कथित स्वतंत्र पत्रकारों की भारतीय लॉबी में ‘हाय तौबा’ मचे तो समझ लीजिए या तो उनकी अवैध गतिविधियाँ रडार पर आ गई हैं या कोई ऐसा करते हुए पकड़ लिया गया है। एक उदाहरण पेश है, भारत के आयकर विभाग ने 7 सितंबर 2022 को सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च थिंक टैंक, IPSMF (इंडिपेंडेंट एंड पब्लिक स्पिरिटेड मीडिया फाउंडेशन), और एनजीओ ऑक्सफैम इंडिया के कार्यालयों पर छापा मारा है।
इन विशेष फर्मों पर FCRA (विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010) के उल्लंघन के आरोप में छापे मारे गए हैं। इन मीडिया घरानों और एनजीओज में दो चीजें कॉमन हैं: ‘डिजीपब’ और उसकी लॉबी से उनका रिश्ता। जिन फर्मों और एनजीओज पर छापा पड़ा है, उनके शीर्ष नेतृत्व में कुछ जाने पहचाने नाम हैं, जिसमें मणिशंकर अय्यर की बेटी समेत लिबरल लॉबी के कई लोग शामिल हैं।
‘डिजीपब’: वामपंथियों का डिजिटल कट्टा
वामपंथ के रहनुमाओं के केंद्र, डिजीपब को लिबरल लॉबी का डिजिटल कट्टा कहा जा सकता है। ऑल्ट न्यूज, न्यूज क्लिक, न्यूज़ मिनट, स्क्रॉल, द प्रिंट, द क्विंट और इसके जैसे कुछ अन्य सदस्यों के साथ ‘डिजीपब’ भारत के डिजिटल मीडिया का प्रतिनिधि होने का दावा करता है। गौरतलब है कि खुद के किचन कैबिनेट से घिरा हुआ ये फाउंडेशन मीडिया की विरासत की रक्षा करने का दावा भी करता है!
एक साल के ₹10,000 चुका कर कोई भी डिजिटल संगठन या फ्री जर्नलिस्ट इस फाउंडेशन की सदस्यता के लिए आवेदन कर सकता है। डिजीपब गूगल के साथ साझेदारी करके सुर्खियाँ भी बटोर चुका है। इसमें हैरान होने वाली कोई बात नहीं क्योंकि अगर संयुक्त राष्ट्र का एक हैंडल एक कथित धोखेबाज पत्रकार के समर्थन में ट्वीट कर सकता है, तो गूगल डिजीपब के साथ दोस्ती क्यों नहीं कर सकता? डिजीपब ने गूगल के डिजिटल मीडिया इकोसिस्टम को टिकाऊ और मजबूत बनाने के विजन वाले Google News Initiative Startups Lab के साथ भागीदारी की है।
डिजीपब क्या करता है ?
हाल ही में 8 सितंबर 2022 को डिजीपब फिर से अपने साथियों का बचाव करते हुए रिंग में उतरा और सुर्खियों में आ गया है। डिजीपब ने एक प्रेस विज्ञप्ति/ट्वीट में आईटी विभाग द्वारा CPR और अन्य की जांच की निंदा की है। इसे फ्री जर्नलिज्म पर हमला और देश की आजादी के लिए खतरा बताते हुए डिजीपब ने सरकार की आलोचना की है। डिजीपब ने यह आरोप भी लगाया है कि सरकार फ्री जर्नलिस्ट्स से डर गई है।
यहां विडंबना यह है कि जिन्हें यह ‘स्वतंत्र पत्रकार’ या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रक्षक कहते हैं, एक गिरोह के अलावा और कुछ नहीं हैं। ये लोग अपने दावे के अनुसार स्वतंत्र रूप से उड़ान नहीं भरते हैं, बल्कि एक कहानी गढ़ते हैं और फिर उसी दिशा की यात्रा करते हैं। ये पैटर्न डिजीपब के संस्थापक सदस्यों या फ्री मेम्बर्स की लिखी हर कहानी या बयान में देखा जा सकता है।
ऑल्ट न्यूज, न्यूज लॉन्ड्री, स्क्रॉल, द क्विंट, द वायर, न्यूज मिनट और इनके जैसे अन्य न्यूज पोर्टल्स का पैटर्न एक जैसा है। ये लॉबी डिजिटल युग के मीडियाकर्मियों या पोर्टलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अनुभवी लॉबिस्ट भी शामिल हैं। कारगिल युद्ध के दौरान कथित तौर पर युद्धक्षेत्र की बातों के खुलासे के लिए प्रसिद्ध बरखा दत्त, स्वर्गीय विनोद दुआ, टीका धारी आकाश बनर्जी, फेय दजसौआ और अब यूट्यूब पत्रकार अभिसार शर्मा जैसे पत्रकार भी इसमें शामिल रहे हैं।
राष्ट्रवाद से चिढ़ है कॉमन
इस लॉबी में सबसे ज्यादा बहस राष्ट्रवाद के मुद्दे पर होती है। दुनिया भर की वामपंथी लॉबी में एक नाम हमेशा कॉमन होता है, और वो है ओपन सोसाइटी के फाउंडर, जॉर्ज सोरोस। तथाकथित समानता, सेकुलरिज्म, लिबरलिजम, फ्री स्पीच और इसी तरह के कुछ जुमलों के नाम पर, ये लोग पहले तो देश को कमजोर करते हैं और फिर वहाँ की राष्ट्रवादी सरकार को गिरा देते हैं।
कोई भी संप्रभु देश विदेशी फंडिंग के प्रति चौकन्ना रहता है और ये जरूरी भी है क्योंकि बेनामी धन का इस्तेमाल देश-विरोधी गतिविधियों में किया जा सकता है। उदहारण के लिए ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ और ‘खालसा एड’ ने किसान आन्दोलन में विदेशी धन का ही इस्तेमाल किया था। ये लॉबी कब सरकार विरोधी से भारत विरोधी बन जाए, कोई नहीं कह सकता।
सरकारी एजेंसियों से डर क्यों?
जब सरकारी एजेंसियां लॉबी के भीतर के किसी आदमी के खिलाफ जांच शुरू करती हैं तो इनका रोना धोना शुरू हो जाता है। ऑक्सफैम, CPR और IPSMF के मामले में भी ऐसा ही हुआ था। अभिव्यक्ति की आजादी की हिमायती होने का दावा करने वाली मीडिया एजेंसियां अब ट्रेंड चला रही हैं और FCRA के उल्लंघन मामले को समाज के लिए खतरा बता रही हैं।
इसे एक संकेत के रूप में भी देखा जा सकता है कि इन मीडिया एजेंसियों को भी विभिन्न विदेशी स्रोतों से धन प्राप्त हो रहा है। भारत में विदेशी हस्तक्षेप के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की ये नीति ही ‘न्यू इंडिया’ का चेहरा है।
भारत में फ्री स्पीच के दोहरे मापदंड
फ्री स्पीच एक मिथक है, क्योंकि इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार पाखंडी और दोगले हैं जिन्होंने भारत में अशांति पैदा करने के लिए नूपुर शर्मा को बिना जांच के दोषी करार दे दिया। यह पहली बार नहीं है बल्कि, सलमान रुश्दी, कन्हैयालाल, और चार्ली हेब्दो के पत्रकार तक बहुत निर्दोष शामिल हैं। फ्री स्पीच एकतरफा नहीं हो सकती, और इसकी पैरोकार वो लॉबी वो बिल्कुल नहीं हो सकती जो ईशनिंदा का समर्थन करती है।