भारत के प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त 2022 को दिए अपने उद्बोधन में भारत के विऔपनिवेशीकरण (Decolonization) का आह्वान किया। प्रधानमंत्री का सम्बोधन इस सन्दर्भ में विचित्र था कि आखिर भारत औपनिवेशिक शासन से 1947 में मुक्ति पा गया था तो क्या 1947 में मिली आज़ादी उपनिवेशवाद का अंत नहीं थी? आखिर प्रधानमंत्री किस विऔपनिवेशीकरण की बात कर रहे थे, ये विचारणीय प्रश्न है।
हालाँकि उपनिवेशवाद ने भारतीय समाज के हर पहलू को प्रभवित किया लेकिन शासन पद्वति में उपनिवेशी शासकों द्वारा किया गया परिवर्तन सभी परिवर्तनों के मूल में था। अन्य क्षेत्रों में उपनिवेशवाद के कारण आये परिवर्तन या तो शासन पद्वति में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से किए गए थे या शासन पद्वति में परिवर्तन का परिणाम थे। उदाहरण के लिए, शिक्षा के क्षेत्र में उपनिवेशी शासकों द्वारा किए गए परिवर्तन शासन पद्वति को सुचारु रूप से चलाने के लिए आवश्यक श्रम बल के निर्माण के लिए किए गए। इसी तरह उपनिवेश काल में शुरू हुई जनगणना ने भारतीय जाति व्यवस्था के आधुनिक स्वरूप की नींव रखी। वहीं दूसरी तरफ, उपनिवेश काल में शासन पद्वति में आए परिवर्तन ने जातियों को राष्ट्रीय स्वरूप दिया और जातीय राजनीति की नींव रखी। उपनिवेश काल की न्याय प्रणाली ने न्याय व्यवस्था से ग्रामीण आबादी को दूर कर दिया और शहरों और गांव के बीच असमानता की खाई को और चौड़ा किया। उपनिवेशकाल में शासन पद्वति में आए आमूलचूल परिवर्तन को देखते हुए यह उचित है कि विऔपनिवेशीकरण को शासन पद्वति के सन्दर्भ में ही समझने की कोशिश से शुरूआत की जाए।
यहाँ शासन पद्वति के विऔपनिवेशीकरण को समझने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि उपनिवेशवादी शासन पद्वति से क्या तात्पर्य है। शासन पद्वति में उपनिवेशवाद को समझने के लिए मैं महात्मा गाँधी की तरफ देखूंगा क्योंकि उपनिवेशवाद के विचार को समझने के लिए महात्मा गाँधी से बेहतर व्यक्ति शायद ही मिले। महात्मा गाँधी की पुस्तक हिन्द स्वराज उपनिवेशवाद के भारतीय चरित्र का गंभीर विश्लेषण करती है। महात्मा गाँधी के हिन्द स्वराज में दिए विवरण को संक्षेप में रखा जाये तो ये कहा जा सकता है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने स्वायत्त पंचायत आधारित ग्रामीण व्यवस्था को एक केंद्रीकृत शहरी व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया जिसके फलस्वरूप ग्रामीण समाज की ग्रामीण जीवन की दशा दिशा तय कर सकने की स्वायत्तता समाप्त हो गयी। इसका परिणाम ये हुआ कि पहले सामान्य व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करने वाले जो निर्णय गाँव की पंचायत के स्तर पर हो जाते थे, वो निर्णय अब गांव से दूर कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में बैठे ब्रिटिश बाबू कर रहे थे। गांव नई व्यवस्था में लगान देने के स्रोत मात्र हो गए और लगान से उपलब्ध राशि का उपयोग उपनिवेशवादी देश के विकास के साथ-साथ शहरों के विकास के लिए होने लगा। यह स्वायत्त और आत्मनिर्भर ग्रामीणों को शहरी मजदूरों में बदलने की शुरुआत थी। प्रारम्भ में तो कुछ बाबू ग्रामीण पृष्ठ्भूमि से भी रहे होंगे जिनको ग्रामीण परिवेश और ज्ञान की समझ थी लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे बाबूशाही का शहरीकरण होता गया और ये कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। इस प्रकार उपनिवेशीकरण ने भारत में शासन की मूल प्रवृत्ति को ही बदल कर रख दिया जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज की संरचना में मूलभूत परिवर्तन आना प्रारम्भ हो गए।
भारत की आज़ादी के बाद जिस प्रकार का आर्थिक विकास का खांचा नेहरू और महालनोबिस द्वारा बनाया गया, वह भी केंद्रीकृत नियोजन पर आधारित था जिसमें दिल्ली को पूरे भारत की आवश्यकताओं के अनुसार नीतियां और नियम बनाने के अधिकार दे दिए गए। यह व्यवस्था कानूनी तौर पर 90 के दशक में उदारीकरण के शुरू होने के साथ बदली जब संविधान संशोधन के द्वारा ग्रामीण पंचायतों में चुनावी लोकतंत्र स्थापित किया गया और ग्राम पंचायतों को योजनाएं बनाने और लागू करने के अधिकार के साथ साथ कागज पर कुछ सीमित वित्तीय अधिकार भी दिए गए। हालाँकि देश के अधिकांश हिस्सों में अभी भी ग्रामीण निकाय वित्तीय स्वायत्तता से कोसों दूर हैं। यद्वपि इन संविधान संशोधनों के द्वारा स्थानीय निकायों की ग्रामीण प्लानिंग में भूमिका बढ़ी है लेकिन इन परिवर्तनों के बावजूद बाबूशाही की ग्रामीण समाज की जरूरतों के प्रति दृष्टि वैसी ही बनी रही जैसी उपनिवेशवादी शासन में रही या आज़ादी के बाद थी।
सरकारी बाबू भारत के सुदूर गांव में बैठे आम आदमी को मूर्ख समझते रहे और उनको आधुनिकतावादी तौर तरीकों से अवगत कराना अपना कर्त्तव्य समझते रहे। मोदी के आने से पहले तक किसको घर की जरूरत है से लेकर किसको पेंशन मिलेगी और खेतों में क्या उगना चाहिए, बाबू सब तय करता था। केंद्रीकृत प्लानिंग ने बाबूशाही का चरित्र ऐसा बनाये रखा था कि वो मान कर चलता था कि जमीन पर बैठा आदमी खुद के बारे में कुछ सोच ही नहीं सकता और इसलिए उस आदमी के बारे में सोचने की जिम्मेदारी बाबू ने ओढ़ रखी थी।
नरेंद्र मोदी सरकार ने सरकारी बाबू को इसी सर्वज्ञानी होने के भ्रम से बाहर निकालना शुरू किया है। बाबू का सर्वज्ञानी होने का भ्रम टूटना ही विऔपनिवेशीकरण है। ये समझ लेना चाहिए कि संवैधानिक संशोधन के द्वारा स्थानीय निकायों को मिली स्वायत्तता से तब तक बहुत कुछ हासिल नहीं जा सकता जब तक कि स्थानीय निकायों की स्वायत्तता को लागू करने वाले बाबू पंचायतों के अधीन आने वाले लोगों की विकास के प्रति समझ और विकास में उनकी भूमिका न समझें। नरेंद्र मोदी से पहले की सरकारों ने पंचायतों की स्वायत्तता बढ़ाने वाले कानून बनाने को पहले से बने कानूनों को ज्यादा प्रभावी तरीके से लागू करने के ऊपर तरजीह दी। इसका परिणाम ये हुआ कि ग्रामीण जनता की शासन में जो भूमिका होनी चाहिए थी वो नहीं हो सकी।
अपनी बात को ज्यादा बेहतर तरीके से समझाने के लिए मैं मोदी सरकार की कुछ योजनाओं की तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा जिन्होंने पहली बार घर, पानी, बिजली, राशन और शौचालय जैसी ग्रामीण नागरिकों की मौलिक आवश्यकताओं की आपूर्ति सार्वभौमिक कर के इन सेवाओं की उपलब्धता को नागरिकों का अधिकार बना दिया है और इसके लिए सरकार ने संसद में कानून पारित करने जैसा कोई नाटक भी नहीं किया। पहले की सरकारें कानून पारित करके दिल्ली में नाच गाना कर के अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती थीं। सरकार प्रदत्त सार्वजानिक वस्तुओं और सेवाओं की भरपूर उपलब्धता के कारण अब कोई देहाती सरकारी महकमे के आस-पास एक घर के लिए मिन्नतें करते नहीं भटकता बल्कि अधिकार से ये पूछना सीख रहा है कि उसको घर कब मिलेगा क्योंकि उसके आस-पास अधिकांश लोगों को घर मिल रहे हैं या मिल चुके हैं। अब राशन की लाइन में लगा आदमी अपने कोटे का राशन लेने के लिए किसी कोटेदार की मिन्नतें नहीं करता बल्कि अब कोटेदार खुद सुनिश्चित करता है कि हर व्यक्ति को उसके हिस्से का मुफ्त अनाज मिले। ये किसी भोजन के अधिकार का नाटक किये बिना भी पहले की सरकारें कर सकती थीं। नागरिकों के जीवन में आवश्यक वस्तुओं की कृत्रिम कमी बनाकर की जाने वाली राजनीति, जिसमें साल में कितने गैस सिलिंडर मिलेंगे को चर्चा का विषय हुआ करता था, अब इतिहास की बात हो गयी है। लोगों को सरकार द्वारा मिलने वाली सार्वजानिक वस्तुओं और सेवाओं में अधिकारियों की भूमिका को या तो समाप्त कर दिया गया है या कम कर दिया गया है।
सीमित मात्रा में उपलब्ध सार्वजानिक वस्तुएं और सेवाएं बाँट कर ग्रामीणों के माई बाप बनने वाले अधिकारी अब गली-गली पद्म पुरस्कारों के संभावित उम्मीदवारों को ढूंढ रहे हैं और इस क्रम में सामान्य भारतीय जो सरकारी लिपिक नहीं रहा है के सामाजिक योगदान से अवगत हो रहे हैं। पहले जमीन से लेकर आसमान तक बैठे लिपिक आपस में ही ये पुरस्कार बाँट लिया करते थे और भारत के विकास में अपने योगदान की सराहना कर लिया करते थे।
शासन पद्वति के विऔपनिवेशीकरण के बारे में सोचते समय मैं अपने आप से कभी-कभी एक प्रश्न पूछता हूँ जो ये है कि अगर पंचायतों को न्यायिक अधिकार दिए जाएं तो क्या न्यायालयों में मुकदमों की इतनी ही भीड़ होगी जितनी आज है? सोच कर देखिए। मैं ये कतई नहीं कह रहा कि पंचायतों के स्तर पर मामलों का निपटारा कर दिया जाए लेकिन एक प्राथमिक न्यायिक रिपोर्ट तो पंचायत के स्तर पर तैयार की ही जा सकती है जिसका उपयोग आधुनिक न्यायिक तंत्र न्याय देते समय कर सकता है। इससे न केवल न्यायिक प्रणाली पर आम आदमी का विश्वास बढ़ता बल्कि कई ऐसे मामले जो बिना मतलब न्यायालयों में इकट्ठे होते रहे हैं, उनकी संख्या में कमी आती। कुल मिला कर ग्राम पंचायतों को न्यायिक अधिकार देने से न्याय प्रणाली की उत्पादकता ही बढ़ती। खैर इस प्रकार की व्यवस्था अभी दूर की कौड़ी है।
अभी विऔपनिवेशीकरण की शुरुआत हुई है लेकिन इस रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध सरकारी बाबू ही हैं जिनका हित अधिक से अधिक अधिकार अपने हाथों में रखने में है। लेकिन ये समझ लेना चाहिए कि आने वाले समय में अगर स्थानीय संस्थाओं को वित्तीय और न्यायिक स्वायत्तता नहीं दी गई तो देश में विऔपनिवेशीकरण सिर्फ एक सपना ही रहेगा और प्रधानमंत्री ने 2047 में सामान्य नागरिक के जीवन में सरकारी तंत्र के हस्तक्षेप को न्यूनतम करने का जो सपना दिखाया है वो अधूरा ही रह जाएगा।
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