शक्ति की उपासना का पर्व है और हम दशमी को युद्ध में विजय के रूप में विजयदशमी भी बुलाते हैं। सवाल है कि कहीं ये उपासना केवल पूजा पद्धतियों तक ही सीमित तो नहीं रह गई ? हमने आम जीवन में होने वाले द्वंदों में इस युद्ध को पहचाना है क्या? क्या युद्ध के बदलते स्वरुप पर कभी ध्यान दिया ? इस नजरिये से देखेंगे तो अभी का युद्ध फोर्थ जेनरेशन वॉरफेयर कहलाता है। यह पुराने युद्धों से बहुत अलग इसलिए है, क्योंकि पुराने तरीकों में जहाँ शक्ति का इस्तेमाल पहले होता था यहाँ शक्ति सबसे अंत में प्रयुक्त होती है।
हाल के सैन्य आक्रमणों जैसे वियतनाम युद्ध होना या फिर इराक-अफगानिस्तान पर हमला भी अगर देखेंगे तो पहले ही इसकी जमीन तैयार की गई थी। हमला किसी दिन अचानक नहीं हुआ। महीनों आतंकित किया गया था, इस असली हमले से पहले।
जिन गवाहों ने रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल और अन्य अत्याचारों की गवाही दी थी, वे गवाह भी बाद में फर्जी निकले लेकिन इस से हमला करने वालों को बाद में कोई फर्क नहीं पड़ा। वो जंग भी जीत गए थे और दुश्मनों को मौत के घाट भी उतार दिया था।
अगर जीत को शुद्ध सैन्य विजय मान रहे हैं तो गलती कर रहे हैं। हमलावरों ने अपने विरोधी की हालत ऐसी कर दी कि वो शायद सौ साल तक अगले प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं हो पायेगा।
फोर्थ जनरेशन वॉरफेयर को समझिए
फोर्थ जनरेशन वॉरफेयर को आसानी से समझने के लिए विजुअलाइजेशन का तरीका इस्तेमाल कीजिये। जैसे बच्चे याद करते हैं वैसा। A P P L E को तोड़कर, एक एक अक्षर पढ़ने का और साथ में तस्वीर देखने का तरीका। इसके लिए सबसे पहले तो हमला करने के तरीके में पहले इस्तेमाल होने वाला प्रचार तंत्र का हमला देखिये और उसे छोटे हिस्सों में तोड़ना शुरू कीजिए। ये हमले कितने तरीके के हो सकते हैं ?
पहला तरीका हो सकता है पॉलिटिकल। हालाँकि, चाहे वो रूस हो या कोरिया भारत के लोग, यहाँ बरसों से स्थापित लोकतंत्र के तरीकों पर वामपंथी तानाशाही के चढ़ने का प्रभाव देख चुके हैं। रूस का साम्यवाद के कारण पतन भी देखा है, कोरिया की राजनैतिक-सामाजिक स्थिति भी छुपी नहीं है। और तो और पास के चीन में भी आजादी नहीं होती इस से सब वाकिफ हैं। ऐसे में आप पर राजनैतिक विचारों से हमला करना बेवकूफी होगी।
दूसरा तरीका आर्थिक होता है लेकिन वेनेजुएला की आर्थिक स्थिति से भी आज लोग वाकिफ हैं। वामपंथी शासन जहाँ से गुजरा है, वहां भुखमरी के कगार पर जनता को डालकर ही निकला है।
संस्कृति पर हमला होता है हस्ती पर हमला
ऐसे में जो तरीका इस्तेमाल होता है वो है कल्चरल यानि संस्कृति पर हमला। जैसे आप विवाह नाम की संस्था में विश्वास रखते हैं तो वो कहेंगे ये तो शोषण है ! आप स्त्रियों को आराम से पूज्य कहेंगे तो वो कहेंगे, नहीं ये स्थापित मान्यताओं में जबरन ढालने की कोशिश है। आपके शिक्षा के तरीके उनको पुरातनपंथी लगेंगे। आपकी व्यवस्था को वो दकियानूसी कहेंगे।
यहाँ गौर करना होगा कि इन्हें गलत या बुरा सिद्ध करने के लिए उनके पास तथ्य नहीं होंगे। उकसाने वाले भड़काऊ बयान होंगे। कोई वैज्ञानिक जांच का आधार नहीं होगा, बस तेज शोर में विरोध को दबाने का प्रयास होगा। सबसे आसान, ना पहचान में आने वाला हमला, शब्दों का, सांस्कृतिक हमला होगा।
अब जब हमले को तोड़कर A, P, P, L, E, कर के एक एक अक्षर देख लिया तो अब विजुअलाइजेशन पर आइये। कांसेप्ट याद रखने के लिए तस्वीर भी चाहिए तो भारत पर हमला करने वालों को याद कीजिये। गजनवी या गोरी जैसे हमलावर मंदिरों पर हमला करते थे। मंदिर सांस्कृतिक एकता के केंद्र होते हैं, वहां समाज इकठ्ठा होता है। इसलिए संस्कृति पर हमला उन्होंने भी किया था।
आप उनसे हमलावरों को पहचानना शुरू कर सकते हैं। इन्हें याद करते ही क्या याद आता है ? दाढ़ी ? सबकी दाढ़ी थी। बाबर से औरंगजेब तक को याद करेंगे तो उनकी भी दाढ़ी याद आ जाएगी। वहीँ थोड़े उदार अकबर को याद कीजिये तो उसकी दाढ़ी याद नहीं आएगी। सांस्कृतिक हमलावरों को आप दाढ़ी से याद कर सकते हैं।
चाहें तो थोड़े नवीन इतिहास के सांस्कृतिक हमलावर याद कर लीजिये। क्या याद आता है? लेनिन की दाढ़ी, माओ की, मार्क्स की, फिदेल क्रास्तो की? दाढ़ी के डिजाइन बदले हुए हो सकते हैं लेकिन दाढ़ी तो है! अब हमलावरों से सफलतापूर्वक मुकाबला करने वालों को याद करने की कोशिश कीजिये। उनसे जीतने के लिए मुकाबला करने वालों को भी उन जैसा ही होना पड़ता था। आपको शिवाजी याद आ रहे हों तो उनकी भी दाढ़ी थी। सिक्खों को याद करेंगे तो उनकी भी। अभी के दौर में भी कुछ “साम्प्रदायिक शक्तियां” हैं, वो भी दाढ़ी में!
अब अगर आप सांस्कृतिक हमले को फोर्थ जेनरेशन वारफेयर के तौर पर पहचान पा रहे हैं तो ये सवाल भी आएगा कि इनसे निपटा कैसे जाए? सबसे पहले तो हमलावरों को आइसोलेट किया जाता है। चाहे वो बरखा “राडिया” दत्त जैसे पाक परस्त हों, या दूसरे कोई, उनको सोशल मीडिया पर फॉलो करना बंद कर दीजिये।
फॉलोअर लाख से हजार होते ही उनको वेबसाइट, ब्लॉग, ओपीनियन, एडिटोरियल जैसे काम मिलने फ़ौरन कम हो जाएँगे। इसका असर तुरंत दिखने लगता है। बॉलीवुड तक बॉयकोट का असर महसूस कर रहा है। बदलाव होते ही व्यापारी उनकी किताबों को बेचना तक कम करने लगे हैं। थोड़े दिन की नाराजगी से काम नहीं चलेगा। किले की घेराबंदी जैसा महीनों लड़ाई जारी रखने का मामला है।
भारत के बहुसंख्यक समुदाय को देश के लिए एंग्री यंग मैन से बदल कर एक्टिविस्ट होना पड़ेगा। आम भारतीय के एक्टिविस्ट मोड में आकर बॉयकॉट की अपील करते करते ही लोगों को समझ आने लगा है। बॉयकॉट से पहले तक वो जो कैंसिल कल्चर चलाते थे, उनकी ही भाषा में उन्हें जवाब मिलने लगा है।