जंगल-जंगल बात चली है पता चला है.. चड्डी पहन कर फूल खिला है
ये फूल जो चड्डी पहन कर खिला था इसका नाम क्या था?
सबको याद आ गया न मोगली… मोगली ही था इस फूल का नाम जो भेड़ियों के झुंड के बीच पला बढ़ा था, भालू और बघीरा से बात करता था और चाँद को देखकर भेड़ियों की तरह चिल्लाता था। रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी पुस्तक ‘द जंगल बुक’ में बेहद ही ख़ूबसूरती से जंगल और इंसान के बीच के रिश्तों का चित्रण किया है। इस पर कई फिल्मे और टीवी शो का निर्माण हुआ।
देश में दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाला ‘मोगली’ उस समय बच्चों के जीवन में उनके बचपन से अधिक खूबसूरत चीज थी जो पूरे-पूरे दिन मोहल्ले में दौड़ते हुए गाया करते। गुलजार द्वारा लिखा गया गीत ‘जंगल-जंगल बात चली है पता चला है…चड्डी पहन कर फूल खिला है’।
पर क्या आप जानते हैं कि मोगली की कथा एक सत्यकथा है? कि मोगली सच में जंगलों में घूमा करता था और भेड़ियों के झुंड में रहता था। जी हाँ, ये कहानी दीना सनीचर की है जिसे शिकारियों द्वारा जंगल से पकड़ा गया था जिसके बाद वो एक अनाथालय में रहा लेकिन फिर कभी इंसानी तौर-तरीके नहीं सीख पाया।
बात 19वीं सदी की है जब ब्रिटिश अफसर हेनरी स्लीमैन ने ठगों को खत्म करने के अपने प्रयास और जंगल में प्रवास के दौरान ऐसे बच्चों का जिक्र किया था जिन्हें जंगल से पकड़ कर लाया गया। उस समय भेड़ियों द्वारा बच्चों को पकड़ कर ले जाने की घटनाएं सामान्यतः होती रहती थीं। मध्य प्रदेश के सिओनी में इस तरह की घटनाएं सबसे अधिक प्रचलित थी। ये भेड़िए इंसानी बस्तियों से बच्चों को ले जाते थे कुछ मारे जाते तो कुछ उनके साथ सुरक्षित भी रहते थे। जाहिर है ये घटनाएं ऐसे क्षेत्रों और बस्तियों में मुख्य तौर पर हुई जो जंगल के पास रहते थे और जंगल से उनका कुछ रिश्ता था।
स्लीमैन ने करीब ऐसे 6 बच्चों का जिक्र किया है जो भेड़ियों की मांद में पले-बढ़े थे। उनकी तरह हाथ-पैरों को नीचे टिका कर चलते थे और उन्हीं की तरह ही आवाज निकालते थे। स्लीमैन ने इन्हीं में से एक बच्चे का जिक्र किया जिसे जंगल से पकड़कर लखनऊ के शॉल व्यापारी को दिया गया था। जिससे मिलने भेड़ियों का झुँड आता था। वो बाड़े में घुसते और बच्चे के साथ देर तक खेलते। इसके बाद वो बच्चा भागकर वापस जंगल में चला गया और लौटकर फिर कभी नहीं आया।
ये प्रकृति का अद्भुद मेल था। हालाँकि, वन और मनुष्य के बीच की दूरी इसमें मिट गई थी लेकिन ये भी संस्कृति का ही हिस्सा था कि मानवजाति ने इस दूरी को खत्म कर वनों को भी अपना घर समझा था।
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स्लीमैन ने ऐसे बच्चों का महीन विवरण दिया लेकिन उन पर कोई आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी, सिवाय एक बच्चे के जिसे भेड़ियों के झुंड से अलग कर के जंगलों से लाया गया और जिसका नाम दीना सनिचर रखा गया।
वर्ष 1867 में शिकारियों के एक दल को जंगल में भेड़ियों की मांद में निशाना लगाते हुए इंसानी शरीर दिखाई दिया तो उन्होंने करीब जाकर देखा। वे करीब गए तो पाया कि एक इंसानी बच्चा भेड़िए की आवाज में गुर्रा रहा था। शिकारियों ने करीब 6 वर्ष के इस बालक को पकड़कर आगरा के सिकंदरा अनाथालय में भर्ती करवाया दिया।
बच्चा शनिवार को मिला था इसलिए नाम निकाला गया दीना सनीचर। दीना को कई वर्षों तक इंसानों की तरह जीने का प्रशिक्षण दिया गया पर तमाम कोशिशों के बाद भी वो अपनी कई आदतें नहीं बदल पाया था। वो खाने से पहले भोजन को सूँघता था, कच्चा मांस खाता था। हालाँकि, कालांतर में वह पका भोजन भी करने लगा था लेकिन वो भी बिना सूंघे नहीं। 29 वर्ष की आयु तक तक दीना जिंदा रहा और फिर टीबी के कारण उसकी मृत्यु हो गई। वो पूरी तरह भेड़ियों द्वारा सिखाई आदतें नहीं भूल पाया था।
दीना अकेला नहीं था जिसे जंगलों से पकड़ा गया था। ऐसी दो बहनों का भी जिक्र है जो जंगल में पली बढ़ी थी और कच्चा मांस खाती थी। इनके अलावा भीस्लीमैन ने कई बच्चों का जिक्र किया था। जाहिर है कि जंगलों के करीब बसी जनजातियां हमेशा से ही प्रकृति और जंगली जीवों के करीब रही हैं।
वर्तमान में देश में करीब 10 करोड़ से अधिक आदिवासी निवास करते हैं। आदिवासी अर्थात, प्रकृति के पूजक एवं संरक्षक, जंगल, पेड़-पौधे और पशुओं से अथाह प्रेम करने वाले और सादा जीवनशैली, संस्कृति और भूमि से जुड़ाव रखने वाले। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि देश के 21 प्रतिशत से अधिक हिस्से में फैले जंगल और जंगली जीवों को बचाने में इन आदिवासियों का योगदान है।
दक्षिण भारत में रहने वाली कट्टू नायकन नामक जनजाति आज भी जंगल को मंदिर की तरह मानती है। जंगल में वो नंगे पाँव ही प्रवेश करते हैं और प्रकृति और वहाँ के जीवों से उनका स्नेह किसी मां-बच्चे के प्रेम से बढ़कर दिखाई देता है। देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में बसे अरुणाचल प्रदेश की एक जनजाति मिश्मी है जिसमें शिकार को लेकर कानून बने हुए हैं। ये जनजाति मानती है कि जंगल में उनकी देवी निवास करती है और शिकार करने पर वो श्राप दे सकती है। इसलिए यहाँ शिकार करने पर कठोर दंड भी दिए जाते हैं।
ऐसा ही प्रेम राजस्थान के बिश्नोई समाज में भी दिखाई देता है जो प्रकृति और जंगली जीवों विशेष रूप से काले हिरण के प्रति उनके सम्मान और प्रेम के लिए विख्यात है। बिश्नोई समाज द्वारा गायों से लेकर हिरण तक पाले जाते हैं। यहाँ तक कि समाज की महिलाएं आपको काले हिरण के बच्चों को स्तनपान करवाती भी नजर आ जाएंगी। ये तो मात्र कुछ उदाहरण है। देश में झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, मिजोरम, असम और अन्य कई राज्यों में फैले आदिवासी आज भी भूमि और वन से जुड़े हुए है।
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ये जनजातियां जंगल और जंगली जीवों को पूजती हैं और उन्हें परिवार का हिस्सा मानती है। यहाँ तक कि उन पर मुसीबत आने पर अपनी जान देने को भी तैयार रहती है। इसकी जड़ें हमारें ऋषि-मुनियों ने हजारों वर्षों पहले ही रोप दी थीं। जाहिर है, तत्कालीन समय ऋषि-मुनियों के आश्रम जंगलों में हुआ करते थे जहाँ वो जंगली प्राणियों के साथ ही निवास करते थे। इसमें सबसे प्रसिद्ध और उल्लेखनीय कथा है रामायण में शबरी की जो एक आदिवासी राजा की पुत्री थी। वन और वन्यजीवों के प्रति अपने स्नेह के कारण ही शबरी ने पिता घर त्याग दिया था। उन्हें किसी राजकुमार से विवाह करके महलों में रहने से अधिक वन में जीव-जंतुओं के साथ जिनके साथ वो पली बढ़ी थी जीना आसान लगा था।
पौराणिक ग्रंथों और इतिहास से दीना सनीचर जैसी कथाएं हमें बेशक ही प्रकृति और इंसान के बीच बने संबंधों की नई तस्वीर दिखाती है। वो तस्वीर जो जंगल और आबादी में इतना फर्क अवश्य रखती है जहाँ इंसान भी सुरक्षित हो और जंगली जीव स्वतंत्रता से विचरण करते हों लेकिन समय आने पर एक दूसरे से अधिक दूर भी नहीं।
मोगली की कहानी को आप कितना भी काल्पनिक बता दें लेकिन देश का कोई न कोई समाज अपने प्रकृति प्रेम से आपको झूठा साबित कर ही देगा।
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