दिल्ली के उप राज्यपाल वीके सक्सेना ने राज्य के मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के मौखिक हमलों का जवाब चिट्ठी लिख कर दिया है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए आवश्यक है कि संवैधानिक पदों पर बैठे माननीय लिखित और आधिकारिक संवाद करें। इससे लोकतान्त्रिक प्रक्रिया न केवल परिपक्व होगी बल्कि भविष्य के लिए लोकतंत्र में संवाद के मानक भी स्थापित होंगे।
अभी तक हुए मौखिक राजनीतिक हमलों की परंपरा को तोड़ना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि शोर में तथ्य खो जाते हैं। ऊपर से वर्तमान में शोर को स्थान देने वाले माध्यमों के बढ़ने के कारण आम भारतीय के लिए तथ्यों को खोजना कठिन हो जाता है।
आम आदमी पार्टी ने जब से दिल्ली में सरकार बनाई है तब से उप राज्यपाल और सरकार के बीच शासन और प्रशासन के तमाम विषयों पर वाद-विवाद आम बात हो चली है।
ऐसा नहीं कि मुख्यमंत्री केजरीवाल, उपमुख्यमंत्री सिसोदिया और पार्टी के अन्य नेताओं ने केवल वर्तमान उप राज्यपाल की आलोचना की है। उपराज्यपाल से केजरीवाल सरकार की शिकायतों की परंपरा नजीब जंग के कार्यकाल से चली आ रही है।
केजरीवाल सरकार को जितनी समस्या नजीब जंग से थी उतनी ही पूर्व उप राज्यपाल अनिल बैजल और वर्तमान उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना से रही है।
जिन्होंने भी केजरीवाल, उनकी पार्टी और उनकी सरकार के कामकाज को पिछले लगभग सात-आठ वर्षों में देखा है, उनमें से अधिकतर इस बात पर सहमत होंगे कि उप राज्यपाल पद के साथ आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं की समस्याओं का कोई ठोस आधार हो, यह आवश्यक नहीं है। ऐसे किसी संभावित आधार की खोज समय व्यर्थ करने जैसा है।
यह भी पढ़ें: दिल्ली LG की चिट्ठी ने खोली अरविन्द केजरीवाल के ‘शिक्षा मॉडल’ की पोल
केजरीवाल सरकार की समस्या केवल उप राज्यपाल से नहीं बल्कि लोकतंत्र में जवाबदेही से है। यही एक राज्य के तौर पर दिल्ली की राजनीति का सच है और इसे स्वीकार कर लेना हमें निरर्थक विचार और बहस से बचाता रहेगा। हाँ, अब जो महत्वपूर्ण है वो यह है कि वर्तमान उप राज्यपाल ने मौखिक हमलों का उत्तर लिखित में देने का निर्णय लिया।
तथ्य जब लिखित में दिए और लिए जायेंगे तो आम दिल्लीवासी या आम भारतीय को उन तथ्यों और तर्कों पर विचार करने में सुविधा रहेगी। संवाद यदि लिखित में रहे तो शोर कम रहता है और संवाद करने वालों की बातों को समझना आसान हो जाता है। पर उप राज्यपाल की चिट्ठी के जवाब में मुख्यमंत्री केजरीवाल ने जो चिट्ठी लिखी उसमें तथ्य तथा तर्क कम और लफ्फाजी अधिक दिखाई दी।
स्टेटक्राफ्ट या राजनीति की समस्या यही है कि शब्दाडंबर का प्रभाव कहाँ कम या खत्म हो जाता है, इसकी समझ हर नेता को नहीं होती। इस बात का परिणाम यह होता है कि ऐसे नेता शासन संबंधित प्रश्नों का उत्तर भी शब्दाडंबर से देते हैं और एक स्तर पर शासन और शब्दाडंबर को अलग नहीं रख पाते। उन्हें लगता है कि जब इससे कामचल ही रहा है तो कौन अच्छे शासन और प्रशासन के लिए मेहनत करे?
उप राज्यपाल सक्सेना ने अपने पत्र में पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में गिरावट को लेकर जो तथ्य दिए हैं, उनके जवाब में केजरीवाल ने पहली बार यह लिखित तौर पर स्वीकार किया कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में समस्याएं हैं। उन्होंने अपना बचाव करने की कोशिश की और उत्तर में लिखा कि कोई भी सिस्टम परफेक्ट नहीं होता। माना कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था में अब भी कमियाँ हैं पर यह व्यवस्था पहले से ठीक हुई है। उन्होंने यह कहने की कोशिश भी नहीं की कि दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था देश में सबसे बढ़िया है और इसके बारे में न्यूयॉर्क टाइम्स में भी छपा है।
इससे पहले अपने शासन और योजनाओं पर उठाये गए प्रश्नों के मौखिक उत्तर केजरीवाल इसी स्तर के तर्क से देते रहे हैं। पर इस बार उन्हें शायद लिखित में इस तरह की बात कहना जोखिमपूर्ण लगा होगा। केजरीवाल ने उप राज्यपाल के तथ्यपूर्ण प्रश्नों के उत्तर में लफ्फाजी करना शायद इसलिए उचित समझा क्योंकि इस तरह के लिखित पत्र सरकारी रिकॉर्ड का हिस्सा बन जाते हैं।
अभी कुछ दिन पहले ही उन्होंने दिल्ली विधानसभा में खड़े होकर तीखे स्वर में पूछा था कि कौन है एलजी? कहाँ का एलजी? कहाँ से लाकर इसे हमारे सिर पर बिठा दिया? इन प्रश्नों के उत्तर में उप राज्यपाल ने अपने पत्र में केजरीवाल को संविधान रेफर करने की सलाह दी।
यह भी पढ़ें: भ्रष्ट नेताओं की कानूनी मदद के लिए केजरीवाल ने खर्च कर दिए ₹25 करोड़: भाजपा का आरोप
उप राज्यपाल के इस सलाह पर कहने के लिए केजरीवाल के पास शायद कुछ नहीं था और इसलिए उन्हें चुप रहना उचित समझा। उप राज्यपाल ने अपने पत्र में यमुना की सफाई को लेकर उप मुख्यमंत्री सिसोदिया के आरोपों के उत्तर में जो विस्तृत ब्यौरा दिया, उस पर भी कुछ लिखना शायद केजरीवाल को जोखिम भरा लगा होगा। इसलिए अपने पत्र के अंतिम भाग में वे अपनी बातों को लफ्फाजी की पतंग में अटैच करके और ऊपर तक ले गए और लिखा; चांद का अपना काम है और सूरज का अपना। यदि सूरज चांद का काम करने लगेगा तो सृष्टि गड़बड़ा जाएगी।
विस्तृत प्रश्नों और तथ्यों का ऐसा उत्तर दर्शाता है कि आठ वर्षों तक शासन करने वाले केजरीवाल हर समय चुनाव प्रचार वाले मोड में रहते हैं और आज भी आधिकारिक संवादों में लफ्फाजी से ऊपर नहीं जा सके हैं। उन्हें अपने आचरण से सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि भारतीय राजनीति मेंलफ्फाजी के लिए स्पेस धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
साथ ही, उन्हें यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि हर संवाद में लफ़्फ़ाजी की सीमा होती है और लफ़्फ़ाज़ी कभी भी शासन और प्रशासन का विकल्प नहीं हो सकती। दिल्ली में उप राज्यपाल का संवैधानिक पद पिछले साल नहीं बनाया गया बल्कि पहले से है। ऐसे में “कौन एलजी, कहाँ का एलजील?” जैसे प्रश्न असंवैधानिक हैं।