“चूँकि ये चौदह राजनीतिक दल भारत के बयालीस प्रतिशत मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए यह कहा जा सकता है कि केवल ये राजनीतिक दल या उनके नेता ही नहीं बल्कि भारत के बयालीस प्रतिशत मतदाता प्रवर्तन निदेशालय (ED) या सीबीआई (CBI) से पीड़ित हैं”
यह दलील उन चौदह राजनीतिक दलों के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने सर्वोच्च न्यायालय में दी जो सरकार द्वारा भ्रष्टाचार की जाँच के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे थे। सर्वोच्च न्यायालय पहुँचने के मूल में यह दलील भी थी कि; प्रवर्तन निदेशालय या सीबीआई की कार्यवाही केवल विपक्षी दलों के विरुद्ध हो रही है।
विपक्षी दलों के वकील की यह दलील सुनकर लगता है जैसे वकील साहब ने न्यायालय से कहा कि; भ्रष्टाचार की जाँच जिन राजनीतिक दलों के विरुद्ध चल रही है, चूँकि वे दल बयालीस प्रतिशत मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए कहा जा सकता है कि सरकार देश के बयालीस प्रतिशत मतदाताओं को भ्रष्ट बता रही है।
विपक्षी दलों के वकील की यह दलील भ्रष्टाचार को लेकर इन दलों की मानसिकता उजागर करती है। एक और दलील में वकील साहब ने कहा; 2014 और 2021 के बीच प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई द्वारा जाँच बढ़ गई है।
देखा जाए तो यही बात सरकार और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह रहे हैं। उनका भी यही कहना है कि 2014 से पहले भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच और कार्रवाई या तो नहीं होती थी या फिर सही ढंग से नहीं होती थी।
विपक्षी दलों के वकील सर्वोच्च न्यायालय में यह तो कहते हैं कि 2014 के बाद जाँच बढ़ गई है या विपक्षी दलों के विरुद्ध जाँच बढ़ गई है पर यह नहीं कहते कि 2014 से पहले भ्रष्टाचार भी बढ़ गया था और ये जाँच उसी बढ़ोतरी का नतीजा है।
सर्वोच्च न्यायालय ने विपक्षी दलों की दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि; किसी कानून के अन्तर्गत जाँच के नियमों को केवल नेताओं या राजनीतिक दलों के लिए बदला नहीं जा सकता।
बिलकुल तार्किक बात है। ऐसा तो है नहीं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय ने केवल नेताओं या राजनीतिक दलों के विरुद्ध ही जाँच किया है। इस तरह की जाँच व्यापारियों, उद्योगपतियों या अफसरों या आम भारतीय के विरुद्ध भी होती रही है। ऐसे में यदि नियम बदलने हैं या पहले से निर्धारित नियमों को खारिज करना है तो उसके लिए केवल राजनीतिक दलों या विपक्षी राजनीतिक दलों की दलीलों को ही क्यों मानना होगा?
दरअसल नियम बदलने को लेकर या प्रवर्तन निदेशालय को मिले अधिकारों को कम करने को लेकर इन्हीं में से कुछ राजनीतिक दलों की याचिका पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय में ही ख़ारिज हो चुकी थी। ऐसे में विपक्षी दलों के इस नये प्रयास को उसी याचिका का विस्तार ही कहा जा सकता है।
सर्वोच्च न्यायालय का ने कहा; यदि आपको लगता है कि विपक्ष के राजनीतिक दलों के लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं तो इन मुश्किलों का हल राजनीति के क्षेत्र से ही निकलेगा।
अर्थात, अपनी दलील लेकर जनता की अदालत में जाएँ और जनता का फैसला सुनें।
देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय विपक्षी दलों को वहीं जाने की सलाह दे रहा है जहाँ वे जाना नहीं चाहते। भ्रष्टाचार के विषय को लेकर सत्ताधारी दल भाजपा और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता की अदालत में जाने के लिए तत्पर हैं पर विपक्ष इसके लिए तैयार नहीं है।
यह समझना कठिन नहीं है कि विपक्ष इस बात के लिए तैयार क्यों नहीं है।
पिछले तीस वर्षों में भ्रष्टाचार के प्रति अधिकतर राजनीतिक दलों का व्यवहार यह रहा है कि वे भ्रष्टाचार करने को लेकर तो सहज रहे हैं पर उस भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच को लेकर हमेशा असहज रहे हैं। ये दल दहाड़ते तो रहे हैं कि; इस विषय का या उस विषय का फैसला जनता की अदालत में होगा पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जाँच की बात आती है तो उसे लेकर न्यायिक अदालत पहुँच जाते हैं, वह भी ऐसी दलील के साथ कि; हुजूर, हमें चार करोड़ मत मिलते हैं। ऐसे में अगर इस जाँच से हम पीड़ित हैं तो आप यह मान लें कि इस जाँच से चार करोड़ लोग पीड़ित हैं।
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न्यायपालिका ने भी पहली बार राजनीतिक दलों को अपनी इस समस्या का हल जनता की अदालत में खोजने की सलाह औपचारिक तौर पर दी है। कल के अपने फैसले से सर्वोच्च न्यायालय ने साफ कर दिया कि; भ्रष्टाचार की जाँच का उत्तर जाँच को लेकर सहयोग करने में है न कि राजनीतिक बकैती में।
अब देखना यह है कि अपने विरुद्ध चल रही जाँच या कानूनी कार्यवाही को लेकर ये राजनीतिक दल जनता की अदालत में जाने में कितना सहज दिखाई देते हैं। अपनी वर्तमान मुश्किलों का हल चल रही जाँच में निज को निर्दोष साबित करने में देखते हैं या सरकार और उसके नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप में। अभी तक तो यही दिखाई दिया है कि विपक्षी दल दूसरे विकल्प को प्राथमिकता देंगे।
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