देश की राजधानी दिल्ली के दंगों का एक इतिहास रहा है। वर्ष 1984 और वर्ष 2020 के दंगे तो सभी को याद हैं लेकिन कुछ दंगे ऐसे भी हैं जो समय के गर्त में चले गए और उन दंगों के दौरान निरीह हिन्दुओं पर हुए अत्याचार लोगों को सुनने को नहीं मिले। ऐसे दंगों को सरकारी फाइलों में मजहबी हिंसा के एक कॉलम के नीचे लिखकर रख दिया गया और हिन्दुओं को नए घावों के लिए छोड़ दिया गया।
बात जुलाई 1924 की है, खिलाफत आन्दोलन हाल ही में खत्म हुआ था। जिस तुर्की के सुल्तान को बचाने के लिए भारत के मुस्लिम आन्दोलन कर रहे थे वह हटाया जा चुका था। हर महीने दो महीने पर देश के किसी ना किसी शहर में दंगे होने लगे लगे थे। मोपला में हिन्दुओं का नरसंहार भी हो चुका था। अब बारी राजधानी दिल्ली की थी।
इस बार बकरीद 14 जुलाई को मनाई जाने वाली थी। हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच दंगे की आशंका से भयभीत ब्रिटिश सरकार ने दिल्ली के अंदर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस के साथ-साथ सेना लगा रखी थी। तत्कालीन भारतीय वायसराय लार्ड रीडिंग द्वारा 18 जुलाई को दंगों के विषय में ब्रिटेन की सरकार को भेजा गया टेलीग्राम बताता है कि दंगों की शुरुआत 11 जुलाई को एक अफवाह से हुई। इस टेलीग्राम को ब्रिटेन सरकार में भारत मामलों के उपविदेश मंत्री रॉबर्ट रिचर्ड्स ने संसद के सामने रखा।
वायसराय की रिपोर्ट कहती है कि बकरीद से तीन दिन पहले कुछ मुस्लिम और हिन्दू युवाओं में आपस में बहस हुई। इसको शांत करा दिया गया लेकिन बाद में मुस्लिमों ने युवक की मृत्यु की अफवाह के आधार पर इकट्ठा होकर हिन्दुओं पर हमला कर दिया जबकि हिन्दू इस दौरान शांत रहे। सरकारी आँकड़े के मुताबिक़, मुस्लिमों के इस हमले में 3 हिन्दू मारे गए और 45 गंभीर रूप से घायल हुए। किसी भी मुस्लिम की इसमें जान नहीं गई।
मुस्लिमों का हमला इतना भयानक था कि पुलिस को सेना की मदद लेनी पड़ी और दंगा सेना के आने के बाद भी रात को रुक पाया। इसके बाद दो दिन तक शान्ति रही लेकिन 15 जुलाई को दंगा फिर भड़का। दंगा भड़कने का कारण मुस्लिमों द्वारा जबरदस्ती दिल्ली के सदर बाजार के रास्तों से गायों को काटने के लिए ले जाना था। इन रास्तों पर हिन्दू आबादी रहती थी और इन रास्तों को प्रशासन ने बंद कर रखा था। मुस्लिमों द्वारा इस आदेश अवहेलना की गई और विरोध करने पर फिर से हिन्दुओं की लाशें बिछा दी गईं।
रिपोर्ट कहती है कि कसाई जानबूझकर इस रास्ते पर निकले और इसका विरोध होने पर 8 हिन्दुओं को मौत के घात उतार दिया गया। इस दिन हुए दंगे में एक मुस्लिम की भी मृत्यु की बात कही गई। 44 हिन्दू गंभीर रूप से घायल भी हुए। यह सभी आंकड़े ब्रिटिश सरकार के हैं और निजी तौर पर इलाज के लिए ले जाए गए लोगों की संख्या अज्ञात है।
दंगों को रोकने के लिए फिर से सेना और पुलिस को जुटना पड़ा। पुलिस ने हिंसक भीड़ पर फायरिंग की जिसमें दो व्यक्तियों की मौत हुई। जब मामला शांत हुआ तो मुस्लिमों की दुकाने फिर से खुल गईं लेकिन डरे हुए हिन्दू अगले कई हफ़्तों तक दुकाने नहीं खोल सके। इस दंगे के बाद कई हफ़्तों तक पुलिस और सेना दिल्ली में लगी रही ताकि हिन्दुओं को फिर से निशाना ना बनाया जाए।
28 जुलाई 1924 को ब्रिटेन की संसद में एक बार फिर दिल्ली दंगों का जिक्र हुआ। ब्रिटेन सरकार की तरफ से दी गई जानकारी में बताया गया कि इन दंगों में 16 हिन्दुओं की हत्या की गई है जबकि 1 मुस्लिम युवक की मृत्यु हुई है। ९६ हिन्दू और 4 पुलिस वाले भी इन बकरीद के दंगों में घायल हुए हैं। इन दंगों के पीछे खिलाफत आन्दोलन का बड़ा हाथ बताया जाता है। कहा जाता है कि जब तुर्की के खलीफा का शासन खत्म हो गया तो स्थानीय मौलानाओं ने अपने आप को इस्लाम का रक्षक मान लिया अपने हिसाब से तकरीरें करने लगे।
दिल्ली के इन दंगों के मात्र २ महीने बाद सितम्बर 1924 में तत्कालीन नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (अब पाकिस्तान में खैबर पख्तून्ख्वाह) के कोहाट शहर में अल्पसंख्यक हिन्दूओं के खिलाफ मजहबी हिंसा हुई जिसमें हिन्दुओं को अपना सबकुछ छोड़ कर भागना पड़ा। इन कोहाट के दंगों में 12 हिन्दुओं की मृत्यु हुई और 13 लापता हो गए। हिन्दुओं का नुकसान का कुल आंकडा 155 रहा। बाद में हिन्दुओं को ही इन दंगों का जिम्मेदार ठहरा दिया गया।
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