सशस्त्र क्रांति की जिस भाषा को चापेकर बंधुओं ने अंग्रेज़ी सरकार से बदला लेने के लिए इस्तेमाल किया था, वह अपने लिए घातक लेकिन असरदार परिणामों के कारण भविष्य में बहुत प्रभावशाली सिद्ध होने वाली थी। क्रांतिकारियों द्वारा सरेआम किसी अंग्रेज़ अधिकारी की हत्या का यह पहला मामला था। दामोदर हरि चापेकर की शहादत इतिहास में शामिल हो चुकी थी। अब उनकी यह शहादत व्यर्थ नहीं जाने वाली थी। भारत के कोने-कोने में बैठे तमाम युवक इस शहादत से प्रेरणा ले रहे थे।
उन्हीं युवकों में से एक नाम था, विनायक दामोदरराव सावरकर।
वह युवक अपने गाँव में बैठ कर रोज़ अख़बारों और समाचारों का इंतज़ार करता था। उसी एक दिन यह खबर आई थी कि 18 अप्रैल, 1898 को दामोदर भाऊ को फाँसी दे दी गई। कुछ दिन बाद आई एक और खबर ने सावरकर को हिला कर रख दिया। वासुदेव, महादेव और बालकृष्ण का देश की आज़ादी के लिए अपने को न्योछावर कर देना सावरकर को अंदर से गहरे तक झिंझोड़ गया।
उनके दिमाग में अब सिर्फ़ यही था कि यदि देश को स्वतंत्र कराना है तो सशस्त्र विद्रोह का मार्ग अपनाना ही होगा। उनके दिमाग में रह-रहकर यही सवाल उठता था कि भरी जवानी में चापेकर बंधुओं ने इस देश के लिए अपने प्राण त्याग दिए हैं, अपने परिवार को अपने पीछे बिलखने के लिए छोड़ गए हैं लेकिन मैं क्या कर रहा हूँ?
रात को लेटे हुए सावरकर के दिमाग में सिर्फ़ यही घूम रहा था कि,
“क्या मैं सारा जीवन यूँ ही खाते पीते व्यर्थ कर दूंगा? क्या यही उद्देश्य है मेरे जीवन का? नहीं, बिलकुल नहीं, चापेकर बंधुओं का काम अभी अधूरा है। उनकी आख़िरी इच्छा अभी अधूरी है। क्या यह मेरा कर्तव्य नहीं कि मैं उनके अपूर्ण कार्य को पूर्ण करूँ? मुझे उनके द्वारा शुरू किए गए कार्य को पूर्ण करने का संकल्प नहीं लेना चाहिए? क्या होगा ज़्यादा से ज़्यादा? या तो मैं सफ़ल रहूँगा नहीं तो कोशिश करते हुए मृत्यु को गले लगा लूँगा।”
सुबह उठकर विनायक सीधे माँ दुर्गा की प्रतिमा के सामने गए और उनके चरणों में बैठकर हाथ जोड़ लिए। माँ के सामने बैठकर सावरकर अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रार्थना में लीन हो गए।
“हे माँ, भारत की स्वतंत्रता के लिए होने वाले युद्ध में मुझे आपके आशीर्वाद की कामना है। जैसे आपने महाराज छत्रपति शिवाजी के सिर पर अपना हाथ रखा था, वैसे ही मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान कीजिए।”
थोड़ी देर विनायक आँखें बंद किए बैठे रहे और फिर जब वह उठे तो उनकी आँखें लाल थीं। उन आँखों में अब एक कभी ना बुझने वाली अग्नि का तेज था। सावरकर ने अब एक सौगंध लेने की ठान ली थी। वे खड़े हुए और माँ के सामने बोले,
“हे माँ, मैं आज आपके सामने यह सौगंध लेता हूँ कि आज से मेरा पूरा जीवन इस देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित है। आज से मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य होगा और वो है भारत की अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुक्ति।”
“स्वतंत्रता संग्राम के इस मार्ग पर, मैं विनायक दामोदर सावरकर, शपथ लेता हूँ कि मैं गुप्त रूप से अपने समाज को संगठित करूँगा। अपने देशवासियों को शिक्षित करूँगा, उनको स्वतंत्रता के लिए होने वाले युद्ध के लिए तैयार करूँगा। आज से मेरा जीवन सिर्फ़ इसी संघर्ष के नाम है। इस संघर्ष पथ पर अगर मेरी मृत्यु भी हुई तो मैं उसे हँसकर गले लगाऊंगा।”
चापेकर बंधुओं के प्राण त्याग देने के बाद तिलक साहब को भी जेल में डाल दिया गया। उन पर आरोप था कि उन्होंने ही चापेकर बंधुओं को उकसाया है। वहाँ गाँव में सावरकर के अन्दर कभी ना बुझने वाली आज़ादी की अलख जग चुकी थी। उनके दिलोदिमाग से चापेकर बंधु निकलने का नाम ही नहीं लेते थे।
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एक रात जब बेचैनी ज़्यादा ही बढ़ गई तो सावरकर उठे और कॉपी-पेन लेकर बैठ गए। उनका लिखना तब बंद हुआ जब उनके आंसुओं की बूँदों ने कॉपी पर लिखी कुछ लकीरों को बहा दिया। पेन दराज़ में रख, कॉपी लिए सावरकर अपने बिस्तर पर आ गए। वो कुछ देर तक अपना लिखा, पढ़ते रहे और फिर उस कॉपी को अपने सीने से लगाकर सो गए। चापेकर बंधु हमेशा के लिए सावरकर के सीने में समा चुके थे। चापेकर अब सावरकर द्वारा अमर किए जा चुके थे।
कुछ दिन बाद प्लेग विनायक के दरवाज़े आ पहुँचा और पिता श्री दामोदर को लील गया। माँ तो पहले ही जा चुकी थीं, पिता के जाने के बाद अब चारों बच्चे अनाथ थे। अंग्रेज़ी हुकूमत ने अभी भी चापेकर बंधुओं से सबक नहीं सीखा था। वो दामोदर के घर कहर ढाने आ पहुँचे। अंतिम संस्कार से पहले ही घर खाली करने का नोटिस लेकर अंग्रेज़ अधिकारी जब विनायक के घर आए तब तक विनायक के चाचा और छोटा भाई नारायण भी प्लेग से ग्रसित हो चुके थे। उस रात गाँव का एक उजाड़ मंदिर ही सावरकर परिवार का विश्रामस्थल था। यह रात सावरकर परिवार के जीवन की सबसे काली रात बन कर आई और उनके चाचा को भी साथ ले गई।
बड़े भाई गणेश के एक मित्र श्रीयुत दातार को जब इनके बारे में ज्ञात पड़ा तो परिवार, मोहल्ले, सबको अनदेखा कर इन अनाथ बच्चों को अपने घर नासिक ले गए। नासिक पहुँचकर गणेश सावरकर, विनायक और अपनी पत्नी को घर छोड़, बीमार नारायण को लेकर अस्पताल चले गए। गणेश ने जब अस्पताल की बदहाली देखी तो छोटे भाई की देखभाल के लिए वहीं रुक जाने का फैसला कर लिया। विनायक को ज़िम्मेदारी दी गई कि वह रोज़ सुबह आकर दोनों भाइयों के लिए भोजन, कपड़े आदि लेकर अस्पताल आएगा। लेकिन दुर्भाग्य ने अभी भी इस परिवार का साथ नहीं छोड़ा था।
एक रोज़ विनायक भोजन लेकर अस्पताल पहुँचे तो गणेश भोजन का थैला लेने बाहर ही नहीं आए। बड़े भाई गणेश को भी प्लेग निगलने वाला था। उस रोज़ पहली बार विनायक के सब्र का बाँध टूट गया। अस्पताल के बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ कर तब तक रोते रहे जब तक उनके आँसू नहीं सूख गए। विनायक घर आए तो आँखें लाल हो रखी थीं।
भाभी के बहुत पूछने पर आख़िर विनायक अपने को रोक नहीं पाए और बड़े भाई गणेश की बीमारी के बारे में अपनी भाभी को बता ही दिया। दर्जन लोगों का भरा पूरा परिवार कुछ ही दिन में दो लोगों तक सिमट कर रह गया था। आगे आने वाले दिनों में विनायक से जितना हो सका, वह अपने भाइयों की सेवा में लगे रहे और फिर आख़िरकार भाग्य इस अभागे परिवार पर मुस्कुरा ही दिया। गणेश और नारायण प्लेग से बचकर घर वापिस आ गए थे।
हालाँकि कठिन परिस्थितियों के चलते विनायक का मन घबरा सा गया था, लेकिन माँ दुर्गा के समक्ष ली गई प्रतिज्ञा उन्हें याद थी। वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए बेचैन थे। उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अभी भी अंग्रेज़ों से आज़ादी ही था। इन कठिन परिस्थितियों में भी उनके दिमाग में बस अपने उद्देश्य की पूर्ति का ख्याल रहता था। उनको अब नासिक में अपने लिए एक मौके की तलाश थी। एक ऐसा मौका जब वो अपना सब कुछ दाँव पर लगा कर अपनी भारत भूमि को अंग्रेज़ों के चंगुल से आज़ाद कर सकें।
वहीं नासिक में बाबाराव यानि गणेश सावरकर के कुछ नए दोस्त बने थे जिनमे म्हास्कर और पागे भी थे। कहने को तो म्हास्कर और पागे सरकारी नौकर थे किन्तु उनकी राजनीतिक विचारधारा बाबाराव से मिलती थी। म्हास्कर और पागे ईमानदार, देशभक्त तिलकवादी थे जिनके साथ विनायक की अच्छी निभने लगी थी। निभने का एक कारण यह भी था कि म्हास्कर और पागे एस.एम. परांजपे के उन क्रांतिकारी विचारों से आकर्षित थे जिनको विनायक भी अपना आदर्श मानते थे।
परांजपे और सावरकर के राजनीतिक विचार एक समान ही थे किन्तु सामाजिक स्तर पर दोनों की दूर-दूर तक बराबरी नहीं थी। परांजपे और सावरकर दोनों ही शानदार वक्ता थे। परांजपे जहाँ व्यंग्य में माहिर, तो विनायक एक एक जीवंत ज्वालामुखी थे। परांजपे क्रांति का सिर्फ़ सपना देखते थे जबकि सावरकर उसका जीता जागता उदहारण थे।
म्हास्कर और पागे को अपने पाले में लाने के लिए सावरकर को कम पापड़ नहीं बेलने पड़े। राजनीतिक सरोकार पर लंबी चलती बहसों और सामाजिक स्थितियों पर विभिन्न चर्चाओं के बाद आख़िरकार विनायक, म्हास्कर और पागे का मन जीत ही गए।
फिर आया साल 1899 का, जब मित्रमेला नामक गुप्त संगठन के प्रथम तीन सदस्य गोपनीयता की शपथ लेकर देश के लिए मर मिटने को तैयार थे। राजनीतिक विचारधारा, मानसिक दृढ़ता आदि के आधार पर मित्रमेला में सदस्यों की भर्तियाँ होने लगी थीं। मित्रमेला का एक मात्र उद्देश्य भारत की पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता था। सभी साथियों को यह विश्वास था कि पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता पाई जा सकती है और अंग्रेज़ों के चंगुल से भारत को आज़ाद भी कराया जा सकता है। साथ ही इस बात पर सशक्त रूप से ज़ोर दिया जाता था कि अगर ज़रुरत हो तो इसके लिए सशस्त्र विद्रोह से भी पीछे नहीं हटा जाएगा।
मित्रमेला संगठन के नेता बने विनायक दामोदर सावरकर। उनका अब एक ही कार्य था और वो था सदस्यों की शंकाओं और अज्ञानता को दूर कर उनको देशभक्ति और स्वतंत्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित करना। गुमराह, भटके, आवारा युवकों के समूह को उन्होंने कुछ ही दिन में अपने ओजस्वी विचारों से एक राष्ट्रवादी, अग्निवीरों के समूह में परिवर्तित कर डाला था।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई हैं।
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