1970 का दशक। प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई थी, विपक्षी नेता जेल में थे और संविधान में बदलाव कर इसकी मूल आत्मा को खत्म करने का प्रयास किया गया। लगा था कि आजादी के 28 वर्षों में ही लोकतंत्र का सूर्य डूब जाएगा। हालाँकि देश के जनमानस ने न तो उम्मीद खोई और न ही लोकतंत्र। इससे यह भी पता चलता है कि जब भी लोकतंत्र पर खतरा आएगा तो जनता उसे पहचान भी लेगी और ख़तरे को दूर करने की कोशिश भी करेगी। हालाँकि आज राजनीतिक दलों को इसे समझने में समस्या का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि आज विपक्ष की ओर से लगाई जा रही लोकतंत्र की समाप्ति की आवाज पर जनता चुप्पी साधे बैठी है।
आपतकाल जैसे समय से बाहर आए दलों ने जिन मुद्दों से राजनीति शुरू की थी वो उसे छोड़ ही नहीं पा रहे हैं। दर्जन भर विपक्षी दल होने के बाद भी विरोध के लिए कोई तार्किक विषय का न होना लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है। बात देश की सबसे पुरानी पार्टी कॉन्ग्रेस की हो, समाजवादी दल की या फिर अन्य राजनीति दलों की, इनके बीच बस बयानों में समानता पर सहमति ही बन पाई है। सारे दल पिछले चार वर्षों से लोकतंत्र की समाप्ति का चूरन बेचने की कोशिश पर अटके पड़े हैं।
सरकार के विरोध के लिए मुद्दों का न होना लोकतांत्रिक राजनीति को लेकर एक नया संदेश देता है। यह भारतीय लोकतंत्र में बदलती राजनीति को लेकर विपक्षी दलों की समझ को भी दर्शाता है। इंदिरा गांधी के विरोध में लोकंतत्र समाप्ति की बात इसलिए प्रभावी थी क्योंकि भारतीय लोकतंत्र पर इंदिरा गांधी ने घातक हमला किया था। ऐसे में आज का विपक्ष सफलता के उसी फ़ार्मूले को दोहराना चाहता है तो यह भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी को नहीं बल्कि विपक्ष के राजनीतिक छिछलेपन को रेखांकित करता है।
क्या नया भारत बौने नेता का लोकतंत्र स्वीकार करेगा?
लोकतंत्र की समाप्ति की कहानी के आगे विपक्ष यदि और कुछ नहीं देख पा रहा तो यह विपक्ष की विफलता है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया की नहीं। भ्रष्टाचार पर कार्रवाई को लोकतंत्र पर कार्रवाई बताने का जो कथावाचन पिछले कुछ वर्षों से चल रहा है उसका अंत दिखाई नहीं देता क्योंकि अब इस कथा ने विपक्ष को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है और विपक्ष चाह कर भी उस क़ब्ज़े से नहीं निकल पा रहा। भ्रष्टाचार लोकतंत्र का हिस्सा हो सकता है पर लोकतंत्र भ्रष्टाचार का हिस्सा नहीं हो सकता।
ऐसे में विपक्षी राजनीतिक दलों को कोई ऐसा नैरेटिव लेकर आना पड़ेगा जो उन्हें विरोध के लिये स्पेस प्रदान कर सके। लोकतंत्र में कथावाचक को भी लोकतांत्रिक होने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार से बचने के लिए जिस तर्क को लेकर विपक्षी दल हाल ही में उच्चतम न्यायालय पहुँचे थे, वह लोकतांत्रिक नहीं था और इस बात को ख़ुद उच्चतम न्यायालय ने विपक्ष को समझा भी दिया।
विपक्ष की समस्या यह है कि वो बॉलिंग किए जा रहे हैं बिना यह जाने की राजनीति की तो पिच ही बदल चुकी है। सत्ता को वापस पाने के लिए इंदिरा गांधी को हाथी पर सवार होकर बेलछी जाना पड़ा था। उसी सफलता को दोहराने के लिए कथित तौर पर उनके जैसे दिखने वाली प्रियंका गांधी भी हाथरस गई थी। यह बात और है कि न्यायालय के फैसले ने मट्टी और राजनीति दोनों पलीत कर दी। प्रियंका गांधी या किसी और गांधी को समझने की आवश्यकता है कि जब लोकतंत्र के परिष्कृत होने की प्रक्रिया चल रही होती है तब पहले से खींची गई सफलता की लकीरें भी धूमिल पड़ जाती हैं और उन लकीरों को गाढ़ा करना आसान नहीं होता।
परंपरावादी राजनीति से चिपके विपक्षी दलों में समानता भी बहुत नजर आती है। कॉन्ग्रेस में राहुल गांधी को उनके पिता, दादा और महानुभावों के समान बताकर उनके राजनीतिक करियर में जान डालने की कोशिश की जाती है। आम आदमी पार्टी में भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाते ही नेता को स्वतंत्रता सेनानियों का अघोषित अवतार बता दिया जाता है। राहुल गांधी को सजा भले ही न्यायपालिका दे या आम आदमी पार्टी के मंत्रियों को जमानत न देने का काम भले ही न्यायपालिका करे पर विपक्ष लोकतंत्र की समाप्ति की घोषणा करना नहीं भूलता, बिना यह याद किए कि न्यायपालिका उसी लोकतंत्र का एक अभिन्न अंग है।
भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने पर लोकतंत्र को खतरे में बता रहे राजनीतिक दल बड़ी आसानी से यह बात भुला देते हैं कि आपतकाल के दौरान मानवाधिकारों को ही समाप्त कर दिया गया था। विपक्ष को समाप्त करने के आरोप लगाने वाले नेता यह क्यों नहीं बताते कि जब सत्ता की कुर्सी बचाने के लिए समस्त विपक्ष को जेल की कोठरी में डाल दिया गया था तब कौनसे लोकतंत्र की रक्षा की जा रही थी? आपतकाल की बात चली है तो गांधी परिवार की राजनीति पर एक नजर डालनी चाहिए। कर्नाटक में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं। प्रदेश में चुवाव प्रचार करने पहुँची प्रियंका गांधी का कहना है कि जिस प्रकार जनता इंदिरा गांधी के साथ खड़ी हुई थी उसी प्रकार राहुल गांधी के साथ भी होगी।
अब इसे भ्रम न कहा जाए तो क्या कहा जाए कि जनता इंदिरा गांधी के साथ खड़ी नहीं हुई थी। कॉन्ग्रेस अपने इतिहास को स्वर्णिम स्वतंत्रता की लड़ाई से शुरू करती है और वर्तमान में छलांग लगा देती है। उसे यह डर है कि उसका पाँव कहीं आपातकाल में न पड़ जाए। पर जनता समझदार है उसे सब याद है, भले ही प्रियंका भूल गई हों। दूसरी बात राहुल गांधी को एक जाति के प्रति अपमानजनक टिप्पणी करने पर सजा मिली है वो भी कोर्ट के द्वारा। ऐसे में जनता का उनके साथ खड़ा होना संभव है?
भ्रष्टाचार की जाँच को लेकर विपक्षी दल अब किस अदालत में जाएँगे?
आगामी चुनावों के लिए विपक्षी दल एक साथ नहीं हो पाए हैं। राहुल गांधी के अयोग्य घोषित होने से गठबंधन की कुछ उम्मीदें बनी थी पर फिर भी बात नहीं बन पा रही है। हालाँकि लोकतंत्र के समाप्ति की घोषणा में सब एक दूसरे से सुर मिलाते नजर आते हैं। पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था का नमूना चुनावी और रामनवमी हिंसा के रूप में सामने हैं। हालाँकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी लोकतंत्र के समाप्त होने का वही खतरा महसूस करती हैं जो अन्य दल और उनके नेता महसूस करते हैं।
कमोबेश विपक्षी नेताओं का हाल यही नजर आता है। न्यायपालिका तथा कानूनी और प्रशासनिक संस्थाओं की कार्यवाही के डर से नब्ज फड़कने पर सभी को लोकतंत्र याद आ रहा है। इनकी समस्या यह है कि जनता इनके स्वाँग को समझती है। राजनीति में मुद्दे बदले हैं तो विरोध के विषय भी बदलना अनिवार्य है। बदलाव ही यही लोकतंत्र के मूल में है पर विपक्ष ऐसा करता दिखाई नहीं देता है क्योंकि लोकतंत्र की समाप्ति राग में उसे मुशायरा लूट लेने का विश्वास है।