थोड़े दिन पहले जब विदेशी संस्थाओं द्वारा जारी किए गए ‘हंगर इंडेक्स’ को भारतीय पक्षों ने फर्जी बताना शुरू किया था तो विदेशियों के फेंके टुकड़ों पर पलने वाले गिरोहों को इस पर भारी आपत्ति हुई थी। उनका कहना था कि अब तो अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं मान रही हैं कि भारत भूखा मर रहा है।
इस ‘हंगर इंडेक्स’ के करीब-करीब साथ ही एक ‘हैप्पीनेस इंडेक्स’ को भी जारी किया गया था। उसमें भी भारत को काफी पिछड़ा हुआ दिखाया जा रहा था। इन सभी की पोल तब खुलने लगी जब इसमें दर्शाए गए जिन देशों को भारत से बेहतर स्थिति में दिखाया जा रहा था, उनकी सच्चाई सामने आने लगी।
क्यूबा भारत से दान स्वरुप भोजन ले रहा था। वेनेजुएला की स्थिति किसी से छुपी हुई नहीं है। इन रिपोर्टों में जिस श्रीलंका को भारत से बेहतर दिखाया जा रहा था, उसमें प्रजा ने विद्रोह कर दिया और राष्ट्रपति, उसके परिवार और समर्थक खदेड़ दिए गए। अब वो भी भोजन के लिए भारत तथा अन्य देशों की मदद पर निर्भर था और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्टों में इसे ‘हंगर इंडेक्स’ में भारत से बेहतर दर्शा रहे थे।
इसके बाद बारी आई पाकिस्तान की, जिसे अज्ञात कारणों से अमेरिका और उसके द्वारा प्रायोजित संस्थान, बेहतर स्थिति में दर्शाने पर तुले रहते हैं। वहाँ भी भुखमरी के हालात हैं। बलूचिस्तान प्रान्त में भारी ठण्ड के बाद भी लोग सरकार के विरोध में सड़कों पर जमे दिखते रहे। खाने की किल्लत जब शुरू हुई तो इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान के दूसरे भागों से वीडियो सामने आने लगे जिसमें लोग आटे की बोरी के लिए मार-पीट और छीन-झपट कर रहे थे।
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान के कठपुतली प्रधानमंत्री ने अभी-अभी भारत की तरफ फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। इससे पहले जब फौजी हुक्मरान परवेज मुशर्रफ ने ऐसे ही हाथ बढ़ाया था तो उसने वाजपेयी की पीठ में कारगिल हमले का छुरा भोंका था, ये भारत की संसद भूली नहीं होगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के बयान की पाकिस्तान में ही निंदा हो रही है और भारत में ‘अमन की आशा’ गिरोह अब इंसानियत का तकाजा भी याद दिलाने लगे हैं।
विश्व भर में चल रही ऐसी घटनाओं के क्रम में अब लगता है कि मिस्र (इजिप्ट) की बारी आई है। हजारों की संख्या में मस्जिदें बनवाने पर करोड़ों खर्च देने वाले देश ने अब अपने नागरिकों से कहा है कि वो मुर्गियों की टाँगे खाना शुरू कर दें। आम तौर पर ये मुर्गे के शरीर का वो हिस्सा होता है जिसे भारत में भी मांसाहारी लोग पकाते नहीं, फेंक देते हैं। कमजोर आर्थिक स्थिति में जीवनयापन कर रहे लोगों को इसे ले जाते देखा जाता है।
मिस्र यानी इजिप्ट ऐसी दशा में पहुँचा कैसे? ये कोई एक वर्ष में नहीं हुआ। अगर इतिहास के तौर पर देखेंगे तो ‘अरब स्प्रिंग’ नाम से जाना जाने वाला आन्दोलन 2010 के अंत तक शुरू हो चुका था। मुहम्मद हसनी अल सैय्यद मुबारक की सत्ता को इस आन्दोलन ने इजिप्ट से 2011 में उखाड़ फेंका था। इस आन्दोलन के मुद्दे ही नहीं नारे भी ‘रोटी, स्वतंत्रता और सामाजिक बराबरी’ के ही थे। इसके वाबजूद आज इजिप्ट में महंगाई अपने पिछले पाँच वर्षों के सबसे ऊँचे स्तर पर है और कीमतें लगातार बढ़ती जा रही हैं।
इस्लामी मुल्क में सामाजिक बराबरी के नारे लगने पर चौंकिए मत। भले ही भारत में कुछ और बताया जाता हो, लेकिन ऊंच-नीच और छुआछूत जैसे नियम बनाने में वो कहीं भी पीछे नहीं। अभी की आर्थिक समस्याओं की जड़ में कहीं ना कहीं वैसी ही नीतियाँ हैं, जैसी नीतियाँ इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान ने लागू कर रखी हैं।
सेना को इजिप्ट में भी कुछ ज्यादा ही महत्व दिया जाता है। सेना के लिए हाल ही में रक्षा मंत्रालय का भवन बनवाया गया, जिसके कथित रूप से पेंटागन से भी बड़े होने के दावे किए जाते हैं। रेगिस्तान में सबसे ऊँचा (अफ्रीका का) टावर बनवाने के लिए भी काफी खर्च किया गया था। इजिप्ट में दवाओं, पेट्रोल पंप से लेकर दूध और माँस तक कई चीजें बनाने की कंपनी सेना के नियंत्रण में है। इनके पास कई विशेषाधिकार होते हैं। इन्हें टैक्स में छूट मिलती है और निजी कंपनियों की तरह इन्हें कोई वार्षिक लेखा-जोखा सार्वजनिक भी नहीं करना पड़ता।
आईएमएफ (इंटरनेशनल मोनिटरी फण्ड) ने ऐसी नीतियों पर आपत्ति जताई है। कोविड-19 के काल में हजारों करोड़ का विदेशी निवेश इजिप्ट से वापस चला गया। उसके बाद यूक्रेन संकट से जब तेल जैसी चीजों की कीमतें बढ़ीं तो इजिप्ट की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। फिलहाल इजिप्ट की सरकारी कंपनियाँ स्टॉक एक्सचेंज पर नहीं हैं लेकिन इजिप्ट के हुक्मरानों का कहना है कि जल्द ही ऐसा किया जाएगा।
पारदर्शिता का ये अभाव, निवेशकों के विश्वास में भी कमी लाता है। ऐसी हालत में विश्व समुदाय को भी इजिप्ट की ओर नजर रखनी होगी। ‘अरब स्प्रिंग’ से जो हालात 2011 में उपजे थे, उनके केंद्र में इजिप्ट रहा है। उस दौर में केवल इजिप्ट में ही नहीं बल्कि लीबिया, यमन, सीरिया, बहरीन जैसे कई देशों में तख्ता पलट हुआ था। इसके अलावा लेबनान, कुवैत, मोरक्को, ईराक, सीरिया जैसे देशों में भी व्यापक प्रदर्शन हुए थे। अभी फिर से इस इलाके में हुई हलचल एक चेतावनी है।
भारत का आम नागरिक वैसे तो अन्तरराष्ट्रीय ख़बरों पर कम ही ध्यान रखता है लेकिन हाल के पाँच-सात वर्षों में ये स्थिति थोड़ी सी बदली है। उम्मीद है गलत आर्थिक नीतियों के लिए दबाव बनाने की जो राजनीति भारत में की जाती है, मुफ्त की रेवड़ियाँ बांटने वालों को वोट पड़ते हैं, उनमें कमी आएगी। वरना फिर श्रीलंका, पाकिस्तान और अब मिश्र के बाद भारत की भी दशा बिगड़े, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
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