लोकतंत्र में आपको कोई वाकया याद है जब जनता के चुने हुए नेताओं ने एक ही समय सामूहिक तौर पर जनता को याद दिलाया हो कि जनता कुछ भूल रही है जो किसी ज़माने में उसको चाहिए था। ये जरूर है कि विपक्ष के नेता सरकार में बैठे नेताओं को उनके जनता से किये वायदों की याद दिलाते रहे हैं लेकिन पक्ष विपक्ष के सारे नेता जनता को किये किसी ऐसे वायदे की याद दिलाएं जिससे उनका खुद का नुकसान हो सकता हो, ये विश्व के किसी भी लोकतंत्र के लिए अभूतपूर्व घटना होगी। लेकिन लोकतंत्र आश्चर्यचकित करने का ही नाम है। जब-जब जनता लोकतंत्र की घिसी-पिटी चाल को नियति मान कर समझौते करने पर आ जाती है, तब-तब लोकतंत्र उसको चकित होने और करने के मौके देता है। भारतीय लोकतंत्र में इस समय ऐसा ही चमत्कार घट रहा है जिसके कथानक का सर्वेक्षण करना लेखक अपना दायित्व समझता है। लेखक ये मानता है कि लोकतंत्र हमको इशारे कर रहा है जिसको जानने और समझने की जरूरत है।
कहाँ है जनलोकपाल?
आपको जनलोकपाल की मांग वाली टोपी पहने अन्ना हज़ारे के साथ रामलीला मैदान में मंचासीन केजरीवाल याद हैं? 2014 के बाद क्या आपने कभी सोचा कि आखिर जिस लोकपाल के लिए हम सड़कों पर उमड़ पड़े थे, वो कहाँ है। क्या आपने हमने उस समय कभी ये सोचा था कि लोकपाल में ऐसा क्या था जो वह भ्रष्टाचार ख़त्म कर देता? लोकपाल भले कहीं खो गया हो लेकिन एक बात साफ़ थी कि जिस मंच पर अन्ना आंदोलन के समय केजरीवाल बैठते थे, उसके सामने खड़े हज़ारों युवा लोकपाल में एक भ्रष्टाचार मुक्त और जवाबदेह लोकतंत्र खोज रहे थे। आज जब अन्ना आंदोलन को एक दशक से ज्यादा हो चुका है और केजरीवाल 45 करोड़ की सजावट वाले बंगले में पिछले एक दशक से रह रहे हैं, तो ये सवाल क्या लाज़िमी नहीं जान पड़ता कि पूछा जाये कि कहाँ है लोकपाल और लोकपाल मांगने वाली सरकार ने पिछले 12 वर्षों में दिल्ली के कितने भ्रष्टाचारियों को जेल भेजा?
इस सवाल के बाद शीला दीक्षित से लेकर लालू प्रसाद यादव को दो दिन में जेल भेजने का दम्भ भरते और इन नेताओं के भ्रष्टाचार के सबूत के कागज लहराते केजरीवाल और आज के केजरीवाल में कोई समानता ढूंढिए। आपको कोई समानता दिखती है क्या? भ्रष्टाचार शायद मनीष सिसोदिया और सत्येंद्र जैन के साथ जेल की कोठरी में पाँव दबवा रहा है। लोकतंत्र में जनता का सड़क पर उतरना हमेशा कुछ लोगों के लिए अवसर होता है। जब जन भावनाएं चरम पर हों तो जनता को अपनी तरफ कर लेना सबसे आसान होता है। सयाने नेता जानते हैं कि जनता हमेशा सड़क पर नहीं रह सकती और जब जनता का आक्रोश ठंडा पड़ जाता है और सयाने नेता भ्रष्टाचार का अंत करने के नाम पर मासूम जनता के वोट लूटकर लोकतंत्र में नायकत्व प्राप्त कर लेते हैं, उसके कई वर्षों के बाद इतिहासकार उस आंदोलन के मर्सिये पढ़ते हैं और क्षिद्रान्वेषण करने बैठते हैं कि उस आंदोलन में क्या-क्या कमियां थीं जो वो अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सका। भारत ही नहीं बल्कि किसी भी लोकतंत्र में आन्दोलनों की यही नियति रही है। आप बताइये अन्ना आंदोलन, जिस नयी आज़ादी की बात करता था, क्या वो नयी आज़ादी आपको कहीं दिखती है। क्या आपने उस नयी आज़ादी के नारे को कट्टर ईमानदारी का दावा ठोक रहे नेताओं के लच्छेदार भाषणों और ट्विटर और यूट्यूब पर बैठे कुछ प्रभावशाली लोगों के भाषा आडम्बर से लबरेज़ रोस्ट और पोस्ट में भुला नहीं दिया है? खुद से किये गए वादों को भुलाने वाला समाज मुर्दा होता है या मुर्दा होने के लिए अभिशप्त होता है।
अवतार सिंह पाश की खालिस्तानी गोलियों से बिंधी लाश को मुस्कुराते देखिये
मर चुके समाज के बारे में “पाश” कहता है –
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना।
तो अगर आप उस मुर्दा शांति में नहीं हैं तो समय के रथ का घर्घर नाद सुनिए और तत्कालीन घटनाक्रम का सरसरी सर्वेक्षण कीजिये।
हाल फिलहाल में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में अडानी मामले में जांच समिति बैठी हुई है और इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि इस मामले में सीधे प्रधानमंत्री की ईमानदारी दांव पर लगी हुई है। एक भूतपूर्व राज्यपाल जिसको प्रधानमंत्री ने किसी ढाबे से कॉल की थी और पुलवामा हमले की जानकारी दी थी, प्रधानमंत्री को खुलेआम चोर बता रहा है। उसके साथ वो सभी खड़े हैं जो एक दशक पहले चोर थे या चोरों के हिमायती थे। ये समझ नहीं आ रहा कि प्रधानमंत्री को चोर बताकर वो प्रधानमंत्री को अपने जैसा सिद्ध करना चाहते हैं या प्रधानमंत्री के चोर होने में अपनी चोरी की सफाई ढूंढ रहे हैं, ताकि जनता को बता सकें कि देखो ये भी चोर निकला, इससे अच्छे तो हम थे, कम से कम हमारे बाप दादा आज़ादी लाये थे। खैर अडानी ने चोरी और भ्रष्टाचार किया है या नहीं, इस पर आने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला नरेंद्र मोदी और भाजपा के राजनीतिक भविष्य का फैसला करेगा।
जन सुराज या जन स्वराज्य के रथ पर दिल्ली कि सत्ता पर काबिज़ हुई आम आदमी पार्टी के दो नेता, जो दिल्ली की सरकार में मंत्री थे, जेल में हैं और अदालतें लगातार उनको जमानत देने से इंकार कर रही हैं। जैन साहब और सिसोदिया साहब के बाद अब केजरीवाल साहब को भी सीबीआई ने आखिर शराब घोटाले में पूछताछ के लिए बुला ही लिया और सीबीआई के ऑफिस से निकलने के पहले और बाद में केजरीवाल साहब ने अपनी और अपनी पार्टी की कट्टर ईमानदारी को स्वप्रमाणित भी कर दिया है। समय के साथ केजरीवाल साहब की अगर कोई बात नहीं बदली है तो वो यही स्वप्रमाणित करने की अदा। केजरीवाल साहब उस बाबा की तरह हैं जो स्वयंभू ईश्वर होता है और मानवीय संस्थाएं उसकी नैतिकता की परीक्षा नहीं कर सकते। बस केजरीवाल साहब ये नहीं बताते कि अदालतों को उनके नायब सिसोदिया साहब की शराब में डूबी कट्टर ईमानदारी क्यों नहीं दिख रही। शायद अदालतों को शराब जैसी चीज़ से कट्टर नफरत होगी और वो शराब में डूबी सिसोदिया साहब की कट्टर ईमानदारी को बाहर निकालने से डर रहे होंगे। हालाँकि ठीक इसी समय केजरीवाल साहब की पार्टी की ही पंजाब में सरकार है जिसने हाल फिलहाल पूर्व कांग्रेस के मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी साहब को विजिलेंस विभाग के किसी मामले में पूछताछ के लिए ही बुलाया था।
कांग्रेस के बारे में कुछ भी बोलना सूरज को दीया दिखाने जैसा है और कांग्रेस के हिसाब से राहुल गाँधी की पवित्रता का प्रमाण उनका गाँधी होना है। गाँधी ऐसा सर्टिफिकेट है जो दुनिया में कहीं भी मान्य है, ये बात और है कि इस सवाल का जवाब कोई नहीं देता कि गाँधी सर्टिफिकेट का उपयोग करने की जरूरत क्यों आन पड़ी। फिलहाल राहुल जी भी सांसदी गँवा कर कर्नाटक के चुनावी मैदान में हैं और अडानी मामले में लगातार मोदी साहब पर निशाना साध रहे हैं। ये और बात है कि नेशनल हेराल्ड नामक समाचार पत्र की सम्पत्तियाँ हड़पने के मामले में वो जमानत पर हैं।
कुल मिलाकर राहुल गाँधी, अरविन्द केजरीवाल और देश के बाकी सभी नेता स्वघोषित ईमानदार तो हैं लेकिन ईमानदारी की अग्नि परीक्षा देने के लिए कोई मोदी की तरह न्यायालय के निर्णय का इंतजार करने या निर्णय आने के बाद उसको स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं हैं। ये देख कर आम आदमी को प्रसन्नता होनी चाहिए कि देश चलाने वाले सभी नेता न्यायालय के सम्मुख हैं और अग्नि परीक्षा जारी है। क्या आपमें से किसी ने पहले कभी ऐसा अद्भुत नज़ारा देखा था या इसकी उम्मीद की थी?
किसको चाहिए नया भारत?
2024 के संसदीय चुनावों का ये आग़ाज़ है और देखते हैं इस अग्निपरीक्षा से कौन बाहर निकलता है और किसको धरती अपने आगोश में ले लेती है। लेकिन क्या सत्ताधारी दल के लिए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाना खतरनाक राजनीति नहीं है? आखिर ये सवाल तो उठाया ही जा सकता है कि सभी सर्वे और आंकलन मोदी साहब को आसानी से 2024 का विजेता दिखा रहे थे तो इतना जोखिम लेने की उनको क्या जरूरत थी। काहे को प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो इतने सक्रिय हैं और क्यों मनी लॉन्डरिंग से सम्बंधित कानून में परिवर्तन कर सरकार विरोधी दलों की हाय ले रही है। वाजिब सवाल है लेकिन ये राजनीति के बंधे बँधाये तौर तरीकों पर आधारित सवाल है। इस सवाल में आखिर नयी आज़ादी वाली बात कहाँ है। ये सवाल पुरानी आज़ादी के धुंध में खड़े होकर पूछा जा रहा है।
क्या ऐसा हो सकता है कि कोई नेता नयी आज़ादी के उस वायदे पर अभी भी खड़ा है और वो जनता से पूछ रहा हो कि क्या तुमको वो नयी आजादी चाहिए जो तुम 12 साल पहले भीड़ का हिस्सा बनकर मांग रहे थे। आखिर नयी लकीर खींची जाती रही हैं और शायद मोदी साहब जनता से उस नयी आज़ादी के सपने को लेकर राय मांग रहे हैं। आखिर नए भारत का निर्माता कहलाने के लिए इतना जोखिम तो लेना ही पड़ेगा। एक नेता जो खुद को ऐतिहासिक व्यक्तित्व के तौर पर देखता है और नए भारत का सपना बेचता है उससे ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि वो सबसे जोखिम वाला दांव लगाएगा। तो शायद मोदी साहब ने वो दांव खेल दिया है और 2024 तक अदालतें ये तय करें कि कौन ईमानदार था और जनता अदालतों को गौर से देखे और निर्णय ले।
आज से करीब 12 साल पहले जब हिन्दुस्तान कहा जाने वाला मुल्क अपने जनप्रतिनिधियों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सड़कों पर उतरा हुआ था तो वो लोकतन्त्र में सरकार में बैठे नेताओं के उत्तरदायित्व को मापने के पैमाने बदलना चाहता था। लेकिन 2014 आते-आते ऐसा लगा कि जनप्रतिनिधियों से उत्तरदायित्व की मांग के लिए खड़ा हुआ वो जनांदोलन जिसने इस मुल्क के हर गली कूचे में सैलाब बनकर कांग्रेस की संस्कृति को बहा कर बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में फेंक देने की कसमें खाने वाले केजरीवाल जैसे नेता खड़े किये थे, वो आंदोलन उन्हीं नेताओं के बंगलों के किसी कमरे में कैद होकर रह गया है। 2014 बीता और नयी सरकारें आयीं और लोगों ने मान लिया कि जनप्रतिनिधियों को उत्तरदायी बनाने की लड़ाई शायद नयी सरकारें चुनने की लड़ाई ही थी। नयीं सरकारें आती रहीं और सिसकी के साथ वो आंदोलन समय के गर्त में वैसे ही दबता गया जैसे किसी ज़माने में जयप्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति का आंदोलन दब गया था। 2014 के बाद चुनाव आये और गए और जनता हमेशा की तरह फिर से वोट देकर घरों में लौटती रही।
ऐसा भी नहीं है कि भ्रष्टाचार कम करने के नए तरीके नयी सरकारों द्वारा अपनाये नहीं गए लेकिन कागज लहराकर नेताओं को जेल भेजने का जो वायदा था वो भुला दिया गया। जनता के बुजुर्गों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह का डायरी लहराकर राजीव गाँधी को जेल भेजने का दावा याद किया और 30 साल की औसत आयु वाले युवा भारत को समझा लिया कि वो अन्ना हज़ारे के पीछे खड़े होकर जिस नयी आज़ादी के नारे लगा रहे थे वो नयी आज़ादी ऐसी ही दिखती थी। लेकिन जब जय प्रकाश नारायण और विश्वनाथ प्रताप सिंह की पीढ़ी नयी पीढ़ी को भी लोकतान्त्रिक नैराश्य को स्वीकार करना सिखा रही थी तभी लोकतंत्र ने अचानक आश्चर्यचकित किया है। शायद लोकतंत्र खुद ही जनता से नए पैमाने गढ़ने को तैयार रहने के लिए आवाज दे रहा है और जब लोकतंत्र जनता के दरबार में आएगा तो इस लगभग 30 वर्षीय औसत आयु वाले लोकतंत्र को तय करना होगा कि उसको अपने बाप दादाओं वाला लोकतंत्र चाहिए या उनमें हिम्मत है लोकतंत्र की रेखा को लम्बा करने की।
लोग कहेंगे कि लोकतंत्र खतरे में है लेकिन आप ये याद रखियेगा कि ये लोकतंत्र किसी नेता और किसी पार्टी के कारण नहीं है, ये लोकतंत्र हमारे और आपके कारण है और आपको जबाबदेह और स्वच्छ लोकतंत्र पाने का अधिकार है। न्यायालयों की तरफ आँखें गड़ाए रखिये।
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