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Home » लोकतंत्र में वंशवाद को कब तक जीवित रख पाएंगे राजनीतिक दल
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लोकतंत्र में वंशवाद को कब तक जीवित रख पाएंगे राजनीतिक दल

Pratibha SharmaBy Pratibha SharmaFebruary 25, 2023No Comments5 Mins Read
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Democracy in india
वंशवाद बनाम लोकतंत्र
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लोकतंत्र और वंशवाद साथ-साथ चल सकते हैं क्या? या फिर कहें कि लोकतंत्र इतना लचीला होता है कि उसमें वंशवाद की जगह भी सहज बन जाती है। कम से कम आजादी के बाद से अब तक कई राजनीतिक दलों और उनकी कार्यशैली को लेकर यह बात सच लगती है।

देश में लगभग 2,858 राजनीतिक दल हैं जिनमें 8 राष्ट्रीय और अनेक क्षेत्रीय दल हैं। इनमें से अधिकतकर दल वंशवाद का शिकार हैं। स्वतंत्रता के पश्चात के देश का राजनीतिक इतिहास देखें तो वंशवाद का नाम लेते ही जहन में कॉन्ग्रेस पार्टी एवं गांधी परिवार ही आता है पर कई और दलों में वंशवाद का वृक्ष खड़ा हो चुका है और कुछ में पनप रहा है। देखा जाए तो वंशवाद की प्रकृति लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध है। यह निज के आगे या निज के साथ किसी और को खड़ा होते नहीं देखना चाहता। क्या यही कारण नहीं कि परिवारवाद और वंशवाद का उदाहरण बने राजनीतिक दलों में परिवार के बाहर का कोई और सदस्य राष्ट्रीय स्तर पर नेता बनकर नहीं उभर पाता?

इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को न केवल जीवित रखने के लिए बल्कि उसके विकास के लिए राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र का होना आवश्यक है। पर अधिकतर राजनीतिक दल इस बात से सहमत दिखाई नहीं देते।

बहरहाल वर्ष 2014 के चुनावों में सत्ता परिवर्तन के बाद वंशवाद पर गहरा प्रहार हुआ है। 2014 के लोकसभा चुनावों में 10 वर्षों तक सत्ता में चल रही कॉन्ग्रेस को विपक्ष की कुर्सी तक नहीं मिल पाई। कॉन्ग्रेस ने स्वयं जनता को सत्ता परिवर्तन के लिए पर्याप्त कारण दिए थे।

खत्म है कॉन्ग्रेस के भीतर का लोकतंत्र: गृहमंत्री अमित शाह का परिवारवाद और जातिवाद पर प्रहार

वर्ष 2024 में एक बार फिर सभी दल चुनावों का सामना करेंगे। हालाँकि बीते 8 वर्षों में देश की परंपरागत वंशवादी राजनीति, राष्ट्रीय योजनाओं और शासन के तरीके में बदलाव देखने को मिले हैं। वर्तमान में देश आजादी के अमृतकाल का जश्न मनाने के साथ भारत की सांस्कृतिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास का साक्षी भी बन रहा है। 2014 के बाद से बदली राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्यों ने विपक्षी पार्टियों को अपनी नीतियों पर एक बार पुनर्विचार करने का मौका दिया है। हालाँकि समय के साथ हो रहे इन बदलावों को अपनाने में वंशवादी पार्टियों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। शायद यही कारण है कि नीतियां बदलने के बजाए यह अपने नेता को बार-बार लॉन्च किए जा रहे हैं।

लोकतंत्र बदलाव का स्वागत करता है। वहीं वंशवाद अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि को मजबूत करने का प्रयास करता है। देश में जम्मू-कश्मीर से शूरू करें तो वहाँ सत्ता में रही दोनों प्रमुख पार्टियां नेशनल कॉन्फ्रेस और पीडीपी वंशवाद का उदारण है। पंजाब में वंशवादी पार्टियां हैं। राजस्थान में कॉन्ग्रेस के कई नेता वंशवादी राजनीति का हिस्सा है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में सत्ता एक परिवार के हाथ में रहती है तो बिहार में राष्ट्रीय जनता दल का प्रमुख लालू यादव का परिवार है। दक्षिण भारत में राजनीतिक दल परिवारवाद को आगे बढ़ा रहे हैं। महाराष्ट्र में  परिवारवाद को देखा जा सकता है। कॉन्ग्रेस का संचालन ही एक परिवार करता है और इसका विरोध करने पर क्या होता है वो इंदिरा गांधी और सिंडिकेट की लड़ाई में देखने को मिलता है। पार्टी में परिवारवाद इतना हावी है कि यह स्वयं को लोकतंत्र से भी परे मानने लगता है।

कॉन्ग्रेस इस भ्रम में जीती आई है कि जिस तरह गांधी परिवार पार्टी चला रहा है उसी तरह देश भी चला रहा है। इसलिए परिवार के भविष्य राहुल गाँधी ने अपनी ही पार्टी की सरकार के फैसले को बकवास करार देकर अध्यादेश फाड़ देते हैं। वंशवाद से लोकतंत्र का सम्मान अपेक्षित ही नहीं है क्योंकि उसने  कभी उसके लिए संघर्ष नहीं किया है।

समानता के सिद्धांत में अपने लिए संभावनाएं ढूँढते विजयन

हाल ही में शिवसेना को लेकर आए चुनाव आयोग के फैसले के बाद परिवारवादी पार्टियों को अपनी परिपाटी बदलने पर ध्यान देना चाहिए। शिवसेना एक विचारधारा के तहत बनी पार्टी है जो धीरे-धीरे परिवारवाद की तरफ बढ़ गई। चुनाव आयोग ने परिवार को दरकिनार कर पार्टी को विचारधारा के साथ जोड़ दिया। इसका असर अन्य पार्टियों पर भी देखने को मिलेगा। शिवसेना के मामले में जो विरोध सामने आ रहा है वो परिवारवाद से ग्रसित राजनीतिक दलों का भय दर्शाता है।

जाहिर है अभी तक आजादी के बाद से ही वंशवाद देश की राजनीति का हिस्सा रहा है। सत्ता में न होने पर भी ये किंगमेकर के रूप में राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करते रहते हैं। जमीनी हकीकत से दूर मात्र एक परिवार के नाम पर जब कोई नेता बनता है तो उसे आवश्यकता होती है अंध समर्थन की जो नीतियों से नहीं मात्र कल्याणकारी योजनओं से मिल पाता है। क्या यही कारण नहीं है कि परिवारवादी राजनीतिक दलों की सरकारें अधिकतर अपने चुनाव रेवड़ियों के दम पर जीतती है।

लोकतंत्र विकास को बढ़ावा देता है और वंशवाद कल्याणकारी योजनाएं और फ्रीबीज यानी रेवड़ियों को। देश में 5 से 6 प्रतिशत युवा बेरोजगार हैं। देश में उद्योग, कृषि, शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। देश आज ऐसे स्थान पर है जहाँ उसे रेवड़ियों की नहीं अवसरों की आवश्यकता है। ऐसी योजनाओं की आवश्यकता है जो देश के कौशल का इस्तेमाल देश निर्माण के लिए कर सके। पर जिनका वोट बैंक ही परिवारवाद और जातिवाद पर आधारित हैं वो किस प्रकार विकास की राजनीति में भागीदार बन सकते हैं।

आज शिवसेना में परिवारवाद को पीछे छोड़ कर विचारधारा को सम्मान दिया गया है। कल ऐसी उम्मीद अन्य पार्टियों से भी की जा सकती हैं। उम्मीद लगाई जा सकती है कि ये दल अपने आतंरिक लोकतंत्र को मजबूत करके स्वयं में बदलाव करेंगे। देश के लोकतांत्रिक मूल्य मजबूत हुए हैं। वंशवाद लोकतंत्र में उपस्थित तो रह सकता है पर हमेशा विजयी रहे, यह आवश्यक नहीं है। इसलिए राजनीतिक दल या तो स्वयं में बदलाव करें या समाप्ति की ओर अग्रसर रहें। चुनाव उनका है।

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