द्वित्तीय विश्वयुद्ध जब समाप्त हुआ, यानि 1945 समाप्त होने तक, विश्व के बाजारों में डॉलर का सूर्योदय भी हो चुका था। विश्वयुद्ध के बाद जो कई व्यवस्थाएं बदलीं, उनमें से एक घटना ये भी थी कि वैश्विक अर्थतंत्र पर डॉलर काबिज हो गया। युद्ध में उसी पक्ष की विजय, जिस पक्ष के एक बड़े देश की मुद्रा डॉलर होती थी, डॉलर के विश्व बाजार पर काबिज होने का एकमात्र कारण नहीं था। अमेरिका में स्थायी लोकतान्त्रिक सरकार, सैन्य शक्ति, बड़े व्यापारिक घरानों का वहाँ केन्द्रित होना, और फिर मीडिया पर, प्रचार तंत्र पर उनकी पकड़, सबने इसमें अपना योगदान दिया। इसका नतीजा आज हमें ये देखने को मिलता है कि विश्व भर के देशों का विदेशी मुद्रा भंडार का करीब साठ प्रतिशत डॉलर में है। अमेरिकी डॉलर की कीमतों की स्थिरता लम्बे समय तक कायम रही और इसके कारण आज वैश्विक बाजारों में सोने या तेल की कीमतें भी डॉलर में आंकी जाती है।
मुद्रा पर पकड़ भी सत्ता का ही एक रूप है इसलिए एक देश के रूप में इस सत्ता को कायम रखने के प्रयास अमेरिकी सरकार की ओर से भी हुए। कुटनीतिक युद्धों की शृंखला में एक युद्ध डॉलर और यूरो के मध्य हुआ भी माना जाना चाहिए। ये और बात है कि इस तरह के कुटनीतिक युद्ध में बमों के धमाके सुनाई नहीं देते, हत योद्धाओं की ख़बरें नहीं आती, इसलिए आम आदमी को उसके बारे में कम ही सुनाई देता है। वैसे खाड़ी युद्ध (1991) के बारे में ऐसा माना जाता है कि अमेरिका इराक के तेल पर कब्ज़ा जमाना चाहता था, लेकिन उसकी एक बड़ी वजह उसी दौर में यूरो का उदय भी था। माना जाता है कि सद्दाम हुसैन ने अपना विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर से यूरो में बदलना शुरू कर दिया था। यूरो की कीमतें बढ़ती हुई स्थायित्व की ओर जाने लगी थी। डॉलर की मजबूती बनाये रखने के लिए खाड़ी युद्ध आवश्यक हो गया था।
वैश्विक राजनीति 1990 के दशक पर ठहरी नहीं। शताब्दी के बदलने के साथ ही चीन ने एक वैश्विक शक्ति के तौर पर अपनी पहचान बनाना तेज किया और दूसरी ओर विखंडन के बाद रूस अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और पुराने गौरव को पाने के लिए कसमसाने लगा। थोड़े समय तक विश्व की एकमात्र महाशक्ति रहे अमेरिका को अब चुनौती मिलने लगी। चीन और रूस का आपसी व्यापार अब डॉलर पर निर्भर नहीं है। हाल के युक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद जब रूस से तेल खरीदने पर कई देशों ने प्रतिबन्ध लगाया तो स्थिति और बदली। अब भारत रूस से कच्चा तेल खरीद रहा है और परिष्कृत तेल कई देशों को बेच रहा है। रूस का तेल अप्रत्यक्ष रूप से खरीद रहे ये वही देश हैं जो सीधे-सीधे रूस से तेल नहीं खरीद रहे। इस बदले हुए व्यापारिक स्वरुप का भी असर मुद्रा के संबंधो पर पड़ा। न केवल भारतीय मुद्रा को इससे पहचान और मजबूती मिलनी शुरू हुई, बल्कि ऑनलाइन लेन-देन के लिए जो पहले “वीसा” और “मास्टर कार्ड” जैसी प्रणालियाँ काम करती थीं, उनके बीच भारत के “रुपे” को जगह मिल गयी। भारतीय “रुपे” का रुसी “मीर” से जुड़ना डॉलर की स्थिति में और बदलाव तो ले ही आया।
आर्थिक जगत में ऐसे बदलावों की संभावना 2006 में ही बननी शुरू हो गयी थी, जब “ब्रिक्स” (बीआरआईसीएस) समूह की स्थापना हुई। इसके सदस्य देशों ने साझा हितों की चर्चा के लिए सालाना बैठकों की शुरुआत की। ये सदस्य देश थे – ब्राजील, रूस, भारत, चीन, और दक्षिण अफ्रीका। आपस में आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए इन देशों कई ऐसे फैसले भी लिए तो मौजूदा वैश्विक व्यवस्था को चुनौती देते दिखते हैं। उदाहरण के तौर पर आर्थिक जगत पर विश्व बैंक का दबदबा होता था। इन देशों ने मिलकर सदस्य देशों को मूलभूत संरचनाओं और विकास कार्यों में मदद देने के लिए “न्यू डेवलपमेंट बैंक” (एनडीबी) की स्थापना कर डाली। आर्थिक मोर्चों पर अधिक सहयोग के “ब्रिक्स” देशों के प्रयास सिर्फ डॉलर पर निर्भरता कम करने तक ही सिमित नहीं रहे, इनके पास आपसी व्यापार के लिए नए “ट्रेड फ्री जोन” भी हैं।
“ब्रिक्स” के ये पांचो सदस्य देश आकार और आबादी में एक दूसरे से अलग हैं, भौगोलिक रूप से एक दूसरे के पास या एक सी स्थितियों में भी नहीं। इनका इतिहास और राजनैतिक व्यवस्था, साथ ही संस्कृति भी भिन्न-भिन्न है। विशुद्ध रूप से आर्थिक मोर्चों पर हुए समझौतों के कारण ही ये देश एक दूसरे के पास-पास हैं। पिछले कुछ वर्षो में हुई बैठकों में “ब्रिक्स” के सम्मेलनों में एक साझा मुद्रा, कुछ यूरो जैसी, की बातें भी होने लगी है। अगर ऐसा हुआ तो ये डॉलर को और कमजोर कर देगा। सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं वाले पांच देश – ब्राजील, रूस, भारत, चीन, और दक्षिण अफ्रीका, अगर डॉलर से दूरी बनाने लगते हैं, तो डॉलर पर इसका क्या असर होगा, ये सोचा जा सकता है। घनघोर भारत विरोधी माने और बताये जाने वाले एरिक गारसेट्टी को भारत में राजदूत बनाकर भेजे जाने के पीछे की एक बड़ी वजह ये सभी आर्थिक बदलाव और भारत की बदली हुई स्थिति भी है।
इन देशों के पास एक बड़ी आबादी है, युवाओं की बढ़ती हुई संख्या है, जबकि कई पश्चिमी देश बूढ़ी होती हुई और लगभग रुकी हुई आबादी के संकट से जूझ रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों की भी बात की जाए तो हाल में भारत में तो लिथियम का भंडार मिला ही, बाकि के ब्रिक्स देशों में भी प्रचुर मात्रा में ऐसे संसाधन उपलब्ध हैं। विश्व की आबादी का कारीब 42 प्रतिशत ब्रिक्स देशों में है। क्षेत्रफल के हिसाब से ये विश्व का करीब 27 प्रतिशत और खरीदने की क्षमता (परचेजिंग पॉवर पैरिटी) के हिसाब से देखें तो ये विश्व के जीडीपी में 23 प्रतिशत का योगदान दे रहे हैं। ऐसे में अगर कहा जाए कि हम डॉलर का सूर्यास्त और एक नए वैश्विक समीकरण के उदय के काल में हैं, तो कोई गलत बात नहीं होगी!
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