भारत में और विश्वभर में तमाम सनातनी आज दिवाली की तैयारियों में लगे हुए हैं। दिवाली जिसे हमने प्रकाशपर्व का नाम दिया, दिवाली सुख-समृद्धि, अच्छाई और जीवन में फैले तमस को विसर्जित कर इसे प्रकाशित करने का पर्व है। एक और भी इसका महत्व है कि आज ही के दिन भगवान राम अपने वनवास को पूरा कर अयोध्या लौटे थे। ये तो थी आस्था की बात, विश्वास की बात, अब हम देखते हैं कि पश्चिमी देश आज के दिन क्या कर रहे हैं।
पश्चिमी देश आज हैलोवीन मना रहे हैं, ये लोग हर साल 31 अक्टूबर के दिन इसे मनाते हैं । जिसमें आपने देखा होगा कि लोग डरावने भूतों की तरह बन कर रात में सड़कों पर निकलते हैं, और अब तो भारत के भी छोटे बड़े शहरों में लोग इसकी नक़ल करने लगे हैं। यानी जिस दिन हम आस्था का पर्व मना रहे हैं, उस दिन अपने आप को सुपर पावर कहने वाला अमेरिका अंधविश्वास का जश्न मना रहा है। इस जश्न को उन्होंने नाम दिया हैलोवीन! अमेरिका में ये त्योहार आयरिश और स्कॉटिश मूल के लोगों द्वारा लाया गया था, लेकिन, धीरे-धीरे ये एक सामूहिक फेस्टिवल में तब्दील हो गया।
जिस दिन हम आस्था का पर्व मना रहे हैं, उस दिन ख़ुद को सुपरपावर कहने वाला अमेरिका अंधविश्वास का जश्न मना रहा है। इस जश्न को उन्होंने नाम दिया हैलोवीन! अमेरिका में ये त्योहार आयरिश और स्कॉटिश मूल के लोगों द्वारा लाया गया था, लेकिन, धीरे-धीरे ये एक सामूहिक फेस्टिवल में तब्दील हो गया। इसी तरह से आशीष नौटियाल इस वीडियो में बता रहे हैं कि दीपावली के उर्दू नामकरण करने वालों और हिंदू त्योहारों में पर्यावरण की बात करने वालों का असली मक़सद क्या है।
अब पश्चिमी देशों ने या अमेरिका कह लीजिए, इन्होंने यूरोप के देशों के इस त्योहार को कैसे अपनाया, बाज़ारीकरण किया और इसके मूल स्वरूप को ख़त्म कर दुनिया को बताया कि ये अमेरिका का त्योहार है।
हैलोवीन की बात करें तो ये एक प्राचीन सेल्टिक त्यौहार समहिन से शुरू हुआ। 2,000 साल पहले सेल्ट्स वहाँ रहते थे जहां पर आज आयरलैंड, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस है और ये सभी 1 नवंबर को अपना नया साल मनाते थे। इनका मानना था कि इस दिन गर्मी भी समाप्त हो जाती है, फसलों के काम को भी निपट चुका होता है और यहाँ से अँधेरी, ठंडी सर्दियों की शुरुआत होती थी।
अब अमेरिका में जब अंग्रेज पहुँचे तो वहाँ के नेटिव अमेरिकन्स का वजूद तो उन्होंने ख़त्म कर दिया था। अमेरिका के साम्राज्यवादियों की अपनी मूल कोई परंपरा थी नहीं, तो जैसे-जैसे विभिन्न यूरोपीय जातीय समूहों और अमेरिकी जनजातियों की मान्यताएँ और रीति-रिवाज़ आपस में मिलते गए, हैलोवीन का एक अलग अमेरिकी संस्करण बनाया जाने लगा और पुरानी परंपराएँ ख़त्म होती गईं। अब ये हैलोवीन नहीं बल्कि कोलोनियल यानी औपनिवेशिक हेलोवीन होता चला गया, जिसमें भूत-प्रेत की शक्ल बनाना, उनकी डरावनी कहानियाँ सुनाना और तरह-तरह की शरारतें करना शामिल किया गया था।
यानी जहां ये त्योहार यूरोप के जनजातीय किसान अपनी फसलों के उत्सव के लिए मनाया करते थे, अमेरिका में पहुँचकर इसका बाज़ारीकरण कर दिया गया और आज शायद ही किसी को ये मालूम हो कि इसका किसानों से कोई वास्ता भी है । अब अमेरिकी लोग इस दिन उट-पटांग क़िस्म के कपड़े पहनते हैं। घर-घर जाकर खाना माँगते हैं या पैसे मांगते हैं , आख़िरकार ये अब “ट्रिक-ऑर-ट्रीट” परंपरा बन गई है। एक समय था जब अमेरिका में हैलोवीन का त्योहार इतना हिंसक हो गया था कि इसे बैन करने के लिए भी कई माँगें उठने लगीं, क्योंकि डराने और अपनी पहचान बदलने के नाम पर घरों में जाकर कई क़िस्म के अपराध किए जाने लगे, लूट, हत्या, बलात्कार आदि घटनाएँ होने लगी थीं।
वास्तव में हैलोवीन का जो कॉन्सेप्ट है वो मूल त्योहार लुग्नसध या लूना से निकला है, जो कि यूरोप महाद्वीप का एक पारंपरिक गेलिक त्यौहार हुआ करता था। लूना त्योहार फसल के मौसम की शुरुआत का प्रतीक था, जिसे ये जनजातियाँ 1 अगस्त को मनाया करती हैं। इस त्यौहार को पारंपरिक रूप से आयरलैंड, स्कॉटलैंड और इंग्लैंड के तटीय इलाक़ों में मनाया जाता था ।
लूना या लुग्नसध गेलिक संस्कृति के चार मुख्य त्यौहारों में से एक है – इसी में सामहेन, इम्बोल्क और बेलटेन भी आते हैं। इनके पीछे एकमात्र वजह फसल और किसान हुआ करते थे और इनका उद्देश्य आयरलैंड के सूर्य देवता लू की पूजा होता था। यहाँ रहने वाली जनजातियाँ सूर्य को बहादुरी, युद्ध-कला और कृषि का देवता मानते हैं। इन प्राचीन कहानियों से पता चलता है कि ये त्योहार लू ने अपने मां, टेल्टियू की याद में शुरू किया था , जिसे कि आयरलैंड की देवी कहा जाता है, इनकी मान्यताओं में टेल्टियू ने आयरलैंड की उपजाऊ भूमि को तैयार करने के लिए कठोर मेहनत की जिस कारण ये त्योहार उनकी स्मृति में ये जनजातियाँ मनाती थीं। अब सवाल है कि इस त्योहार में असल में होता क्या? लूना या लुग्नसध, जिसे कि अमेरिका ने चुराकर इसे हैलोवीन नाम दे दिया, इसमें लोग अपनी फसल की पहली उपज, जैसे कि अनाज, जौ और सब्जियों का उत्सव मनाते हैं। इस दिन अनाज से बनी रोटियां तैयार की जाती हैं और इनका प्रसाद चढ़ाया जाता है। और ये सिर्फ़ और सिर्फ़ फसल का पहला त्योहार हुआ करता था। किसान प्रार्थना करते थे कि आने वाले समय में उनकी खेती और उपज के साथ साथ समृद्धि भी बढ़ेगी, जैसा कि भारत में हम दिवाली के दिन प्रार्थना करते हैं – धन-धान्य और समृद्धि की प्रार्थना।
लूना में “फर्स्ट-फ्रूट्स” यानी पहली फसल को ईश्वर के प्रति आभार स्वरूप अर्पित करते हैं। यह इस बात का प्रतीक होता है कि प्रकृति ने उनकी मेहनत को स्वीकार किया है और उन्हें अनाज दिया है। यानी प्रकृति देवी की उपासना। इसी का उदाहरण वो कद्दू होते हैं, जिन्हें आप आज डरावने कलाकारी के रूप में देखकर मानते हैं कि यही हैलोवीन का प्रतीक चिह्न है। जबकि ऐसा नहीं है। ये यूरोप की जनजातियाँ इन कद्दुओं को अपने घरों के बाहर लूना त्योहार के दिन सजाने के लिए रखा करते थे।
तो इस पूरी कहानी और हैलोवीन के त्योहार को आपके समक्ष रखने का उद्देश्य ये है ताकि आप समझें जैसे अमेरिका हर मौलिक पहचान को ख़त्म करने के प्रयास करता है ताकि एक नयी परंपरा शुरू हो सके और उसका क्रेडिट अमेरिका को समर्पित रहे। अमेरिका ने इसी एक काम को बहुत पुराने समय से किया है जैसे पुरानी सभ्यता और पारंपरिक त्योहार को निशाना बनाना – यही कारण है कि आपने ट्रेंड देखे होंगे जिसमें हमारे प्रकाशपर्व दिवाली को प्रदूषण से जोड़ दिया जाने लगा है, यानी लोग इसे हमारी पारंपरिक मान्यताओं के रूप में देखने और इसका उत्सव मनाने के बजाय हीनभावना में रहें और दिवाली को सिर्फ़ और सिर्फ़ पोल्यूशन से जोड़कर देखें। ऐसा ही अमेरिका ने हैलोवीन के असली महत्व को ख़त्म कर के किया और उसे अमेरिकी परिभाषा दी। इनका असली मक़सद प्राचीन सभ्यता को निशाना बनाकर उसे ध्वस्त करना है, इसी कारण दिवाली को भगवान राम के पर्व के बजाय ईद-ए-चिरागाँ जैसे नाम दिये जाते हैं, इन्हें क्रिसमस पर पटाखे याद नहीं आते, बक़रीद में पशुप्रेम नहीं याद आता लेकिन इन्हें दिवाली के दिन इन्हें पर्यावरण से लेकर पशुप्रेम, सभी कुछ याद आता है।