है। यह बात अब इनकी प्रतक्रिया में दिखाई भी दे रहा है।
किसी सरकार या उसके मंत्रियों द्वारा भ्रष्टाचार का एक ही अर्थ है और वह है; ऐसी सरकार में चलाने वाले सत्ताधारी दलों का लोकतांत्रिक ढांचे में विश्वास न होना। ऐसे दल स्वीकार ही नहीं कर पाते कि पाँच वर्ष बाद फिर चुनाव होना है और हो सकता है कि जनता तब उन्हें नकार दे। यदि ऐसा हुआ तो आने वाली सरकार कार्रवाई भी कर सकती है।
राजनीतिक दलों को यह समझने की आवश्यकता है कि भ्रष्टाचार रोकने का मैंडेट हर सरकार के पास होता है पर भ्रष्टाचार करने का मैंडेट किसी सरकार के पास नहीं होता। अब यह सरकार और उसके नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह किस ओर खड़ा होना चाहता है।