उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने शुक्रवार को नई दिल्ली में दारा शिकोह की “मजमा उल-बहरीन” के अरबी संस्करण का विमोचन करते हुए कहा कि भारत के पास न केवल अन्य विचारों के प्रति ‘सहिष्णुता’ की गौरवशाली विरासत है, बल्कि सभी विचारों के समन्वय की एक अनूठी संस्कृति भी है। उन्होंने आगे कहा कि आपसी सम्मान की यह भावना अशोक के समय से लेकर मुगल राजकुमार दारा शिकोह तक रही है।
धनखड़ ने कहा कि मजमा-उल बहरीन (जिसका अर्थ है ‘दो महासागरों का संगम’) पंथों के बीच समानता के बिन्दुओं पर प्रकाश डालता है जो पूरी मानवता के लिए प्रासंगिक है। दारा शिकोह प्रतिभाशाली, कुशल कवि, संस्कृत के विद्वान थे और धार्मिक सद्भाव के पथ प्रदर्शक थे। दारा शिकोह द्वारा लिखित पुस्तक ‘मजमा-उल-बहरीन’ हिंदू धर्म (वेदांत) और इस्लाम (सूफीवाद) के बीच समानता के बिन्दु तलाशती है।
इस पर गुरू गोलवलकर के जीवन से एक प्रसंग उल्लेखनीय है कि किसी ने उनसे पूछा, “राष्ट्र की मुख्यधारा में मुसलमानों का स्थान क्या होगा?” तो गुरू गोलवलकर ने इसका सरल सा जवाब दिया, “ये मुसलमान तय करें कि राष्ट्र की मुख्यधारा में वो कैसा स्थान चाहते हैं।” यही स्थान औरंगजेब और दारा शिकोह के द्वंद्व का निर्माण करता है जहाँ स्थान बदल जाते हैं।
सही हीरोज का चुनाव
भारतीय मुसलमानों की समस्या रही है कि वो अपने सही हीरोज का चुनाव करने में शुरुआत से ही असफल साबित हुए हैं। औरंगजेब से लेकर अफजल गुरु तक उसके चुनाव उसे अलग थलग बने रहने पर मजबूर करते रहे हैं, क्योंकि भारत में अलगाववाद नहीं चल सकता। अगर आप देश को चाहने और बनाने वालों की जगह तोड़ने और लूटने वालों को आदर्श बनाते हैं तो अपने आप को धोखा दे रहे होते हैं। हमारी पसंद, चुनाव और लक्ष्य ही हमारा वास्तविक स्थान तय करते हैं।
हिंदुस्तान में रहते हुए भी विदेशियों को अपना हीरो बनाने की परंपरा भारत के सिवाय कहीं दिखाई नहीं देती। यहाँ मजहब और संस्कृति में अंतर करना जरूरी हो जाता है, क्योंकि एक क्षेत्र की हजारों सालों में निर्मित हुई विशिष्ट संस्कृति में समरस होकर भी मजहब को माना जा सकता है।
इसका उदाहरण इंडोनेशिया है, जहाँ आजतक रामलीला का आयोजन किया जा रहा है और वहाँ की एयरलाइन का नाम ‘गरुड’ है। मंगोलिया के लोग भी ग्वंगेश खान का अभी तक सम्मान करते हैं जो मूल रूप से शमन धर्म का अनुयायी था, हालाँकि उसके वंशज मुसलमान हो गए थे। तुर्की में जब मुस्तफा कमाल ने इस्लाम को तुर्क संस्कृति से जोड़ा तो तुर्की ने बहुत जल्दी प्रगति करली, पर अब उस राह से हटने पर फिर नीचे की ओर जा रहा है।
भारतीय मुसलमानों को राष्ट्रीयता से जोड़ने के लिए सबसे पहले ईमानदार प्रयास की जरूरत है। और पहला प्रयास होना चाहिए सही हीरोज का चुनाव। क्योंकि जैसे हमारे आदर्श होते हैं वैसी ही हमें प्रेरणा मिलती है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “सबसे पहले मस्तिष्क को उच्च विचारों, उच्चतम आदर्शों से भर लो, उन्हें दिन रात अपने सामने रखो, तभी महान कार्य सामने आएँगे।” यह संसार में एक नियम की तरह है।
सोचने की बात है कि मुस्लिम मुल्ला मौलवी अपने लोगों पर मंदिर तोड़ने वाले औरंगजेब को क्यों थोपते हैं, क्या दारा शिकोह मुसलमान नहीं था। उन्हें भारत का विभाजन कराने वाला जिन्ना ही क्यों भाता है, क्या राष्ट्रपति अब्दुल कलाम मुसलमान नहीं थे। क्या अरबी प्रतीक चिह्नों के गैरजरूरी प्रदर्शन के बिना इस्लाम नहीं हो सकता है, जो भारतीय चिह्नों को सम्मान दे सके।
दारा शिकोह की फटकार
इस अलगाववाद को फटकारते हुए दारा शिकोह ने ‘सिर्रे अकबर’ (महानतम रहस्य) में लिखा था,
“बहिश्त ओ जा कि मुल्क-ए-न बायद
जि मुल्क शोरो गौगा-ए न बायद”
यानि, बहिश्त(जन्नत) उसी जगह है जहाँ मुल्ले मौलवी नहीं हैं और उनका शोर सुनाई नहीं देता। उन्होंने समय समय पर अपने बेतुके फतवों और अलगाववादी विचारों के पोषण से मुस्लिमों को समाज में अलग-थलग बना दिया है। औरंगजेब के चाहने वालों को आखिर वो समाज कैसे अपना सकेगा जिसे औरंगजेब नेस्तनाबूद करना चाहता था।
औरंगजेब बनाम दारा शिकोह का द्वंद्व इन्हीं मूल्यों के अंतर का द्वंद्व है। दारा शिकोह और औरंगजेब दोनों ही शाहजहाँ के पुत्र थे पर उन दोनों की सोच में रात-दिन का अंतर था। दारा शिकोह सर्वधर्म समादर और भारतीय संस्कृति में विश्वास रखता था वहीं औरंगजेब मजहबी कट्टरपंथी था जिसका लक्ष्य भारतीय संस्कृति को नष्ट करना था।
दाराशिकोह क्यों ?
दारा शिकोह अलग-अलग धर्मों और विचारधाराओं में रुचि रखता था। इसलिए सूफियों से लेकर संन्यासियों और मौलवियों से लेकर पण्डितों तक दारा शिकोह की संगत थी। हिन्दू और इस्लाम के बीच समान बिन्दु क्या हो सकते हैं, इस पर उस समय दारा शिकोह ने गंभीर होकर काम करना शुरू किया और उपनिषदों के एकेश्वरवाद के सिद्धांत ने उसका ध्यान खींचा। यहीं से उसे सूत्र मिला और उसने दो महासागरों का मिलन नाम देकर ‘मजमा-उल-बहरीन’ पुस्तक लिखी।
इसके लिए उसकी मेहनत भी गजब थी, दारा ने 50 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद कराया था। हिन्दू संतों के निकट बैठे हुए दारा के कई चित्र भी हैं। दारा शिकोह 1633 में मुगल युवराज बनने के बाद इलाहबाद से लेकर गुजरात और लाहौर तक का शासक बना पर कंधार में उसकी पराजय हो गई थी। शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर औरंगजेब ने उसकी सहिष्णुता को ही मुद्दा बनाकर इस्लाम को कमजोर करने का आरोप लगाकर उसे काफिर घोषित कर दिया और 1659 में बेरहमी से उसकी हत्या करवा दी।
पर सच तो ये है कि उसने इस्लाम के आधार को कभी नहीं छोड़ा था। दारा शिकोह ने भारतीय संस्कृति और मजहब की महीन रेखा को जान लिया था, जिससे दोनों सुरक्षित रह सकते थे। 9 सितंबर, 1659 को औरंगजेब ने उसके शव को एक हाथी की पीठ पर लाद कर दिल्ली के हर बाजार में घुमाया था और अपने आतंकवाद का पहला खुला परिचय दिया था।
इस घटना पर प्रत्यक्षदर्शी बर्नियर ने लिखा है कि “इस घृणित अवसर पर अपार भीड़ इकट्ठी हुई और हर जगह मैंने देखा कि लोग रो रहे थे और बेहद मार्मिक भाषा में दारा के भाग्य पर अफसोस कर रहे थे। हर तरफ़ से कर्णभेदी और कष्टप्रद चीखें मुझे सुनाई दे रही थीं, क्योंकि भारतीय लोगों का दिल बहुत कोमल होता है; पुरुष, महिलाएं और बच्चे ऐसे क्रंदन कर रहे थे मानो खुद उन पर कोई भारी विपत्ति आ गई हो।” यही भावना भारतीय भावना है जो मत और मजहब से परे है, और जिसे सभी को अपनाना चाहिए।