भारत ने संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में ग्लोबल साउथ के लिए 2035 तक सालाना 300 अरब डॉलर के नए जलवायु वित्त पैकेज को खारिज कर दिया और इसे ‘बहुत कम, बहुत देर से’ बताया है। ग्लोबल साउथ के देश जलवायु संबंधी नुकसान से निपटने और इससे बचने के प्रयासों का समर्थन करने के लिए तीन वर्षों से 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग कर रहे हैं। भारत ने कहा कि समझौते को मंजूरी से पहले उसे बात रखने का मौका नहीं दिया गया। नाइजीरिया समेत कई अन्य देशों ने भी इस पर भारत का समर्थन किया है। ‘ग्लोबल साउथ’ का संदर्भ दुनिया के गरीब और विकासशील देशों के लिए दिया जाता है। बता दें कि विकासशील और गरीब देश बड़े पैमाने पर जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार विकसित देशों से सहायता माँग रहे हैं, ताकि उन्हें गर्म होती दुनिया से निपटने में मदद मिल सके।
अज़रबैजान में COP29, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए डिज़ाइन किया गया एक वैश्विक जलवायु सम्मेलन था, इसमें शामिल होने वाले लोगों को 65 से अधिक निजी जेट विमानों ने पहुँचाया जो कि पिछले वर्ष की तुलना में दोगुनी संख्या है। इसमें सभी अमीर, मशहूर हस्तियां और कॉर्पोरेट टायकूंस भी शामिल थे। यह इसलिए हास्यास्पद हो जाता है क्योंकि यह दर्शाता है कि जलवायु संकट और इसे पैदा करने वाले अभिजात्य या कुलीन वर्ग के काम करने के तरीक़ों के बीच कितनी दूरी है।
‘कॉप29’ के आख़िरी दिन दुनिया के अमीर देशों ने 300 अरब डॉलर वार्षिक देने की पेशकश की, जो कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा सुझाए गए 390 अरब डॉलर के आंकड़े से कम है। इसमें अमेरिका और यूरोपीय संघ ने कहा कि आज के भू-राजनीतिक हालात और आर्थिक समस्याओं को देखते हुए इससे ज्यादा फंडिंग संभव नहीं है।
दुनियाभर के कुछ देशों ने बीते रविवार को एक विवादित जलवायु समझौते को मंजूरी दी, लेकिन जलवायु आपदाओं का सबसे ज्यादा सामना कर रहे गरीब देशों ने इसे ‘नाकाफी और अपमानजनक’ बताया है। इसमें भारत ने भी प्रमुखता से अपनी बात रखी है। इसमें अमीर देशों ने हर साल क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में 300 अरब डॉलर देने का वादा किया, लेकिन गरीब देशों ने इस फंडिंग को बहुत कम बताया है। बाकू में जब सम्मेलन शुरू हुआ तो इस बात की आलोचना हुई कि सबसे बड़े प्रदूषक देशों के नेता उसमें शामिल नहीं हुए, और दुनिया के ‘गरीब देशों’ ने विकसित देशों के इरादों पर भी संदेह जताया है। हालाँकि गरीब राष्ट्रों की नाराज़गी के बीच इस समझौते को जहां अमेरिका के राष्ट्रपति जो बायडेन ने ‘ऐतिहासिक’ बताया है, वहीं यूरोपीय संघ के जलवायु दूत वॉप्के होकस्त्रा ने इसकी प्रशंसा ‘जलवायु फंडिंग के नए युग की शुरुआत’के रूप में की है।
तक़रीबन दो हफ्तों तक लगभग 200 देशों की बातचीत के बाद अजरबैजान के बाकू में एक स्टेडियम में यह वित्तीय समझौता पास किया, लेकिन भारत ने इसे तुरंत रद्द कर दिया। भारत की प्रतिनिधि चांदनी रैना ने कहा, “यह बहुत ही मामूली रकम है। यह दस्तावेज एक दिखावा है, इससे हमारी समस्याएं हल नहीं होंगी।” भारत के इस बयान को BBC ने अपनी रिपोर्ट में फ्यूरियस स्पीच बताते हुए कहा कि यह इंटेंस फ़्रस्ट्रेशन बरकरार है।
वहीं, सिएरा लियोन के पर्यावरण मंत्री जिवोह अब्दुलई ने कहा कि दुनिया के अमीर देशों में अच्छी नीयत की कमी है। वहीं, नाइजीरिया की प्रतिनिधि निकिरुका मडुकवे ने इसे ‘अपमानजनक’ समझौता कहा है। कुछ देशों ने आरोप लगाया कि अजरबैजान जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को समझने में असमर्थ है। ध्यान देने की बात ये भी है कि ‘कॉप29’ का आयोजक देश अजरबैजान खुद एक बड़ा तेल और गैस निर्यातक देश है। इस सम्मेलन से नाराज़गी जताते हुए मार्शल आइलैंड्स की जलवायु दूत टीना स्टीग ने कहा, “हमें वह नहीं मिला जिसकी हमें जरूरत थी, लेकिन हम खाली हाथ भी नहीं लौट रहे।”
दरअसल जलवायु सम्मेलन विश्व भर के गरीब बनाम अमीर देशों के नज़रिए से देखा जाता है, जहां कुछ विकसित और विकासशील देशों के बीच यह मतभेद रहा है कि जलवायु संकट में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले अमीर देशों को आख़िर इसमें कितनी मदद देनी चाहिए? अमीर देशों ने यह भी कहा कि विकासशील देशों को भी अपनी तरफ से योगदान देना चाहिए। वहीं, जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को समाप्त करने का जो वादा विगत वर्ष दुबई में ‘कॉप28’ में किया गया था, इस बार के समझौते से वह भी हटा दिया गया। इन तमाम नाराज़गियों के बीच 45 गरीब देशों के समूह ने ‘कॉप29’ के परिणाम को यह कहते हुए ‘विश्वासघात’ बताया कि यह समझौता न तो ग्लोबल वॉर्मिंग पर अंकुश लगा सकता है और न ही कमजोर देशों की मदद कर सकता है। वहीं, संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की कोशिश जारी है, लेकिन अभी दुनिया 2.6 से 3.1 डिग्री सेल्सियस तक गर्म होने की राह पर है।
समझौते में 13 खरब डॉलर सालाना का बड़ा लक्ष्य रखा गया है, लेकिन इसका ज्यादातर हिस्सा निजी फंडिंग से आएगा। इस बात का कोई आश्वासन नहीं है कि सरकारों और निजी क्षेत्र, दोनों से जुटाई जाने वाली अपेक्षित धनराशि ग्रांट के रूप में प्रदान की जाएगी। इसके बजाय, वे Loan के रूप में दे सकते हैं, जिसका अर्थ यह है कि विकासशील देशों पर Loan का बोझ बढ़ जाएगा। विरोधाभासों के बीच कई गरीब देशों ने इस बात की भी आलोचना की है कि यह फंडिंग ग्रांट नहीं बल्कि कर्ज के रूप में आएगी।
पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि विकसित देश अपने financial commitments को पूरा करने में विफल रहे जिससे उनके इरादों पर भी सवालिया निशान उठने लगे हैं। सम्मेलन में अमीर देशों ने कहा कि विकासशील देशों को भी अपनी तरफ से योगदान देना चाहिए, वहीं दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषक देश चीन ने कोई अतिरिक्त जिम्मेदारी लेने से इनकार कर दिया और ‘स्वैच्छिक योगदान’ की कंडीशन आगे रखी गई है, जिसका आशय है कि चीन जैसे देश अपनी मर्जी से इसमें योगदान कर सकते हैं।
ग्लोबल साउथ के लिए, COP29 को एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा था – यह एक ऐसा क्षण था, जब दुनिया ने माना कि climate action कोई चैरिटी या दान नहीं बल्कि एक क़िस्म का न्याय है। इसके बाद अब ‘COP29’ ब्राजील में होना तय हुआ है। बता दें कि जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक (CCPI 2025) की रिपोर्ट में भारत दसवें स्थान के साथ बेहतर प्रदर्शन करने वाले देशों में से एक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश होने के बाद भी भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन और ऊर्जा का कम उपयोग किया जाता है, साथ ही भारत ने ग्रीन एनर्जी के इस्तेमाल में तेजी दिखाई है। वहीं, दुनिया में सबसे ज्यादा तेल उत्पादन करने वाले देश इस रिपोर्ट में सबसे नीचले पायदान पर रखे गए हैं, जिनमें रूस 64वें स्थान पर, संयुक्त अरब अमीरात 65वें, सऊदी अरब 66वें और ईरान 67वें के साथ सबसे नीचे रहा।