कोरोना महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध, डॉलर की बढ़ती कीमत और अमेरिका द्वारा वैश्विक व्यापार में दखल के चलते अब दुनिया के कई देश डॉलर (Dollar) में व्यापार करने से बच रहे हैं। डॉलर की विश्व भर में सर्वमान्य मुद्रा की हैसियत भी धीरे-धीरे कम हो रही है। भारत, चीन और रूस समेत कई देश अपनी मुद्राओं में अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं।
डॉलर की बढ़ी हुई कीमतें, घटती उपलब्धता, अमेरिका द्वारा रूस समेत कई देशों पर लगाए गए प्रतिबंध इन सबके पीछे उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं।
भारत ने भी पिछले एक वर्ष में रूस से तेल के व्यापार के लिए रुपए-रूबल (Rupee-Ruble Trade Mechanism) में व्यापार की व्यवस्था को अपनाया है। रूस-यूक्रेन युद्ध आरंभ होने के बाद से भारत लगातार रूस से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल खरीद रहा है।
इसके लिए दोनों देशों के बैंकों ने आपस में समझौते से रिजर्व बैंक के दिशानिर्देश के अनुसार काम किया है।
लोकसभा में 29 मार्च को दिए गए एक उत्तर के अनुसार, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) ने 18 देशों के 60 बैंकों को भारत के बैंकों में विशेष रुपया वोस्ट्रो (Special Rupee VOSTRO Accounts) खाता खोलने की अनुमति प्रदान की है।
इन देशों में जर्मनी, रूस, सेशेल्स, श्रीलंका, ओमान, सिंगापुर, यूनाइटेड किंगडम, तंजानिया, न्यूजीलैंड समेत और अन्य देश भी शामिल हैं।
रूस के अतिरिक्त अन्य भी कई देशों ने भारत के साथ रुपए में व्यापार करने में रूचि दिखाई है। इस बात की पुष्टि भारत के बड़े सार्वजनिक बैंक यूको बैंक के प्रमुख सोम शंकर प्रसाद ने की है।
उन्होंने हाल ही में अपने एक वक्तव्य में बताया कि बांग्लादेश, श्रीलंका और कुछ अफ़्रीकी देश भारत के साथ रुपए में व्यापार करने के इच्छुक हैं।
वर्तमान में यूको बैंक रूस के साथ व्यापार के लिए वोस्ट्रो खातों की सुविधा देता है। भारत ने हाल ही में श्रीलंका से भी रुपए में व्यापार करना चालू किया है। दिसम्बर 2022 में श्रीलंका की सीलोन बैंक ने 1 करोड़ रुपए का पहला लेनदेन पूरा किया था।
दरअसल, डॉलर पर निर्भरता के कारण द्विपक्षीय व्यापार में कई समस्याएं आती हैं। इनमें से सबसे प्रमुख यह है कि जिन देशों पर अमेरिका प्रतिबंध लगाता है उनसे व्यापार करना मुश्किल हो जाता है।
ईरान और रूस इसी का एक उदाहरण हैं। रूस को अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय भुगतान की व्यवस्था स्विफ्ट से भी बाहर कर रखा है।
भारत के अतिरिक्त अन्य देश भी खत्म करना चाहते हैं डॉलर का दबदबा
डॉलर पर निर्भरता मात्र भारत ही नहीं बल्कि अन्य देश भी खत्म करना चाहते हैं। चीन और फ्रांस ने 29 मार्च को ही पहले द्विपक्षीय व्यापारिक सौदे का निस्तारण युआन के माध्यम से किया।
फ्रांस और चीन के बीच LNG गैस के सौदे को युआन मुद्रा में किया गया है। यह सौदा चीन की सरकारी तेल और गैस कम्पनी और फ्रांस की टोटल एनर्जी (Total Energy) के बीच हुआ है।
वर्तमान में चीनी मुद्रा युआन (रेनमिन्बी), डॉलर के पश्चात वैश्विक व्यापार में दूसरी सबसे अधिक प्रयोग की जाने वाली मुद्रा है। रेनमिन्बी (RMB) यूरोपियन यूनियन की मुद्रा यूरो को पीछे छोड़ दिया है।
इस सौदे की खबरों ने वैश्विक स्तर पर वित्तीय जानकारों का ध्यान आकर्षित किया है। इसी के साथ चीन ने दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील के साथ समझौता किया है जिसके तहत दोनों देश डॉलर को छोड़ कर एक दूसरे की मुद्राओं में व्यापार करेंगे।
इस प्रक्रिया को वैश्विक स्तर पर डी-डॉलराइजेशन का नाम दिया गया है। इसके अतिरिक्त, कई अफ़्रीकी देशों ने विदेशी व्यापार को डॉलर के बदले बिटकॉइन(Bitcoin) में भी करने की बात की है। हालाँकि, अभी इसे जमीन पर नहीं उतारा जा सका है।
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दरअसल, पिछले लगभग एक वर्ष से डॉलर के अंतरराष्ट्रीय बाजार में हलचल मची हुई है। इसके पीछे डॉलर की बढ़ी हुई मांग है।
अमेरिका में महंगाई से लड़ने के लिए अमेरिका की प्रमुख वित्तीय नियामक संस्था फेडरल रिजर्व (फेड) लगातार अपनी ब्याज दरें बढ़ाती आई है।
फ़ेडरल रिज़र्व द्वारा ब्याज दर बढ़ाये जाने से पूरे विश्व से निवेशक डॉलर खींच कर अमेरिकी बाजारों में अच्छे रिटर्न के लिए लगा रहे हैं।
निवेशकों के बड़े स्तर पर इस कदम से दुनिया के बाजारों में डॉलर की मांग बढ़ी हुई है और अन्य मुद्राओं की तुलना में इसका भाव लगातर बढ़ा है। ऐसे में विदेशी व्यापार करने के लिए डॉलर की उपलब्धता भी घटी है।
इस कारण से अब अधिक से अधिक राष्ट्र अपनी ही मुद्रा में व्यापार करने को बढ़ावा दे रहे हैं। केंद्र सरकार के मंत्रियों ने अपने विदेशी समकक्षों के साथ भी रुपए में व्यापार करने का मुद्दा उठाया है।
भारत संयुक्त अरब अमीरात (UAE), नाइजीरिया और मलेशिया जैसे देशों के साथ रुपए और इन देशों की स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देने के प्रयास कर रहा है।
अमेरिका पर अब यह आरोप लग रहे हैं कि वह डॉलर को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। कई देशों का मानना है कि अमेरिका अपनी आर्थिक शक्तियों का प्रयोग छोटे देशों पर अपने व्यापारिक और रणनीतिक हित लादने के लिए कर रहा है।
ऐसे में ईरान, इराक, भारत, चीन, ब्राजील समेत अफ़्रीकी देश लगातार डॉलर से दूरी बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
विश्व व्यापार का लगभग 75% से अधिक के लिए लेन-देन में डॉलर का ही इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में डॉलर पर निर्भरता खत्म करने और अपनी मुद्राओं को अंतरराष्ट्रीय व्यापार की मुद्रा बनाने में इन सभी देशों को समय लगेगा।
विश्व के अधिकाँश देशों के विदेशी मुद्रा भण्डार में भी डॉलर का ही बोलबाला है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष(IMF) के अनुसार, वर्तमान में विश्व के देशों के विदेशी मुद्रा भंडार का लगभग 60% हिस्सा डॉलर में हैं।
जबकि अन्य मुख्य मुद्राएं यूरो (EURO), येन (YEN) और ब्रिटिश पाउंड (GBP) हैं। हालाँकि, वर्ष 1980 के बाद से लगातार इसमें कमी आई है।
वर्ष 1980 के समय यह लगभग 75% था जो कि अब घटा है। इस बीच यूरोपियन यूनियन की मुद्रा यूरो ने बढ़त बनाई है। चीन ने भी अपने व्यापारिक प्रभाव का उपयोग करके अपनी मुद्रा रेनमिन्बी को बढ़ावा दिया है।
डॉलर का प्रभाव कम होने के आर्थिक के साथ-साथ रणनीतिक मायने भी हैं।
वर्तमान में अमेरिका अपनी मुद्रा के वैश्विक प्रभाव का उपयोग अपने रणनीतिक हितों की पूर्ति के लिए करता आया है, संसार के अन्य कोई भी देश अपनी मुद्रा का इस तरह से उपयोग नहीं कर पाए हैं।
डॉलर का प्रभाव कम होने से अमेरिका द्वारा लगाए जाने वाले प्रतिबंधों की गंभीरता में भी कमी आएगी। इसका एक उदाहरण रूस द्वारा वर्ष 2014 में डॉलर को रिजर्व मुद्रा कोष से बाहर करना था।
डॉलर के प्रभाव को कम करना राष्ट्रों की आर्थिक संप्रभुता(Financial Sovereignty) को मजबूत करने की दिशा में एक और कदम माना जाएगा।