महाराष्ट्र में NCP के साथ जो कुछ घटा है और जो घट रहा है, उसने राजनीतिक गलियारों और राजनीति के विशेषज्ञों के बीच एक नई बहस छेड़ दी है। बहस है, बदलती राजनीति के बीच ‘परिवारवादी दलों’ की प्रांसगिकता और उनके अस्तित्व की। साथ ही विपक्षी खेमे में डर ये भी है कि क्या वे नरेन्द्र मोदी से लड़ पाएंगे?
NCP में फूट का श्रेय किसी ने शरद पवार के सिर बाँधा तो किसी ने अजीत पवार को कोसा, वहीं कुछ लोगों ने भाजपा को भी दोष दिया। लेकिन किसी ने यह सवाल नहीं पूछा कि आखिर इस टूट के पीछे क्या विचार है, क्या मानसिकता है, क्या कारण है?
NCP के बाद JDU को लेकर भी यही कयास लगाए जा रहे हैं। वहीं, RJD को लेकर भी कहा जा रहा है कि वह भी इस टूट का शिकार होगी।
यहाँ बात केवल एक या दो दलों की नहीं है। इसका एक बड़ा उदाहरण शिवेसना रही है, उससे पहले कॉन्ग्रेस पार्टी जिसके टूटने का एक इतिहास रहा है।
यह सब घटनाक्रम सोचने पर विवश कर देते हैं और इस बात की पुष्टि भी कर देते हैं कि यह ‘परिवारवादी मानसिकता’ का ही परिणाम है, जिसे लम्बे समय तक परिवारवादी पार्टियाँ अनदेखा-अनसुना और इसे दबाने का प्रयास करती रही हैं।
अगर उदाहरण देखना हो तो अजीत पवार की योग्यता को नजरअंदाज कर NCP पर शरद पवार की पुत्री सुप्रिया सुले का थोपा जाना। शिवसेना पर उद्वव ठाकरे और उनके पुत्र का थोपा जाना, जबकि बाला साहेब ठाकरे के समय उनके उत्तराधिकारी के रूप में राज ठाकरे देखे जा रहे थे। इसी तरह कॉन्ग्रेस पर गाँधी परिवार को थोपा जाना। सपा पर अखिलेश यादव का थोपा जाना। डीएमके पर स्टालिन का थोपा जाना और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा पर हेमंत सोरेन का थोपा जाना। नेशनल कॉन्फ्रेंस पर उमर अब्दुल्ला और PDP पर महबूबा मुफ्ती का थोपा जाना।
यही हाल बिहार में JDU, RJD और पश्चिम बंगाल में TMC का है। आम आदमी पार्टी ने तो संविधान में संशोधन कर हमेशा के लिए केजरीवाल को संयोजक बना रखा है। देलगु देशम पार्टी के संस्थापक और अपने ससुर NTR को धोखा देकर चंद्रबाबू नायडू ने कैसे पार्टी पर एकछत्र कब्जा कर यह सभी जानते ही हैं। अब अगर थोड़ा प्रयास आप करेंगे तो जानेंगे कि यह लिस्ट बहुत लम्बी है।
हालाँकि, लोकतांत्रिक देश में राजनीति लगातार बदलती रहती है। हर 5 साल बाद जनता परखती है कि उसके लिए कौन सी पार्टी, कौन सा नेता, ज्यादा बेहतर है।
बदलते भारत की बदलती राजनीति का ही नतीजा है कि जनता को बेहतर विकल्प मिला और जनता ने इस परिवारवादी नामक इस परिपाटी को तोड़ना शुरू कर दिया।
इस परिपाटी के टूटने के पीछे कई कारण हो सकते हैं जिनमें एक बड़ा कारण यह है कि साल 2014 के बाद देश ने पहली बार ऐसी पार्टी की सरकार देखी है, जिसके लिए उसका देश और उसके नागरिक सर्वप्रथम हैं।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने पारदर्शिता का महत्व और उसका आभास करवाया है। पूर्व की सरकारों के शासनकाल में भारत का आम जनमानस यही मानता था कि अगर सरकार 1 रुपया भेजेगी तो उस तक 15 पैसा पहुँचेगा। उसे यकीन नहीं दिलवाया गया कि उसके हक का वो 75 पैसा भी उस तक पहुँचाया जा सकता है।
अब यहाँ न केवल भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की बात है, बल्कि चुनाव हो, चुनाव आयोग हो, गवर्नेंस हो या अन्य किसी भी चीज को लेकर भारतीय जनमानस पारदर्शिता का आभास अब कर चुका है। चूँकि पूर्व की सरकारों को इसकी आदत नहीं थी इसलिए उन्हें परेशानी भी हो रही है।
अब सवाल ये है कि भारत की चुनावी राजनीति में जो बदलाव आ रहा है, उस बदलाव के साथ परिवारवादी दल बदलने के लिए तैयार हैं या फिर नहीं?
इसके आसार, बेहद कम नजर आते हैं। इसलिए क्योंकि जिन पार्टियों के भीतर लोकतंत्र ही नहीं है, जहाँ एक परिवार और व्यक्ति सर्वेसर्वा है, वो दल लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को आत्मसात कैसे कर पाएगा?
फिर एक सवाल यह है कि अगर ये परिवारवादी दल लोकतांत्रिक बदलावों के लिए तैयार नहीं होते हैं तो फिर इसका नुकसान क्या होगा? इसका सबसे बड़ा उदाहरण कॉन्ग्रेस पार्टी है।
भारतीय राजनीति में परिवारवाद की नींव डालने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी इस दलदल में धंसती गई। इसका परिणाम यह हुआ कि कॉन्ग्रेस पार्टी कई बार टूटी और जिससे कई नई पार्टियाँ अस्तित्व में आई।
इनमें से कुछ पार्टियाँ काल के गाल समाई तो कुछ का अस्तित्व अभी भी बरकरार है। लेकिन मानसिकता वही है, परिवारवादी। मसलन, TMC, NCP, YSR Congress, छतीसगढ़ जनता कॉन्ग्रेस। इसके अलावा पार्टी के भीतर के धड़ों की बात करें तो जेबी कृपलानी, एनजी रंगा से लेकर G23 के नेताओं तक एक लम्बी फहरिस्त है।
यहाँ, हमनें कॉन्ग्रेस पर जोर इसलिए दिया क्योंकि परिवारवादी राजनीति की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी मरीज कॉन्ग्रेस पार्टी है। मोतीलाल नेहरू से शुरू करें तो उन्होंने गाँधी जी को सिफारिशी पत्र लिखकर कह दिया था कि सरदार वल्लभ भाई पटेल भले ही योग्य हैं लेकिन मेरे पुत्र जवाहर लाल नेहरू को कॉन्ग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए।
इन्दिरा गाँधी ने तो देश के लोकतंत्र का गला बाद में घोंटा पहले पार्टी के लोकतंत्र पर हमला किया। पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक रूप से चुनाव होने बन्द हो गए और इन्दिरा गाँधी खुद तय करती थीं कि कौन, किस पद पर बैठेगा। सोनिया गाँधी 19 बरस तक अध्यक्ष पद पर रहीं। राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी वाड्रा की पार्टी में हैसियत हम सभी जानते ही हैं।
यह उदाहरण दोहराना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि यह इस बात की तस्दीक करता है कि आपने, अपनी पार्टी के भीतर कभी भी लोकतंत्र को पनपने ही नहीं दिया। इसीलिए आज जो परिवारवादी राजनीति को नकारने का बदलाव आम जनमानस के भीतर देखने को मिल रहा है, उस बदलाव में ढ़लने के लिए आप तैयार ही नहीं हैं। दूसरे और स्पष्ट शब्दों में कहें तो लगातार बदलते लोकतंत्र का हिस्सा बनने की आपकी हैसियत ही नहीं रही है क्योंकि यह आपके DNA से मेल ही नहीं करता है।
ऐसे में उस पार्टी के नेता जिसने ‘परिवारवादी प्राइवेट लिमिटेड’ इन दलों की नींव हिला दी हो, जिसने देश के आम जनमानस की नब्ज पकड़कर लाल किले से परिवारवादी दलों के विरूद्ध हुंकार भरी हो, उस पार्टी, उसके नेता, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लड़ पाना आपके लिए सम्भव ही नहीं है।
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