कर्नाटक के बाद कांग्रेस ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में होने वाले आगामी चुनावों के लिए तैयारी शुरू कर दी है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में कांग्रेस सत्तासीन है और फिर से कार्यकाल दोहराने के लिए चुनावी संघर्ष भी शुरू हो चुका है। कर्नाटक की जीत को पार्टी तीनों ही राज्यों में दोहराना चाहती है पर राजनीतिक स्थिति और मुद्दे बदलने से उसके सामने मुश्किलें भी हैं। राजस्थान सरकार के 4 वर्षों के कार्यकाल में पायलट और गहलोत के बीच चला विवाद चुनावों पर असर जरूर डाल सकता है।
जनमानस की मनोस्थिति और मुद्दों को देखते हुए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के लिए चुनावी तैयारी मुश्किल नजर आ रही है। हालांकि गहलोत द्वारा चुनाव पहले बड़े स्तर पर रेवड़ी बाँट की घोषणा की गई है पर यह भी चुनौती से उभरी निराशा का ही परिणाम लग रहा है। कार्यकाल खत्म होने के कुछ महीनों पूर्व मुफ्त सेवाएं बांटना दर्शाता है कि पिछले 4 वर्षों तक जरूरतमंदों की सरकार को फ्रिक नहीं थी।
खैर, फ्रीबीज का चुनावों में असर उतना ही है जितना कर्नाटक में देखने को मिला था। अर्थात, न के बराबर। अशोक गहलोत को चुनाव जीतने के लिए रेवड़ियों से कुछ अधिक चाहिए। अब हाल ही में आया सी-वोटर सर्वे भी कांग्रेस का पलड़ा कमजोर दर्शा रहा है। हालांकि मुख्यमंत्री की पसंद के तौर पर गहलोत आगे हैं पर इसे अधिक तूल इसलिए नहीं देना चाहिए क्योंकि ऐसे सर्वे में पदासीन मुख्यमंत्री को अक्सर अधिक वोट मिलते हैं और बीजेपी ने अभी मुख्यमंत्री के चेहरे के लिए औपचारिक घोषणा नहीं की है। अगर चेहरे की ही बात है तो चुनाव जीतने पर जनता एक बार फिर पायलट-गहलोत संग्राम के लिए तैयार है या नहीं यह भी देखने वाली बात है।
सी-वोटर सर्वे में बीजेपी राजस्थान में 109-119 सीटों के बीच वापसी कर रही है, जबकि कांग्रेस 78-88 सीटों पर सिमटी दिखाई देती है। जहां भाजपा को 45.8 प्रतिशत (प्लस 7 प्रतिशत) वोट शेयर मिलने की उम्मीद है, वहीं कांग्रेस पार्टी को भी ‘अन्य’ की कीमत पर 41 प्रतिशत (प्लस 1.7 प्रतिशत) वोट शेयर हासिल होता दिख रहा है। ऐसे में गहलोत का जादू काम करता नजर नहीं आ रहा है।
अशोक गहलोत राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं इसलिए सचिन पायलट को सीट से दूर रखने में कामयाब भी रहे। हालांकि खुद की सीट बचाने के लिए जनता को गंभीरता से लेना भूल गए। जनमानस आज भी सरकार के कार्य का आकलन करने के बाद ही अपने मत पर निर्णय लेता है।
फ्रीबीज के बीच प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की स्थिति का संज्ञान लेना अशोक गहलोत भूल गए। राजस्थान बलात्कार के मामलों में देश में नंबर एक पर है। एससी-एसटी के खिलाफ अपराध दर में यह दूसरे स्थान पर है जो कि आबादी का प्रभावशाली 31 प्रतिशत हिस्सा है। विडंबना यह है कि अशोक गहलोत और उनका पार्टी नेतृत्व प्रदेश में महिलाओं की सुरक्षा के प्रति गंभीर नजर नहीं आ रहे हैं।
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दलितों पर बढ़ते अत्याचार और अवसरों की कमी ने वोट बैंक में बदलाव लाने का काम किया है। जहां एससी-एसटी सीट पर कांग्रेस का वर्चस्व देखने को मिलता था वहां अब पार्टी उतनी आत्मविश्वासी नजर नहीं आती है। 2009 के बाद हुए चुनावों पर नजर डालें तो सिर्फ 2018 के चुनाव में कांग्रेस को बीजेपी के मुकाबले बढ़त हासिल हुई है। वहीं रीजर्व सीटों पर बीजेपी का फैलाव जादूगर के लिए चिंताजनक है।
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के मुकाबले के लिए कमलनाथ ने हिंदुत्व का हाथ थामा है। चुनावी ही सही पर कोशिश से इंकार नहीं किया जा सकता। हालांकि गहलोत अपने लिए यह दरवाजा भी बंद कर चुके हैं। राजस्थान में पिछले 4 वर्षों में जिस स्तर का धार्मिक तुष्टिकरण सामने आया है उससे सरकार चुनावी वर्ष में मुश्किल में है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। प्रदेश में स्थिति संभली भी नहीं थी कि अब बीजेपी सांसद राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने गहलोत सरकार के हिंदू विरोधी निर्णयों और धार्मिक तुष्टिकरण के मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर उठा दिया है।
हिंदू त्योहारों पर प्रतिबंध, शोभायात्राओं का विरोध और धार्मिक कट्टरता के चलते हुई हत्याओं का गहलोत सरकार के पास कोई जवाब नहीं है।
अशोक गहलोत दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। तीसरे कार्यकाल के लिए उन्होंने जिन चुनावी रणनीतियों का सहारा लिया है वे प्रभावी नजर नहीं आ रही हैं। अपने कार्यकाल में सचिन पायलट को छोड़कर जनकार्यों के प्रति कठोर निर्णय लेने में मुख्यमंत्री नाकाम रहे हैं। पेपर लीक ऐसा ही मामला रहा जिसने युवाओं को सबसे अधिक प्रभावित किया। सरकार के अपने सहयोगी इस पर प्रश्न चिह्न लगा चुके हैं पर सरकार इसपर कोई गंभीर निर्णय नहीं ले पाई।
सच तो यह भी है कि रेवड़ियों के जरिए तीसरे कार्यकाल का स्वपन देखने वाले गहलोत ने यह निर्णय लेने में भी देरी ही की है। चुनावों के कुछ माह पूर्व वितरित मुफ्त सामग्री जनहित योजना का हिस्सा कम और चुनावी हित राशि के रूप में अधिक प्रतीत होती हैं। 1993 के बाद से राजस्थानवासियों ने किसी सरकार को दूसरा मौका नहीं दिया। अपने कार्यकाल को देखते हुए गहलोत द्वारा इसकी कल्पना करना मुंगेरी लाल के स्वपन देखने के समान है।
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