सिविलाइज़ेशन स्टोरीज के पहले के दो भागों में हमने बताया था पितृसत्ता के इतिहास और भारत में पशुप्रेम की परंपरा के बारे में। आज हम बात करने जा रहे हैं ‘बिलीवर्स’ पर। ये भी जानेंगे कि अन्य धर्मों की तरह आख़िर हिंदू क्यों नहीं जन्नत के ख़्वाब के लिए मरना पसंद करते हैं? भारतीय सभ्यता पर आधारित हमारी इस शृंखला को आप हमारे यूट्यूब चैनल The Pamphlet पर भी देख सकते हैं।
कुछ साल पहले ‘वेस्टवर्ल्ड’ (Westworld) नाम की एक अमेरिकन टीवी सीरीज आई थी, जिसमें इंसानी शक्ल वाले रोबोट्स को दिखाया गया है। इसकी कहानी कुछ यूं है कि रोबोट्स को लगता है कि वो असली इंसान हैं, जबकि असल में तो वो एक रोबोट रहते हैं और जब इसका पता चलता है तो वो भी हैरान रह जाते हैं।
इस फ़िल्म को बनाने वाले जोनाथन नोलन ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि बचपन में वो अपने आसपास के लोगों के फ़िल्म के सस्पेंस को स्पॉइल करने वाले शरारती बच्चे थे। ऐसी ही कुछ ये वेस्टवर्ल्ड नाम की फ़िल्म है।
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अमेरिकिन टीवी सीरियल एकदम डायस्टॉपियन समाज की अवधारणा पर आधारित है। इसमें एक ऐसी दुनिया के बारे में बताया गया है जहां पूरा रोबोटिक एनवायरोमेंट है, उन्हें जो कुछ भी बताया जाता वो दुनिया को वैसे ही समझते और बाहर के लोग इसके मज़े लेते। ये एक क़िस्म का अम्यूजमेंट पार्क था जहां, मशीनें हैं, बाहर के लोग अपने उन सपनों को जीने के लिए इसका हिस्सा बनते, जिन्हें वो रियलिटी में पूरे नहीं कर पाते। और हर बार उन लोगों की याददाश्त मिटा दी जाती। उस काल्पनिक दुनिया में रोबोट्स को ये मानने का दबाव बनाया जाता है कि जो उन्हें जो कुछ भी बताया जा रहा है सिर्फ़ उसी पर यक़ीन करो, लेकिन धीरे धीरे वो रोबोट्स भी सूचना शुरू कर देते हैं और उनका कंसाइंस जाग जाता है।
यानी अज्ञानता, और ‘ना जानना’ वो अंधकार है जिसमें आप जो चीज मानकर बैठ जाओ आप उसी पर यक़ीन कर पाएँगे और उसके अलावा बाक़ी सब आपको मिथ्या लगने लगेगा। यदि आप किसी रस्सी को साँप मानकर बैठ जाएँगे तो दुनिया की कोई ताक़त नहीं, जो आपको ये यक़ीन दिला सके कि ये साँप नहीं बल्कि रस्सी है। इसके लिए आवश्यकता होती है कि इंसान की छः की छः इंद्रियाँ जब तक जाग्रत अवस्था में ना हों तो ऐसे इंसान को कहा जाता है बिलीवर, यानी मानने वाला । और जब आप अपने सत्य की तलाश में निकलते हैं तो आप कहलाते हैं सीकर, यानी खोजने वाला या तलाश करने वाला।
अब ये बिलीवर्स की कहानी शुरू होती है पश्चिमी देशों से। क्योंकि दुनिया भी तो बिलीवर्स और नॉन-बिलीवर्स की जंग में ही शामिल है। पश्चिमी देशों ने आपको हमेशा एक बिलीवर बनने पर ज़ोर दिया है। इस बात पर कि आप मानिए और भरोसा करते रहिए। ऐसा जब आपसे कहा जाता है तो आपको सच से थोड़ा सा और दूर कर दिया जाता है। आपसे ये नहीं कहा जाता कि आप सच को तलाशिये, नहीं, वो आपसे कहेंगे कि भरोसा रखिए। कभी आपसे किसी किताब पर भरोसा करने को कहेंगे तो कभी किसी अनजानी चीज और ऊर्जा पर। और ऐसा कर के आपकी इमेजिनेशन पर लगा दिया जाता है पूर्ण विराम। आपको सोचने से ही रोक दिया जाता है।
जैसे- आसमान आसमान का कोई रंग नहीं होता लेकिन हमारी आँखों ने हमारे दिमाग़ तक यही संदेश भेजा है कि ये ब्लू यानी नीला है और हम यही मान लेते हैं। आप जिस चेयर पर बैठे हुए हैं वो भी निरंतर मोशन कर रहे कणों से है लेकिन आपको वो सॉलिड महसूस होती है। विज्ञान ने जितनी भी खोजें की वो एक आम मस्तिष्क की सीमाओं को पार करने के बाद ही संभव हुआ।
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पश्चिम में हमेशा कहा गया कि बिलीव करो, यक़ीन किया करो। जबकि हिंदू हमेशा खोज में रहे हैं, हिंदू बायडिफ़ॉल्ट सीकर रहे हैं। हिंदू परम शक्ति की खोज में रहे। जब भारत में वेद लिखे जा रहे थे, जब हम ज्ञान की खोज में थे और अपनी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता के चरम पर थे, उस समय यूरोप में सेल्टिक और गौल जनजाति थीं जो आपस में ही एक दूसरे से पत्थरों और डंडों से लड़ मरकर अपना पेट पाल रहे थे। यही वजह भी है कि पश्चिम कभी उस तरह से विकसित ही नहीं हो पाया, वो बिलीवर्स थे और उन्होंने ख़ुद की सामूहिक सोच को सीमित रखा। जबकि हम लोग उस वक्त ब्रह्म की तलाश में थे, जबकि पश्चिमी देश माया या डिल्यूजन में रहना पसंद करते हैं।
मानवों की प्रवृत्ति होती है कि वो जादू से सम्मोहित हो जाते हैं, और इस तरह से आभासी चीजों में बंध कर रह जाते हैं जबकि लिबरेशन के लिए इंसान के लिए ज्ञान का होना आवश्यक होता है। तभी हम उस जादू या डिल्यूज़न के पीछे के सच को भी जान पाते हैं।
अब आते हैं माया पर। माया और मोह भौतिकतावाद यानी मैटेरियलिज्म में बंधे हुए हैं। और इंसान इस जाल में ना फँसे इसके लिए हम हमेशा सीकर बनकर ही रहे हैं, इसीलिए हम अपनी तलाश और आस्था को मनुष्य, प्रकृति, पशु और पहाड़ों में तलाशते हैं। और उनकी पूजा करते हैं।
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सीकर और बिलीवर्स पर सद्गुरू ने भी एक बार कहा था कि हिंदू तो कभी किस बंधन में रहे ही नहीं, हमारी प्रवृत्ति हमेशा तलाशने वाले की ही रही है। और जानने की चॉइस। वो कह रहे हैं कि पश्चिमी लोग हमेशा एक जैसे रोबोट की तरह ही एक सेट पैटर्न वाले नज़र आते थे लेकिन जब वो भारत आए तो उन्होंने विविधता देखी, मेरा पड़ोसी मुझसे एकदम अलग विचार रखता है। सौ लोग सौ क़िस्म की विचारधारा और सौ क़िस्म की सोच। उतनी ही भाषाएँ, उतने ही खाने पकाने के तरीक़े लेकिन उसके बाद भी यहाँ सब एक राष्ट्र के रूप में थे क्यों? क्योंकि भारत सीकर्स का देश रहा है ना कि बिलीवर्स का। हमारी अंतिम खोज लिबरेशन है यानी मुक्ति, हमें गॉड या फिर कोई जन्नत का भी ख़्वाब नहीं रहा, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ मुक्ति और मोक्ष यानी लिबरेशन।
पश्चिम आज डेमोक्रेसी के नारे लगा रहा है, कोई कुछ डींगें मार रहा है तो कोई कुछ डींगें, जबकि उन सभी का अंतिम लक्ष्य स्वर्ग की प्राप्ति है, ऐशो-आराम की लाइफ, पूरा भौतिकवादी जीवन। आप शरीर पर बम बांधकर फूटने वाले जॉम्बीज के अरमान देखिए, मतलब मर भी रहे हैं तो 72 हूरों के ख़्वाब में, मरने के बाद उन्हें कुछ किताबें यक़ीन दिलाती हैं कि इस दुनिया में तुम्हें जो नहीं मिल सकता वो वहाँ मिलने वाला है। शायरी भी करते हैं तो हूरों पर कि ‘कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहां में सख़्त मुश्किल, यहाँ परियों का डेरा, वहाँ हूरों की महफ़िल’।
जबकि हिंदुओं की आस्था में ना ही हूरों का ख़्वाब दिखाया जाता है और ना ही किसी मटिरियलिज़्म के नाम पर उन्हें ‘बिलीव’ करने को कहा जाता है, हमारे धर्म का एक अकेला लक्ष्य है मोक्ष, यानी लिबरेशन (Liberation) जिसका अर्थ है आज़ादी! जन्म मृत्यु के कालचक्र से, बैकुंठ की प्राप्ति, ताकि जन्म और मृत्यु के लफड़े में ना पड़ें। यही फ़र्क़ होता है बिलीवर और सीकर में। इसीलिए हम कहते हैं वसुधैव कुटुम्बकम्, इसीलिए हम जीवों की भी उपासना करते हैं । हमारी संस्कृति ना ही किसी पर आक्रमण की रही है और ना ही किसी के उत्पीड़न की।