पश्चिमी देशों से अच्छे सम्बन्ध रखने वाले पूर्वी एशियाई देशों ने पिछले कुछ दशकों में सैन्य और सामरिक हितों की कीमत पर आर्थिक समृद्धि और आत्म-निर्भरता प्राप्त की है। इस सूची में जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, मलेशिया, ताइवान जैसे देश आते हैं।
इस सूची में भारत का नाम भी गाहे-बगाहे सामने आता रहता है परन्तु भारत के सन्दर्भ में यह पूर्णत: सत्य नहीं है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि देश में अभी आर्थिक और सैन्य आत्म-निर्भरता को लेकर एक पैटर्न के मुताबिक कार्य जारी है।
आज़ादी के 75वीं वर्षगाँठ पर जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने Decolonization यानी उपनिवेशवाद का जिक्र किया, उस समय यह निर्धारित करना आसान नहीं था कि किन विषयों को लेकर यह बात कही गई है। हालाँकि धीरे-धीरे वह तमाम बातें अब स्पष्ट होती नजर आ रही हैं। इन बातों में से एक है, Financial Decolonization यानी आर्थिक उपनिवेशवाद की।
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में US डॉलर का दबदबा
अमेरिका ने अपनी आर्थिक शक्ति और मजबूत अर्थव्यवस्था के जरिए दुनिया भर में अपनी मुद्रा (डॉलर) का खूब प्रसार किया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने दुनिया के कुल गोल्ड रिज़र्व के एक बड़े हिस्से का भण्डारण कर रखा था। वर्ष 1944 में हुए ब्रेटन वुड्स समझौते में तय हुआ कि अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के लिए गोल्ड (बुलियन) का प्रयोग व्यावहारिक नहीं है, ऐसे में गोल्ड के बदले यूएस डॉलर का प्रयोग कर अन्तरराष्ट्रीय व्यापार को सरल किया जा सकेगा।
हालाँकि, अन्तरराष्ट्रीय व्यापारिक भुगतान की जरूरत के हिसाब से अमेरिका द्वारा डॉलर की पूर्ति नहीं की जा सकी और कई देशों के केन्द्रीय बैंक, अमेरिका से डॉलर के बदले गोल्ड लेते रहे, जिससे अमेरिका के स्वर्ण भण्डार में जबरदस्त गिरावट दर्ज की गई।
इस समस्या को देखते हुए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने वर्ष 1971 में घोषणा कर कहा कि अमेरिकी डॉलर के बदले कोई भी धातु, मुद्रा (गोल्ड या सिल्वर) प्रतिदेय नहीं होगा और इसी के साथ ब्रेटन वुड्स समझौते पर बनी सहमति भी टूट गई।
उस समय यह अनुमान लगाया गया था कि अमेरिकी डॉलर का दबदबा कम हो जाएगा। हालाँकि, तब अमेरिकी डॉलर कोई विकल्प मौजूद नहीं था, इसलिए यूएस डॉलर की पकड़ मजबूत बनी रही। अमेरिका के एकतरफ़ा निर्णय के बाद अन्तरराष्ट्रीय बाजार में सोने की खरीद-बिक्री के लिए अमेरिकी डॉलर ही पैमाना बन गया। परिणामस्वरूप यूएस डॉलर का दबदबा लगातार बढ़ता गया।
हाल के समय में देखें तो अमेरिकी डॉलर में अन्य देशों की करेंसी के मुक़ाबले गिरावट के साथ सोने के दाम में उछाल देखा जाता है। अन्तरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर की पकड़ का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अमेरिकी फ़ेडरल बैंक द्वारा तय की गई ब्याज दरों का प्रभाव पूरी दुनिया के व्यापार पर प्रत्यक्ष रूप से पड़ता है।
कई बार तो स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि आपसी हितों के टकराव पर अमेरिका अपने फाइनेंसियल सिस्टम्स का उपयोग कर ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ इकनोमिक वॉर’ जैसे प्रयोग भी करता है, जिसमें करेंसी से लेकर SWIFT बैंकिंग पेमेंट सिस्टम भी शामिल हैं। ईरान, रूस जैसे देशों के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों से इनकी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाली चोट ने भी दुनिया के कई देशों के सामने कई उदाहरण पेश किए हैं।
De-Dollarization की माँग
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार भुगतान में यूएस डॉलर की माँग और भूमिका को देखते हुए इसे ‘ग्लोबल रिज़र्व करेंसी’ का टैग दिया गया है। वर्तमान में दुनिया के अधिकांश देश अपने आयात-निर्यात के लिए डॉलर में भुगतान करते या करने को मजबूर हैं। ऐसे में अन्य देशों की करेंसी की वैल्यू यूएस डॉलर के मुक़ाबले लगातार गिरती जाती है।
अब इस स्थिति से निपटने के लिए दुनिया भर में De-Dollarization यानी अमेरिकी डॉलर के एकाधिकार को तोड़ना या कम करना है। कई देशों ने तो धीरे-धीरे यूएस डॉलर पर अपनी निर्भरता को कम करना भी शुरू कर दिया है। कुछ देश फॉरेक्स रिजर्व (विदेशी मुद्रा भण्डार) में अमेरिकी डॉलर से ज्यादा स्वर्ण भण्डार को प्राथमिकता दे रहे हैं।
चीन-रूस ने तो आपसी व्यापार और नैचुरल-गैस ट्रेड के लिए पहले ही अमेरिकी डॉलर का उपयोग करना बन्द कर दिया है। इसी महीने चीन के राष्ट्रपति ने सऊदी अरब के दौरे पर भी द्विपक्षीय व्यापार में कच्चे तेल का भुगतान चीनी करेंसी (युआन) में करने पर सहमति बनी है। वर्ष 2018-19 में ही भारत ने ईरान से कच्चे तेल के आयात का भुगतान अपनी मुद्रा (रुपए) में करने पर सहमति बन रही थी। हालाँकि, अमेरिका द्वारा ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों के बाद भारत को ईरान से तेल खरीद रोकनी पड़ी।
भुगतान की वर्तमान प्रक्रिया और उसकी समस्या
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार भुगतान में वर्तमान प्रक्रिया और उसकी समस्या को एक उदाहरण से समझते हैं। वर्तमान में यदि भारत किसी देश से वस्तु या सेवा आयात करता है तो उसके भुगतान के लिए अपने विदेशी मुद्रा भण्डार से सीधे अमेरिकी डॉलर का भुगतान करना पड़ेगा या फिर भारतीय करेंसी को पहले अमेरिकी डॉलर में कन्वर्ट करवाकर भुगतान करना होता है।
अब समस्या यह है कि भारत को अपने विदेशी मुद्रा भण्डार से डॉलर जैसी हार्ड करेंसी का भुगतान करना होता है, जिससे विदेशी मुद्रा भण्डार में गिरावट आती है। साथ ही, इन भुगतान के दौरान दोनों देशों को रोज़ाना होते करेंसी एक्सचेंज रेट्स में फ्लक्चुएशन और करेंसी कन्वर्जन का भी खर्च उठाना पड़ता है।
भारत के अपने व्यापारिक भुगतान में 60% की हिस्सेदारी अमेरिकी डॉलर की है, विशेष रूप से आयात के रूप में यह हिस्सेदारी 86% की है। ऐसे में भारत की अमेरिकी डॉलर पर निर्भरता को समझा जा सकता है और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आयातित उत्पादों-सेवाओं के साथ बढ़ती डॉलर की माँग से भी भारतीय रुपया लगातार कमज़ोर होता जा रहा है। यही कारण है कि दुनिया की पाँच बड़ी अर्थव्यवस्था में शामिल होते हुए भी भारतीय करेंसी अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले इतनी कमज़ोर है।
अन्तरराष्ट्रीय व्यापार भुगतान के विकल्प के तौर पर रुपया
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने जुलाई माह में इंटरनेशनल ट्रेड सेट्लमेंट्स के लिए रुपी ट्रेड मेकेनिज़्म की शुरुआत की थी। ताकि भारत अपने व्यापारिक साझेदार देशों के साथ भारतीय मुद्रा में भुगतान कर सके। हालाँकि, रूस-यूक्रेन युद्ध के पश्चात रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों के बाद से ही भारत द्वारा रुपी-ट्रेड रूस के साथ प्रारम्भ हो गया था।
कुछ महीनों से अमेरिकी डॉलर के लगातार मजबूत होने से भारत ने श्रीलंका, मॉरिशस, तज़ाकिस्तान, लग्ज़म्बर्ग, सूडान, बेलारूस जैसे कई छोटे-बड़े देशों से ‘रुपी-आधारित’ व्यापार भुगतान को लेकर सहमति बनाने पर विचार किया जा रहा है।
कई देशों ने इस सम्बन्ध में इच्छा भी व्यक्त की है। कुछ बड़े व्यापारिक साझेदारों से गैर-डॉलर ट्रेड मेकेनिज़्म पर बात चल भी रही है, जिनमें सऊदी अरब के साथ रुपी-रियाल ट्रेड मेकेनिज़्म और यूनाइटेड अरब अमीरात से रुपी-दिरहम ट्रेड मेकेनिज़्म भी शामिल हैं।
आरबीआई ने भी रुपए की अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में माँग को देखते हुए एक नियमित ढाँचा तैयार किया। आरबीआई द्वारा जारी एक बयान में कहा भी गया है कि “भारत से निर्यात पर जोर देने के साथ वैश्विक व्यापार के विकास को बढ़ावा देने और भारतीय मुद्रा में वैश्विक व्यापारिक समुदाय की बढ़ती रुचि का समर्थन करने के लिए, यह निर्णय लिया गया है कि निर्यात/आयात के चालान, भुगतान और निपटान के लिए एक अतिरिक्त व्यवस्था की जाए।”
भारत में घरेलू बैंकों में आरबीआई की अनुमति से ‘रुपी वोस्ट्रो एकाउंट्स’ की शुरुआत की गई है, जिससे सम्बन्धित देश के केंद्रीय बैंक के खाते खोले जा सकें। वर्तमान में आरबीआई द्वारा 12 ‘रुपी-वोस्ट्रो अकाउंट्स’ खोलने की अनुमति दी जा चुकी है। फ्रेमवर्क के हिसाब से भारत द्वारा इन देशों से आयातित वस्तुओं के भुगतान के लिए इनके वोस्ट्रो अकाउंट्स में करेंसी एक्सचेंज रेट के हिसाब से भारतीय मुद्रा में भुगतान किया जा सकेगा। निर्यात के दौरान भी इन्हीं अकाउंट्स से ही भुगतान संभव हो सकेगा। इस प्रक्रिया में दो गैर-अमेरिकी या गैर-यूरोपीय देशों से व्यापार में क्रमश: यूएस डॉलर अथवा यूरो पर निर्भरता भी समाप्त हो जाएगी।
रुपया आधारित व्यापारिक भुगतान के फायदे
- इससे कुछेक मुद्राओं की लिक्विडिटी जिनका अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में एकाधिकार है, वह कम होगा।
- भारतीय मुद्रा का अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के लिए उपयोग से इसकी लिक्विडिटी बढ़ेगी और यह भी हार्ड करेंसी के दायरे में आने से मजबूत होगा।
- करेंसी फ्लक्चुएशन और करेंसी कन्वर्जन में लगने वाली लागत की बचत होगी।
- फाइनेंसियल इनोवेशन के क्षेत्र में भारत द्वारा विकसित ई-रुपी, रुपे कार्ड, यूपीआई आदि के लिए दुनिया भर में स्वीकार्यता बढ़ेगी।
- भारतीय मुद्रा में आयात-निर्यात के भुगतान भी सुगम हो सकेंगे।
भारत द्वारा अपनी मुद्रा को विश्व स्तर पर स्वीकार किए जाने के लिए पूंजी प्रवाह और व्यापार को भी उदार बनाना आवश्यक है। इसके अलावा भारत को अपने प्रतिद्वंदियों से कड़ी टक्कर मिलने की काफी सम्भावना है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प है कि ‘डी-डॉलराइज़ेशन’ से उपजी इस खाई को भारत किस हद तक भर पता है।