“भाभी, प्रणाम।”
आवाज सुनकर चिंहुँक उठी विषादग्रस्त नारी ने देवर को देख अपने वस्त्र ठीक किए और स्वागत करते हुए बोली, “आओ, आओ सौमित्र, विराजो।”
शत्रुओं के काल उस महाबली पुरुष ने आसन ग्रहण किया और हाथ जोड़कर बोला, “भाभी, कृपया मुझे सौमित्र नाम से सम्बोधित न किया करें। यह तो मेरे अग्रज पर ही शोभता है। अपितु माता के नाम पर मुझे सौमित्र कहा जा सकता है, पर वे हमारी माता सुमित्रा के ज्येष्ठ पुत्र तो हैं ही, पर सौमित्र नाम के वास्तविक अर्थ को, अर्थात सच्चे मित्र की विशद भावना को तो वे ही ग्रहण करते हैं।” वाक्य समाप्त होते-होते जाने क्यों उनकी आँखें भर आईं थी।
वीर पुरुष की वाणी में आर्द्रता का अनुभव कर मांडवी बोलीं, “अरे रे, प्रिय शत्रुघ्न, क्या हुआ? तुम्हारे नेत्रों में यह सरयू का जल क्यों दिख रहा है? क्या कोई कष्ट है भाई?”
“कष्ट? नहीं भाभी, कोई कष्ट नहीं। पर मुझे लगता है कि मेरे साथ विधाता ने अन्याय किया है।”
“अन्याय? कैसा अन्याय? इक्ष्वाकु के वंश में जन्में रघुनन्दन के मुख से यह कैसी बात?”
“अन्याय ही तो है भाभी। इक्ष्वाकुवंशज हूँ, रघुनन्दन हूँ, दशरथपुत्र हूँ, पर सबसे अनुज हूँ। मात्र अग्रज होने के कारण मेरे प्रभु को वनवास मिला। मेरी माता सुमित्रा की तरह पवित्र भाभी सीता भी उनके साथ गई। भैया लक्ष्मण कितने भाग्यशाली थे कि मेरे राम उनके हठ के सम्मुख झुक गए और उन्हें अपने साथ ले गए। इधर भैया भरत ने भी नगर में ही वनवास ले लिया। मेरे तीनों भाई वनवासी हुए, और जिस राज्य के कारण यह सब अनहोनियाँ हुई उसका भार मुझपर आ पड़ा! ये महल, ये स्वर्ण, ये देवासुर संग्राम विजयी सेना, यह सत्ता, यह वैभव मुझ अधम को मिले और मेरे तीनों अग्रज पिछले चौदह वर्षों से तपस्या कर रहे हैं। यह माया मुझे मिली और भरत-लक्ष्मण को राम मिले।”
मांडवी आश्चर्य से शत्रुघ्न का मुख देखती रह गई। उन्होंने कभी अपने इस देवर की व्यथा को समझा ही नहीं था। विचित्र परिवार है यह। राज्य किसी को चाहिए ही नहीं। दो वन गए, एक ने राजपाट तो संभाला पर साधु बनकर। जिसने सच्चे क्षत्रिय की भांति, सच्चे नरेश की भांति अयोध्या का ध्यान रखा, उसके मन में राज्य के प्रति मोह की कौन कहे, उसे तो वितृष्णा है।
अपने विचारों से बाहर आकर मांडवी ने पूछा, “पर अब तो यह अवधि समाप्त हुई। श्रीराम शीघ्र ही पधारने वाले हैं। अब तो तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए।”
“अवश्य हूँ भाभी। भैया भरत और अयोध्यावासियों का विश्वास देखकर मुझे अतीव प्रसन्नता होती है। परन्तु क्या आपको नहीं पता कि अनुजों का कर्तव्य अपने अग्रजों की बातों का अक्षरशः पालन करना होता है? मुझे महाराज भरत की आज्ञा है कि एक विशाल चिता का निर्माण कराया जाए। अभी उसी चिता की लकड़ियों को रखकर आ रहा हूँ।” उन्हें अपनी वाणी को संयत रखने में अत्यंत कठिनाई हो रही थी। “महाराज की आज्ञा है कि यदि भैया राम कल संध्या तक न आए तो वे चितारोहण करेंगे और उन्हें रोकने का प्रयास करने वाला राजद्रोही ही नहीं, अपितु रामद्रोही माना जायेगा। प्रभु राम से इसी वचन की प्राप्ति के उपरांत ही तो भैया भरत प्रभु राम की चरणपादुकाएं लेकर अयोध्या लौटे थे।”
“आप इतना नकारात्मक क्यों सोचते हैं भैया? ऐसा कुछ नहीं होने वाला। रघुनन्दन श्रीराम ने वचन दिया था कि वे तय तिथि तक वापस आ जाएंगे। वे अवश्य ही आएंगे। आप निश्चिंत रहें।”
“विगत चौदह वर्षों से इस राज्य को संभालते-संभालते मेरी बुद्धि अत्यंत प्रायोगिक हो गई है भाभी। वचनों का मूल्य तो होता ही है, और रघु के वंशजों ने सदैव ही अपने वचनों का पालन किया है। परन्तु वचन तो विवाह के अवसर पर श्रीराम ने भी अपनी पत्नी को दिया था कि वे सदैव ही उनकी रक्षा करेंगे। पर वे भी भाभी सीता का अपहरण कहाँ रोक पाए थे?
“भविष्य किसे पता है भाभी? अचानक घटित होने वाली छोटी से छोटी घटना भी, नितांत भिन्न घटनाओं की नई और विशद शृंखला को जन्म दे देती है। भैया-भाभी को चौदह वर्ष वन में बिताने थे और वापस लौट आना था, पर दंडकारण्य में एक स्त्री शूर्पणखा से भेंट ने कैसा भविष्य उत्पन्न किया कि सीताजी का अपहरण हो गया, अजेय बाली का वध हुआ, सुग्रीव को सत्ता मिली, समुद्र का लंघन हुआ, समुद्रसेतु का निर्माण हुआ, स्वर्णनगरी लंका का पतन हुआ, रावणकुल का नाश हुआ, राक्षसों को उनका नया राजा मिला। अब श्रीराम वापस लौट रहे हैं। विधाता के मन में कुछ नया विचार उत्पन्न हो जाए और पुनः कालरेखा में परिवर्तन उत्पन्न हो जाए, तब क्या?
“क्या आप वह सब देख पा रही हैं भाभी, जो मैं देख रहा हूँ? यदि किसी भी कारणवश कल संध्या तक हमारे प्रभु हमारी अयोध्या में न आ पाए, तब क्या होगा? भैया भरत चितारोहण करेंगे, माताएं अपने सज्जन पुत्र को इस प्रकार जाता देख स्वयं को उसके पीछे जाने से रोक नहीं पाएंगी। अयोध्या की प्रजा अपने महाराज को अग्निस्नान करता देखेगी तो उसका शोक देवताओं को भी द्रवित कर देगा। फिर यदि कुछ दिन बाद श्रीराम आ भी गए तो क्या वे अपने भरत के बिना इस नगरी में रह पाएंगे? यह शत्रुओं का हन्ता कहाँ जाने वाला शत्रुघ्न अपने बंधुओं और मित्रों को टूटता हुआ देखने को विवश होगा।
“भाभी, महादेव से प्रार्थना करो कि श्रीराम कल आ ही जाएं, अन्यथा महादेव की सौगंध, भैया भरत को यदि उस चिता पर चढ़ना पड़ा तो मैं महादेव के इस समस्त संसार को क्षार कर दूंगा।”
यह लेख अजीत प्रताप सिंह द्वारा लिखा गया है