दुर्गा पूजा या नवरात्र का त्योहार हाल ही में बीता है। इस दौरान हो सकता है किसी शाम आरती के शब्द भी आपके कान में पड़ गए हों। अगर ऐसा कभी हुआ था तो क्या आपने ‘आगम-निगम बखानी, तुम शिव पटरानी’ वाला वाक्य भी सुना था? ये ‘आगम-निगम’ क्या होता है, ये भी सोचा क्या? किसी से पूछा कि उनका मतलब क्या होता है? नहीं! अरे रे रे! अब अगर अपने ही धर्म के बारे में आपने खुद ही जानने या किसी से पूछने की कोशिश नहीं की, तो फिर तो जाहिर है कि जो भी लोग आपके धर्म के बारे में कहेंगे, वही सुनकर आपको मानना पड़ेगा। सिर्फ आपको ही क्यों? आपकी आने वाली पीढ़ियों को भी अगर परम्पराओं के नाम पर हिन्दूफोबिक गिरोह बेइज्जत करें तो उनके पास भी जवाब नहीं होगा!
हर त्यौहार में ऐसा ही होता है। अब नई पीढ़ी के हिन्दू शुगर फ्री जनरेशन वालों की तरह चुपचाप सर झुकाकर जूते नहीं खाते, मिल्लेनियल पलटकर जवाब देने लगे हैं। इसलिए पिछले वर्ष से ही नाक से लगे सिन्दूर पर सवाल उठाने वालों को उतने ही भद्दे जवाब देकर भगा दिया गया। मगर मेरे विचार से इस नयी पीढ़ी को सही उत्तर भी मालूम होने चाहिए। इसलिए हम वापस अपने ‘आगम-निगम’ वाले सवाल पर चलते हैं।
ये जो शब्द युग्म अक्सर भजनों में सुनाई देता है, इनका अंग्रेजी अनुवाद संभव नहीं क्योंकि इनके लिए हिंदी में भी तत्सम शब्द ही प्रयुक्त होते हैं। इनके लिए तद्भव शब्द नहीं बने। निगम का मोटे तौर पर अर्थ वेदों से होता है। वेदों के भाग को भारतीय धार्मिक सिद्धांतों में ज्ञान की परंपरा से लिया जाता था और यही निगम है।

निगम में ज्ञान, कर्म और उपासना का स्वरुप भर बताया जाता है। आगम में बताया जाता है कि किन उपायों से इनकी प्राप्ति होती है। मिथिलांचल के विख्यात विद्वान वाचस्पति मिश्र, षड्दर्शनों में से न्याय के लिए भी जाने जाते हैं, उन्होंने अद्वैत वेदांत पर ‘भामती’ की रचना भी की थी।
उनके रचित ग्रंथों में से एक योगभाष्य पर की गई टीका ‘तत्ववैशारदी’ है। उनके अनुसार भी आगम का मुख्य उद्देश्य क्रिया है, ज्ञान वाला भाग अपेक्षाकृत कम होता है। आगम परंपरा के ग्रंथों में अधिकांश में वक्ता भगवान शिव होते हैं, जाहिर है वो पार्वती को बता रहे होंगे।
अब जिस भजन के वाक्य की याद दिलाई थी, उसमें ‘तुम शिव पटरानी’ क्यों कहा जा रहा है, इस पर ध्यान चला गया होगा। कलियुग में आगम को अधिक सहज माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कलियुग में प्राणी पवित्र-अपवित्र का विचार नहीं समझते।
महानिर्वाण तंत्र इस पवित्र और अपवित्र के विचार के लिए ‘मेध्य-अमेध्य’ शब्दों का प्रयोग करता है (वहाँ भी वक्ता शिव जी है और वो पार्वती को सुना रहे होते हैं)। इतने के बाद संभवतः समझ में आ गया होगा कि आगम का अर्थ वो है, जिसे आप आमतौर पर ‘तंत्र’ के नाम से जानते हैं।
इस तंत्र में भी अधिकांश शाक्त तंत्र का नाम सुनाई दिया होगा, या फिल्मों वगैरह में भी जो दृश्य दिखे होंगे उनमें खलनायक के चरित्र वाला तांत्रिक देवी की उपासना करते ही दिखा होगा? तंत्र या आगम के जो तीन ज्यादा प्रचलित हिस्से हैं वो वैष्णव आगम, शैव आगम और शाक्त आगम के नाम से जाने जाते हैं।
वैष्णव आगम का नाम सुनकर जिन मासूमों को सदमा लग गया हो, उन्हें बताते चलें कि वैष्णव आगम का प्रमुख ग्रन्थ ‘पंचरात्र’ के नाम से जाना जाता है। इसकी रचना रामानुजाचार्य ने की थी। रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत वेदांत के प्रवर्तक थे और उनके दुसरे ग्रन्थ भले ही आपने देखे-सुने ना हों लेकिन उनका भगवद्गीता पर लिखा भाष्य आसानी से उपलब्ध है।
शैव और शाक्त आगमों पर तो शायद चौंके नहीं ही होंगे, क्योंकि पंच-मकार इत्यादि का नाम भी कई लोगों ने सुन रखा होता है। जो कम सुने जाने वाले आगम हैं वो तीन हैं गाणपत्य, सौर और स्कन्द आगम। कौन सा आगम भारत के कौन से हिस्से में प्रचलित है, ये भी आसानी से नजर आ जाता है।
कश्मीर, गुजरात और दक्षिण के कुछ क्षेत्रों में शैव, उत्तर-पूर्वी भारत में, केरल और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों और कश्मीर में भी शाक्त आगम प्रचलित है। केन्द्रीय भारत के अलग-अलग हिस्सों में सौर आगम, पश्चिमी क्षेत्रों में गाणपत्य आगम, और स्कन्द आगम मुख्यतः दक्षिणी भारत में प्रचलित है। आगम के चार मुख्य हिस्से ज्ञान, योग, क्रिया और चर्या होते हैं। तो अब हम चलते हैं अपने आगम के बखान के मुख्य कारण यानी सौर आगम पर।
कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को सौर आगम के प्रमुख पर्व की शुरुआत होती है। आमतौर पर इसे आप छठ के नाम से जानते होंगे। जिन्हें लगता हो कि सूर्य का तंत्र की विधा में क्या काम, वो सूर्य नमस्कार किसी योग गुरु से सीखकर देखें। सूर्य नमस्कार को अक्सर अरुण प्रसन्नम के पाठ के साथ करना सिखाया जाता है।
ये वैदिक मन्त्र है और आसानी से इन्टरनेट पर ढूँढने से मिल जायेगा। सौर तंत्र के ग्रन्थ होते हैं या नहीं, ये सोच रहे हों तो बताते चलें कि वाराणसी के सम्पूर्णानन्द संस्कृत महाविद्यालय से वो भी प्रकाशित होता है। कुछ मासूम जो समझते हैं कि किसी भी पूजा के लिए पंडित जी की जरुरत होगी, उन्हें अब शायद समझ में आ गया होगा कि छठ में पुरोहित की आवश्यकता क्यों नहीं होती।
महानिर्वाण तंत्र से मेध्य-अमेध्य यानी पवित्र और अपवित्र की समझ की कमी का कलियुग में होने का जिक्र भी किया था। अब ये समझ में भी आ गया होगा कि छठ में साफ़-स्वच्छ नहीं बल्कि पवित्र पर जोर क्यों दिया जाता है। यहाँ भौतिक शुद्धता नहीं देखी जाएगी, आपके मन के विचार यानी मानसिक भावों से पवित्रता प्रभावित होगी।
उचित मूल्य देकर क्रय किया है या लूटकर पूजा सामग्री लाए हैं? सुबह होने से पहले ही फूल चुरा कर भागे हैं, या किसी और का स्वच्छ किया हुआ घाट पहले जाकर हड़प लिया है? कोई छठ के नाम पर माँगने आया हो, या कोई पड़ोसी कमजोर आर्थिक स्थिति का था तो उसके घर प्रसाद भेजना भूले तो नहीं? किसी के भेजे, दिए हुए प्रसाद को खाते समय ज़ात या औकात सोचने तो नहीं बैठे थे? हरेक पवित्रता पर असर डालेगा, ध्यान रहे, हरेक!
आगम में चर्या और क्रिया की महत्ता अधिक होती है इसलिए स्त्रियों की भागीदारी भी इस त्योहार में बढ़ जाएगी। भोजन पकाने में, उपवास में या प्रबंध में पुरुष कम काम करें, ऐसा नहीं हो सकता। जैसे दुर्गा पूजा के ‘सिन्दूर खेला’ में महिलाओं की भागीदारी होती है पुरुष नेपथ्य में धकेल दिए जाते हैं, वैसे ही यहाँ भी नाक से लगे सिन्दूर के साथ महिलाएँ दिखेंगी, बुद्धू सी मुस्कान के साथ पुरुष बेचारे पीछे कहीं टोकरी उठाए खड़े होंगे। बाकि जब तक हम कहीं जाकर हड्डियाँ ना मिलने के कारण नालीवादी सारमेयों का कलपना सुनते हैं, तब तक सौर आगम के पर्व छठ में व्रती बंधुओं को हार्दिक शुभकामनाएँ!