महीना जून का, जगह है दिल्ली और साल 2018। आम आदमी पार्टी के चार बड़े नेता उपराज्यपाल के घर पर विरोध में डेरा डाले हुए थे। इन नेताओं में शामिल थे, मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल, गोपाल राय और आज जेल में बन्द पूर्व मंत्री सत्येन्द्र जैन और मनीष सिसोदिया।
केजरीवाल के शब्दों को ही क्वोट करें तो; डेरा इसलिए डाला हुआ था क्योंकि IAS अफसर हड़ताल पर थे। अब सवाल है कि हड़ताल पर क्यों थे?
इसके लिए फिर एक तारीख याद करते हैं। महीना फरवरी का, तारीख 19 और साल 2018। जगह है दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का आवास जो तब शीशमहल नहीं हुआ था।
19 फ़रवरी की उस रात आम आदमी पार्टी के कई मंत्री और विधायक मुख्यमंत्री केजरीवाल के घर पर IAS अफसरों को बुलाकर उन्हें बेइज्जत कर रहे थे। यहां तक कि मुख्य सचिव अंशु प्रकाश के साथ मारपीट की गई।
IAS एसोसिएशन का कहना है कि 19 फरवरी के पहले भी अफसरों के साथ मंत्रियों और विधायकों की ओर से होने वाली बदतमीजी की शिकायत सामने आती थीं लेकिन उस रात सभी हदें पार कर दी गई थी।
ये घटना उस वक्त घट रही थी जब केजरीवाल सरकार का IAS ऑफिसर्स पर सीधे तौर पर कोई कंट्रोल नहीं था।
अब सुप्रीम कोर्ट के 11 मई, 2023 के फैसले के बाद अधिकारियों पर दिल्ली की AAP सरकार का सीधा कंट्रोल है। इसका फायदा उठाते हुए कोर्ट के फैसले के चंद घंटों के अंदर ही केजरीवाल सरकार ने सर्विसेज डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी आशीष मोरे का तबादला कर दिया।
तबादले का आदेश तो थमा दिया लेकिन तबादला हो नहीं पाया क्योंकि उप राज्यपाल ने इसे अवैध बता दिया। अब इस फैसले को लेकर केजरीवाल सरकार एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की शरण में है। चीफ जस्टिस ने भी इस पर संवैधानिक बेंच बनाने का आदेश दिया है।
यहां दो-तीन बातें हैं जिन पर चर्चा बेहद जरूरी है। पहली बात ये है कि अरविन्द केजरीवाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही यह कैसे जान लिया कि ये अधिकारी ठीक नहीं है? जाहिर सी बात है केजरीवाल साहब ने एक लिस्ट पहले ही बनाई होगी और अब वे उस लिस्ट के अनुसार बनी योजना पर काम कर रहे हैं और ऐसा लगता है कि अपने मन-मुताबिक अफसरों को ही रखेंगे।
यदि ऐसा है तो फिर सवाल यह उठता है कि क्या भारत सरकार या राज्य सरकार के अधिकारी केजरीवाल साहब की पर्सनल प्रॉपर्टी हैं? अगर ऐसा नहीं हैं तो फिर सुप्रीम कोर्ट को अपने ही फैसले पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है?
31 अक्टूबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों की नियुक्ति, ट्रांसफर, उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई, उनका कार्यकाल और काम के तरीके को लेकर दिशानिर्देश जारी किए और संसद को कानून बनाने का आदेश जारी कर दिया ताकि नौकरशाहों को राजनेताओं के हाथों की कठपुतली बनाने से बचाया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग ने 28 जनवरी, 2014 को एक आदेश जारी किया जिसमें कहा गया था कि सिविल सर्विसेज बोर्ड के तहत अधिकारी की पोस्टिंग या ट्रांसफर होगा ना कि किसी मुख्यमंत्री के मन-मुताबिक।
यहां एक और बात। अगर अरविन्द केजरीवाल ने सिफारिश की है कि मोरे को हटाया जाए तो वो सिफ़ारिश लिखित में दी जानी चाहिए और उस पर सिविल सर्विसेज बोर्ड द्वारा यह विचार आवश्यक है कि सिफ़ारिश सही है या नहीं। अब प्रश्न ये है कि क्या ये सब चंद घंटों के भीतर ही हो गया?
खैर, सिविल सर्विसेज को लेकर लगभग यही बातें संविधान के आर्टिकल 309 और 310 भी कहते हैं। तो क्या आज अरविन्द केजरीवाल संविधान से ऊपर हो गए हैं या फिर सुप्रीम कोर्ट आज केजरीवाल साहब के लिए संविधान की अलग व्याख्या करने को तैयार है?
ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि हाल ही जब केन्द्र सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की थी तो सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए कहा था कि; हम आपकी नियुक्ति प्रक्रिया से चिंतिंत हैं। आपने नियुक्ति इतनी जल्दी कैसे की? इतनी जल्दी आपने कैसे जान लिया कि कोई अफ़सर किसी पद पर बैठने लायक़ है या नहीं?
क्या यही सवाल सुप्रीम कोर्ट खुद को दिल्ली के मालिक मानने और घोषित करने वाले अरविन्द केजरीवाल से पूछेगा कि उन्होंने कैसे सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर आते ही चंद घंटों के भीतर एक अधिकारी को हटा दिया। क्या सुप्रीम कोर्ट साल 2013 के अपने फैसले पर अडिग रहेगा या फिर संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों की नई व्याख्या करने के लिए नए तर्क ढूंढने का प्रयास करेगा?
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