“सरकार विपक्ष को ख़त्म कर देना चाहती है”; बार-बार दोहराया जानेवाला यह वक्तव्य अब भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान विपक्ष (उसमें मीडिया और बुद्धिजीवी भी शामिल हैं) के लिए ऐसी औपचारिकता रह गई है जिसे पूरा करके विपक्ष अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है।
कॉन्ग्रेस के गौरव गोगोई का न्यूज एजेंसी ANI को दिया गया वक्तव्य इसी औपचारिकता की नवीनतम कड़ी है। संसदीय समितियों के अध्यक्ष पद से कॉन्ग्रेसी सांसदों के हटाए जाने को लेकर ANI से अपनी बातचीत में गोगोई ने कहा; भारतीय जनता पार्टी का यह कदम सख्त है। गोगोई के अनुसार भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी व्यवस्था का आधार तैयार कर रही है जिसमें न केवल नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन होगा बल्कि संस्थागत नियंत्रण और संतुलन ख़त्म कर दिया जायेगा।
गोगोई ने एक कदम आगे जाते हुए यहाँ तक कहा कि; प्रधानमंत्री मोदी चीनी व्यवस्था के एक पार्टी शासन और वर्तमान रूसी व्यवस्था की ओलिगार्ची से प्रभावित दीखते हैं और ऐसी व्यवस्था का आधार खड़ा करना चाहते हैं जिसमें नागरिक अधिकारों का हनन होगा।
विपक्ष और उसके नेताओं के लिए वैसे तो इस तरह के वक्तव्य अब आम हो चुके हैं पर लोकतांत्रिक संवाद दृष्टि से ऐसे वक्तव्यों को ऐतिहासिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
क्या है मामला और क्या हैं स्थायी समितियां ?
स्थायी समितियां संसदीय कामकाज का अभिन्न अंग हैं। इन समितियों का गठन संसदीय कामकाज को आसान बनाने के लिए किया जाता है और लोक सभा तथा राज्य सभा, दोनों सदनों के सदस्य समितियों के सदस्य होते हैं। वर्तमान संसदीय व्यवस्था में चार तरह की संसदीय समितियां होती हैं।
वित्तीय समिति, जिनमें लोक लेखा समिति, सरकारी उपक्रमों पर समिति और प्राक्कलन समिति हैं। इनमें से लोक लेखा समिति सबसे अहम है, इसका अध्यक्ष हमेशा नेता प्रतिपक्ष होता है। प्राक्कलन समिति सरकारी विभागों में मितव्ययिता जैसी मुद्दों को देखती है। इन समितियों का कार्यकाल एक साल का होता है। इनके अध्यक्ष का चुनाव लोकसभा या राज्यसभा के सभापति करते हैं।
इसके अलावा अन्य विभागों से समबन्धित स्थायी समितियां, अन्य संसदीय स्थायी समितियां और तदर्थ समितियां होती हैं। हाल में विभागीय समितियों की नियुक्तियों पर सरकार और विपक्ष में बहस चल रही है। विपक्ष, खासकर कॉन्ग्रेस पार्टी की शिकायत रही है कि उसे इन समितियों में आवश्यक प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है।
समितियों में हाल में हुए बदलाव में सबसे पहला नाम गृह समिति का है, जिसके अध्यक्ष पद से कॉन्ग्रेसी सांसद अभिषेक मनु सिंघवी को हटाकर उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी और भाजपा से राज्य सभा सांसद बृज लाल को प्रमुख बनाया गया है।
इसके अलावा चर्चा में सूचना प्रौद्योगिकी सम्बंधित समिति है जिसके अध्यक्ष पद पर तिरुवनंतपुरम से कॉन्ग्रेस सांसद शशि थरूर थे और अब उनकी जगह महाराष्ट्र से प्रताप राव जाधव को नियुक्त किया गया है जो शिवसेना से सासंद हैं। इसके साथ ही खाद्य और उपभोक्ता मामलों की समिति की अध्यक्षता अभी तक तृणमूल कॉन्ग्रेस के सांसद सुदीप बंदोपाध्याय के पास थी, पर अब वे अध्यक्ष पद पर नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के मामलों की समिति की अध्यक्षता अब तक समाजवादी पार्टी से राज्यसभा सांसद और पार्टी के महासचिव रामगोपाल यादव के पास थी जिन्हें हटाकर अब भाजपा के राज्यसभा सांसद भुबनेश्वर कलीता को इस समिति का अध्यक्ष बनाया गया है।
आवासीय और शहरी मामलों की स्थायी समिति के प्रमुख के पद से भाजपा के सांसद जगदम्बिका पाल को हटा कर जनता दल यूनाइटेड से सांसद लल्लन सिंह को यह पद सौंप दिया गया है। वहीं कौशल विकास और कपड़ा तथा श्रम वाली समिति की अध्यक्षता अब तेलंगाना राष्ट्र समिति के हाथों से बदलकर बीजू जनता दल के नेता भृतहरि महताब को दी गई है।
कितना सच है गोगोई का आरोप, जब संसदीय कार्यवाही के प्रति विपक्ष के नेता ही गंभीर नही?
गोगोई के आरोप पर एक दृष्टि यह बताती है कि यह आरोप औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं है, वह भी तब जब विपक्षी दलों के सांसदों का संसदीय रेकॉर्ड औसत से भी कम रहा है और वे संसदीय परंपराओं के प्रति गंभीर नहीं दिखते।
यदि 2014-19 के बीच विपक्षी सांसदों की बात करें तो इस अवधि में कॉन्ग्रेस के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी ने संसद में एक भी प्रश्न नहीं पूछा। इसके साथ ही संसद में उनकी उपस्थिति लगभग आधी रही। वे आधे संसद सत्रों में उपस्थित रहे। वर्ष 2019-22 के बीच संसद में उनकी उपस्थिति केवल 56% है।
कॉन्ग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने 2014-19 और 2019-22 दोनों संसदीय कार्यकाल में एक भी प्रश्न नहीं पूछा। वर्तमान यानि 17वीं लोकसभा में उनकी उपस्थिति मात्र 41% रही है। इस सूची में अगला नाम तृणमूल कॉन्ग्रेस के नेता और ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी का है।
अभिषेक बनर्जी की संसद में उपस्थिति मात्र 13% रही है, उन्होंने केवल 40 प्रश्न अपने 2019-22 के लोकसभा कार्यकाल में पूछे हैं। उनकी पार्टी के बाकी सांसदों की संसद में उपस्थिति भी कोई उत्साहजनक नहीं रही है। उक्त आँकड़े PRS इंडिया के हैं।
असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिसर्च के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2014-19 के दौरान तृणमूल के 6 सांसद ऐसे थे जिनकी संसद में उपस्थिति 30% से नीचे थी। इसी कार्यकाल के दौरान तृणमूल के 9 सांसद ऐसे थे जिन्होंने एक भी प्रश्न नहीं पूछा।
इसके अतिरिक्त सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से पहले तक आजमगढ़ से सांसद अखिलेश यादव ने अपने तीन वर्ष के संसदीय कार्यकाल में एक भी प्रश्न नहीं पूछा तथा इनकी संसदीय उपस्थिति भी मात्र 32% रही है।
क्या कहते हैं ऐतिहासिक तथ्य? यूपीए और एनडीए सरकार के दौरान क्या थी स्थायी समितियों की स्थिति?
स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए की 1999-2004 वाली सरकार देश में गैर कॉन्ग्रेसी पहली ऐसी सरकार थी जिसने अपने पांच साल पूरे किए थे। इस दौरान संसदीय समितियों में विपक्ष के नेताओं का प्रतिनिधित्व संसदीय नियमों और परंपराओं को देखते हुए भरपूर कहा जा सकता था।
बाजपेयी सरकार के दौरान गृह मामलों वाली समिति की अध्यक्षता कॉन्ग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामलों वाली समिति की अध्यक्षता समाजवादी पार्टी के अमर सिंह के पास और सूचना प्रौद्योगिकी वाली समिति की अध्यक्षता सोमनाथ चटर्जी के पास थी, जिनका ताल्लुक वाम दलों से था।
वित्त मामलों वाली समिति की अध्यक्षता कॉन्ग्रेस के सांसद एन जनार्दन रेड्डी के पास थी। इससे हमें यह तस्वीर मिलती है कि बाजपेयी सरकार के दौरान विपक्ष के नेताओं को ही महत्वपूर्ण समितियों की अध्यक्षता दी गई थी। यूपीए-1 की बात की जाए तो इस दौरान रक्षा और सूचना प्रौद्योगिकी जैसी समितियों की कमान कॉन्ग्रेस नेताओं के हाथ में ही रही, रक्षा समिति बालासाहब विखे पाटिल तो सूचना प्रौद्योगिकी समिति की कमान निखिल कुमार के पास थी। ये दोनों नेता कॉन्ग्रेस पार्टी के सदस्य थे।
वहीँ यूपीए-2 के दौरान रक्षा समिति तब कॉन्ग्रेस में रहे सांसद सतपाल महराज के पास और बाद में राज बब्बर के पास थी जो कॉन्ग्रेस के ही नेता थे। कुछ समितियों में भाजपा नेताओं को भी जगह दी गई थी, जिनमें गृह समिति प्रमुख है।
मोदी सरकार के समय महत्वपूर्ण स्थायी समितियों में मिला है विपक्ष को स्थान
कॉन्ग्रेस के एक दलीय व्यवस्था बनाने के आरोपों से उलट मोदी सरकार के 2014 में आने के बाद से लगातार महत्वपूर्ण संसदीय समितियों में विपक्ष के ही नेताओं को अध्यक्ष बनाया गया है। सबसे महत्वपूर्ण समितियों जैसे कि सूचना प्रौद्योगिकी, गृह और वित्त जैसी समितियों में कॉन्ग्रेस एवं विपक्ष नेताओं को अध्यक्ष बनाया गया।
उदाहरण के तौर पर 2014 में मोदी सरकार आने के बाद से गृह समिति का अध्यक्ष पहले बीजू जनता दल के नेता पी भट्टाचार्या और उसके बाद कॉन्ग्रेस के नेता पी चिदम्बरम को बनाया गया। चिदम्बरम 2019 तक इस समिति के अध्यक्ष रहे।
2019 में मोदी सरकार के दोबारा चुने जाने के बाद भी 2022 तक कॉन्ग्रेस नेता आनन्द कुमार और अभिषेक मनु सिंघवी को गृह समिति की कमान दी गई थी। वित्त मामलों की कमान 2014-19 के दौरान कॉन्ग्रेस नेता वीरप्पा मोइली को दी गई थी।
वहीं सूचना प्रौद्योगिकी समिति अध्यक्षता लगातार 2014 के बाद से कॉन्ग्रेस नेता शशि थरूर के पास थी। अब उनको बदला गया है। ऐसे में देखा जाए तो मोदी सरकार के दोनों कार्यकाल में विपक्ष के नेताओं को महत्वपूर्ण समितियों में स्थान मिला है।
गोगोई का दावा कॉन्ग्रेस को ही कटघरे में खड़ा करता है
गौरव गोगोई का यह दावा कि स्थायी संसदीय समितियों में बदलाव करके भारतीय जनता पार्टी देश में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तरह एकदलीय व्यवस्था लाना चाहती है, कॉन्ग्रेस को ही कटघरे में खड़ा करता है। कॉन्ग्रेस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सम्बन्ध रहे हैं, यह बात अब छिपी नहीं है।
इसे लेकर एक तस्वीर भी सामने आई थी जिसमें राहुल गांधी और चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कथित तौर पर एक सहयोग पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह तस्वीर संवाद माध्यमों और सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बनी थी।
वैसे भी लोकतांत्रिक भारत के शुरूआती दशकों के कॉन्ग्रेसी शासन में देश व्यवहारिक रूप से एकदलीय व्यवस्था बना रहा। देश को उसका एकमात्र आपातकाल कांग्रेस ने दिया। इतिहास बताता है कि कॉन्ग्रेस की केंद्र सरकारों ने बार-बार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया और कॉन्ग्रेस की ही सरकार ने सत्तर के दशक में न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति को कैसे खेल में परिवर्तिति कर दिया था।
द न्यू इन्डियन एक्सप्रेस में छपे अमित शाह के एक बयान के अनुसार, कॉन्ग्रेस ने अपनी सरकार के दौरान 93 बार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया। इसमें से अधिकतर मौके ऐसे थे जब कॉन्ग्रेस ने यह विपक्ष को ना खड़ा होने देने के कारण किया। इसके साथ विपक्ष की सरकारों को बर्खास्त करने के अलावा कॉन्ग्रेस की केंद्र सरकारों में महत्वपूर्ण स्थायी समितियों में अधिकतर कॉन्ग्रेस के ही नेताओं को जगह मिलती रही है।
कहते हैं लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक मजबूत विपक्ष का रहना आवश्यक है पर यह विपक्ष का भी दायित्व है कि वह अपने राजनीतिक महत्त्व और अपनी राजनीतिक लड़ाइयों को मात्र औपचारिकता तक सीमित नहीं रखना चाहिए। यह विपक्ष का अपना दायित्व है कि वह राजनीतिक लड़ाइयों को बुद्धिजीवियों, मीडिया और पत्रकारों को आउटसोर्स न करे। ऐसा करना भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सुदृढ़ होने की पहली सीढ़ी होगी।