एक पीढ़ी पहले, मतलब हमारी वाली पीढ़ी तक की बात करें तो हमारी पीढ़ी में ‘रामायण’ कोई पहली बार नहीं पढ़ता था। पहली बार पढ़ना मतलब रामायण से सीता-राम से व्यक्ति का परिचय किसी पुस्तक से नहीं होता था। चाहे पुस्तकों से पढ़ने बैठे हों या टीवी पर देखने का मौका मिल गया हो, ये कथा, इसके मुख्य पात्र आदि हमें पहले से ही पता होते थे। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि दादा-दादी या नाना-नानी बच्चों के साथ खेलते समय, उन्हें बोलना सिखाते हुए भजन करते ताली बजाते और बच्चे उनकी नकल करते अपने आप ही राम-कृष्ण, और दूसरे कई पौराणिक पात्रों से परिचित होते जाते। जिसे ‘बेड टाइम स्टोरी’ कहते हैं, उनमें ऐसी कई कहानियां पता चल जाती थीं। विदेशी फिल्मों या टीवी शृंखलाओं में देखेंगे तो अब भी बच्चे एक किताब लिए माता-पिता को कोई ‘बेड टाइम स्टोरी’ सुनाने कहते मिलेंगे। भारत में श्रुति परंपरा चलती थी, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी ज्ञान सुन-सुना कर आगे बढ़ता था इत्यादि के जुमले उछालते समय कभी ये सोच है कि हमारी अब की पीढ़ी में से ये कथा वाचन की परम्परा कहाँ गई?
स्वयं की ही हम बात करें तो पूरे प्रयास के बाद श्री राम से परिचय के लिए दादा-दादी का सुनाया-रटाया हुआ एकश्लोकी रामायण याद आता है–
आदौ राम तपोवानादिगमनं, हत्वा मृग कांचनम।
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणं ।।
बालि निर्दलम समुद्र तरणं लंकापुरी दाहनं।
पश्चाद् रावण कुम्भकरण हननं एतद्धि रामायणं।।
ये पढ़ना-लिखना सीखने से बहुत पहले ही याद था और रामायण तो बहुत बाद में पढ़ी। ये स्थिति तब है जब हम दसवीं पास करने से पहले ही वाल्मीकि रामायण पढ़ चुके होंगे, अभी संस्कृत से आचार्य स्तर पर हैं। (संस्कृत माध्यम से पढ़ाई करने पर 10+2 पास करने को उपशास्त्री, ग्रेजुएट को शास्त्री, और पोस्ट ग्रेजुएट–एमए को आचार्य कहा जाता है।) एक पीढ़ी पहले तक जिन संस्कारों-परम्पराओं से परिचय परिवार में ही हो जाता था, वो विलुप्त कहाँ होने लगी? ‘बेड टाइम स्टोरी’ की जगह यू-ट्यूब और टीवी को किसने लेने दी? जब टीवी से देखकर अबोध बालक-बालिकाओं को सीखने देंगे तो फिर वो सर्फ के प्रचार वाली बच्ची के ‘दाग अच्छे हैं’ से सीखेंगे। हो सकता है तनिष्क के प्रचार में गोदभराई वाली कहानी से प्रभावित होकर ‘सर्व धर्म समभाव’ का ये मतलब सीखें कि दूसरे तुम्हारे धर्म को झूठा मानेंगे लेकिन उसे दूसरों के मजहब-रिलिजन को आदर देना जारी रखना है। सीधे भगवद्गीता से आने वाले ‘पर धर्मो भयावह’ के बारे में आपने तो बताया नहीं, इसलिए किसी अज्ञात स्रोत से, बिना किसी सन्दर्भ (रिफरेन्स) वाला ‘सर्व धर्म समभाव’ उन्होंने सीख लिया।
भारत के आजाद होने के दौर में ही कॉमरेड पी.सी. जोशी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख हुआ करते थे। उन्होंने उसी वक्त भांप लिया था कि आने वाले दौर में फिल्मों के जरिए किसी विचारधारा को बड़ी आसानी से फैलाया जा सकता है। पी.सी. जोशी के नारों और उनके बंगाल में किए काम से ही उस दौर में ‘इप्टा’ का जन्म हुआ। ऐसा माना जाता है कि तेलंगाना में निजाम के खिलाफ कम्युनिस्टों के सशस्त्र विद्रोह को उन्होंने ही 1946 में हरी झंडी दिखाई थी। पी.सी. जोशी भले बाद में कम्युनिस्ट पार्टी से ‘संशोधनवादी’ बताकर, बेइज्जत करके निकाले गए, लेकिन तब तक उन्होंने कम्युनिस्टों को ये समझा दिया था कि कला-संस्कृति, नाटक-फिल्मों आदि के जरिए आम जनमानस से अपनी बात कैसे मनवाई जा सकती है। इसका परिणाम बाद के भारत में वामपंथी झुकाव वाली फ़िल्में रहीं। ‘मदर इंडिया’ जैसी फ़िल्में बनाने वाले महबूब प्रोडक्शन के बैनर में ही आपको हंसिया-हथोड़ा का कम्युनिस्ट निशान दिख जाएगा। इस दौर तक भारत का एक बड़ा वर्ग फिल्मो को बुरा मानता था। फिल्मों में काम करने वालों को नचनिया-बजनिया और भांड कहकर बेइज्जत किया जाता था। संभवत: ये विचित्र और उल्टी सोच इस्लामिक उपनिवेशवाद से उपजी होगी क्योंकि हिन्दुओं के प्रमुख देवताओं में से एक शिव को नटराज कहा जाता है और श्री कृष्ण भी नृत्य-संगीत–रासलीला के लिए विख्यात हैं।
जब तक आम भारतीय को ये समझ आना शुरू हुआ कि फिल्मों के जरिए उसका ‘ब्रेन-वाश’ किया जा रहा है, तब तक पचास से अधिक वर्ष बीत चुके थे। करीब दो-तीन पीढ़ियों को तो बहकाया ही जा चुका था, साथ ही फिल्म इंडस्ट्री में भी उनकी गहरी पैठ थी। इसी का नतीजा ये होता है कि आज जब ‘द कश्मीर फाइल्स‘ या ‘द केरल स्टोरी’ जैसी फ़िल्में आती हैं, तो पहले तथाकथित समीक्षक उन्हें सिरे से खारिज करते हैं। सड़कों पर विरोध-हिंसा तो झेलनी ही पड़ती है, साथ ही प्रोपोगैंडा भी बताया जाता है। इनसे काम नहीं चलता तो थिएटर में स्क्रीन नहीं मिलती। सरकारें प्रतिबंधित भी करने लगती हैं। ये सब वही लोग कर रहे होते हैं जो बाकी समय ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर खतरे के बारे में लोगों को सचेत करने के सेमिनार करते हैं। जब ऐसे माध्यमों से होने वाले दुष्प्रचार को खुला छोड़ दिया जाएगा और आप अपेक्षा करें कि किशोर-युवा उससे अपने ही दम पर निपट लेंगे, तो इसे निपट मूर्खता के अलावा कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी विकट मूर्खता करने पर तुले लोगों का अक्सर ये तर्क होता है कि किसी को उसके माता-पिता ने तो प्रेम करना सिखाया नहीं, अपने आप प्रेम करना सीख गए। फिर प्रेम के लिए सही व्यक्ति का चुनाव करना स्वयं क्यों नहीं सीखते? किसी गलत व्यक्ति के चक्कर में आईएसआईएस में भर्ती होने कैसे पहुँच जाते हैं?
ये हमें वापस ‘बेड टाइम स्टोरी’ पर ले आता है। अपने परंपरागत कथावाचन के तरीके से नैतिक कथाएँ बच्चों को सुनाना सिखाना किसने बंद किया? बुरा क्या है, सही क्या है, ये बताया ही नहीं तो फर्क करना, सामाजिक व्यवहार बच्चा सीखे कैसे? जिसे ये नहीं बताया गया कि किसी से पूछे बिना, उसकी चीजें उठाकर नहीं लाते, वो बच्चा किसी का खिलौना पसंद आने पर चुरा ले तो गलती पहले उसके माता-पिता की है। बुरे का ‘बॉयकाट’ और अच्छे का समर्थन दोनों केवल सही ही नहीं, आवश्यक भी हैं। इन्टरनेट और सोशल मीडिया के जिस युग में विदेशी विचारधाराओं की पोषक कुछ सरकारें अभी भी फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाती दिखती हैं। पता नहीं क्यों एक आतंकी संगठन आईएसआईएस पर बनी फिल्म उन्हें एक समुदाय विशेष के विरुद्ध लगने लगती हैं। ये सभी वही लोग हैं जो कहते रहे हैं कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता। पता नहीं कैसे अब आईएसआईएस में उन्हें मजहब दिखने लगा है।
ताजा घटनाक्रम से सीखने लायक कुछ है, तो वो आम भारतीय के लिए है। एक तो इससे तथाकथित प्रगतिशीलों का दोमुंहापन देखा जा सकता है और सीखा जा सकता है कि वो दोमुंहे ही होते हैं। दूसरा अपनी व्यवस्था, अपनी परम्पराओं को छोड़कर किसी और के हाथ में ये शक्ति क्यों नहीं देनी वो भी समझा जा सकता है। तीसरा कि पुरानी कथावाचन की परम्पराओं के साथ-साथ हमें नए तकनीक को अपनाने की भी जरुरत है। नृत्य-संगीत को बुरा मानने वाले उपनिवेशवादियों की गुलामी से हम-आप छूट चुके हैं, इसलिए फिल्म-कला के क्षेत्रों में काम करने वालों को, उचित होने पर, सम्मान देना भी सीखना होगा। बाकी सभ्यताओं का संघर्ष जारी है और आपकी युद्ध में रूचि हो न हो, युद्ध को आपमें और आपके बच्चों में बड़ी रूचि है, ये भी याद रखियेगा।
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