किसी कार्य का श्रेय मिलना या श्रेय लेने के लिए भूमिका बनाना दो अलग चीजें हैं। कार्य करने का दायरा जहां सीमित रहता है वहीं भूमिका के विस्तार की सीमा बहुत बड़ी है। इसका उदाहरण हाल ही में चंद्रयान-3 की लॉन्चिंग के दौरान देखने को मिल चुका है। चंद्रयान-3 के सफल लॉन्चिंग के बाद से ही पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की तस्वीरें शेयर होना शुरू हो गई जिसमें बताया गया कि इसरो की स्थापना उन्होंने की थी। अब क्योंकि कथित रूप से स्थापना उन्होंने की है तो आज के सभी स्पेस कार्यक्रमों का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। यह विचार नेहरूवाद के सिद्धातों से निकलकर ही सामने आता है जिसमें देश की उपलब्धियों पर पहला अधिकार गांधी परिवार का और श्रेय नेहरू को मिलना चाहिए। नेहरूवाद का यह सिद्धांत यह मानकर चलता है कि इसरो की स्थापना पंडित नेहरू ने न की होती तो भावी प्रधानमंत्री इस दिशा में कोई कदम नहीं उठा पाते। या भावी प्रधानमंत्रियों ने इस दिशा में काम किया तो उसकी प्रेरणा नेहरू जी से ही मिली थी। इसरो की स्थापना डॉ. विक्रम ए. साराभाई ने की थी पर केसी वेणुगोपाल इस विषय की व्याख्या इस प्रकार करेंगे कि इसरो पंडित नेहरू की देन था। इसके बाद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और फिर मनमोहन सिंह ने इसे आगे बढ़ाया।
वेणुगापोल की सूची में नेहरूवाद से पृथक पहचान रखने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी शामिल नहीं है। ऐसे में गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों का योगदान नहीं देख पाना उनकी नेहरूवाद के प्रति ईमानदारी का परिचायक है। पंडित नेहरू को श्रेय देना सिर्फ विरासत को आगे बढ़ाने के लिए नहीं है बल्कि नेहरूवाद को वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में स्थापित करने का प्रयास है। कांग्रेस के लागातर सिमटते दायरे में इस सिद्धांत को अलग-अलग कार्यों में परोसना यह याद दिलाने के लिए है कि भारत का संचालन नेहरूवियन सत्ता के आधार पर ही हो सकता है और वह सत्ता उनके वंशजों के पास ही है।
चंद्रयान मिशन की शुरुआत वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में हुई। सोमायन नाम को बदलकर चंद्रयान करते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि देश एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है और चंद्रमा पर कई खोजपूर्ण यात्राएं करेगा। नेहरूवियन सत्ता के प्रारूप को स्वीकार कर कांग्रेस के झंडाबरदारों ने देश की उपलब्धियों में किसी अन्य का नाम जोड़ने से इंकार कर दिया है। यह किस फासिस्ट विचारों की उपज है इसपर पर विमर्श के लिए शायद ही कोई तैयार हो। पर इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि चंद्रयान मिशन में इसरो की स्थापना के जरिए श्रेय की बात करने वाले वाजपेयी सरकार के प्रयासों को धूमिल करने का प्रयास क्यों कर रहे हैं?
इसरो की स्थापना न होती तो चंद्रयान मिशन न होता। यह चयनित जानकारी भ्रम पैदा करने के अलावा कोई अन्य लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकती। अगर इसरो की स्थापना से चंद्रयान का श्रेय पंडित नेहरू को जाता है तो यह भी सत्य है कि चंद्रयान मिशन की सफलता की नींव वाजपेयी सरकार ने 21 वर्ष पहली ही रख दी थी। वाजपेयी सरकार में विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व काम हुए। आज जब श्रेय देने की बात हो ही रही है तो यह जरूरी है कि वाजपेयी सरकार को परमाणु परीक्षण के साथ-साथ क्रायोजेनिक इंजन का श्रेय भी दिया जाए जो कि चंद्रयान-3 की सफलता के लिए जरूरी था।
चंद्रयान-3 अपने ऑर्बिट में पहुंचने की यात्रा पर है। संभवतया 25 अप्रैल तक यह अपनी यात्रा पूरी करके अपने गंतव्य पर पहुँच जाएगा। वर्ष, 2008 में शुरू हुआ यह सफर चंद्रयान-1 से चंद्रयान-3 की यात्रा तक पहुँचना इसरो और देश के लिए अभूतपूर्व उपलब्धि का पर्याय रहा है। चंद्रयान-3 को शक्तिशाली जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (जीएसएलवी) एमके-III रॉकेट के द्वारा एक लैंडर और रोवर को चंद्रमा की ओर भेजा है। इस रॉकेट का पहला चरण यानि चंद्रयान-1 जब भेजा गया था तब वो ठोस ईंधन द्वारा संचालित था। दूसरे चरण में तरल ईंधन और तीसरे और अंतिम चरण में तरल हाइड्रोजन और तरल ऑक्सीजन द्वारा संचालित क्रायोजेनिक इंजन का प्रयोग किया गया है। यही इंजन वाजपेयी सरकार की देन है जिसकी चर्चा चंद्रयान मिशन की सफलता में श्रेय लेने वालों में नहीं हुई है।
क्रायोजेनिक इंजन की यात्रा
क्रायोजेनिक इंजन प्राप्त करने की कोशिश भारत ने 1987 के आस-पास से हुई शुरू कर दी थी। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में क्रायोजेनिक इंजन परियोजना के प्रमुख वी ज्ञानगांधी ने जर्मन कंपनी से हाईड्रोजन प्लांट की बात करने के बाद क्रायोजेनिक इंजन की महत्ता को समझा और 1988 से इसपर प्रयोग करना आरंभ कर दिया।
सैटेलाइन को भूस्थैतिक ऑर्बिट में स्थापित करने के लिए क्रायोजेनिक इंजन नितांत आवश्यक होते हैं पर इन्हें बनाने की तकनीक देश के पास नहीं थी। भारत ने इंजनों को प्राप्त करने की कोशिश की तो अमेरिकी फर्म जनरल डायनेमिक्स ने सबसे पहले ऊंची कीमत पर पेशकश की और इसके बाद फ्रांस ने भी ऐसा ही किया। हालांकि रूस ने भारत को उचित मूल्य पर इंजन की पेशकश की और भारत ने 1991 में दो इंजनों और प्रौद्योगिकी के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए।
इसके बाद अमेरिका ने न्यूक्लियर मिसाइल में इंजनों के प्रयोग की आशंका जताकर रूस को प्रतिबंधित कर दिया जिससे भारत को बड़ा धक्का पहुँचा था। यह विकट समय था जब देश ने सिर्फ विज्ञान के क्षेत्र में पिछड़ रहा था बल्कि भू-राजनीतिक संबंध भी अधरता में झूल रहे थे।
हालांकि, 1991 में भारत को इंजन बनाने की तकनीक तो हासिल नहीं हो पाई पर रूस ने 7 इंजन भारत को दिए जिसपर वैज्ञानिक शोध करने लगे। यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि जिस प्रकार इन्कोस्पार का जिक्र कर इसरो का श्रेय नेहरू को दिया जा रहा है उसी प्रकार इन्हीं 7 इंजनों को आधार बनाकर क्रायोजेनिक इंजन का श्रेय नरसिम्हा सरकार को दे दिया जाता है। यह कोई मानवीय भूल नहीं नेहरूवियन सिद्धांत की ही एक कड़ी है जिसमें चयनित जानकारी को आधार बनाकर श्रेय लिया जाता है। यही सिद्धांत इंजन लेने और इंजन की तकनीक हासिल करने में फर्क नहीं कर पाता है।
भारतीय विकास की ओर दुनिया के कथित नेतृत्वकर्ताओं को निराशाजनक रवैए ने इस संभावना को जन्म दिया कि क्रायोजेनिक इंजन को देश में ही बनाया जाना चाहिए। इस दिशा में काम करते हुए इंजन निर्माण का पहला परीक्षण वर्ष, 2002 में किया गया। 2003 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद भवन में घोषणा की कि देश को क्रायोजेनिक इंजन प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करने के बाद हम अपने दम पर सफलतापूर्वक क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने में सफल रहे हैं।
उच्च प्रदर्शन और दक्षता प्राप्त करने के लिए क्रायोजेनिक इंजन का उपयोग अंतरिक्ष तक पेलोड पहुंचाने और पहुंचाने के लिए यह महत्वपूर्ण है। 2014 में जीएसएलवी-डी 5 सैटेलाइट के लॉन्च के दौरान पहली बार स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया था। चंद्रयान-2 के दौरान सामने आई परेशानियों के बाद यह आवश्यक था कि मिशन की सफलकता के लिए उच्च श्रेणी की तकनीक का इस्तेमाल किया जाए। भू-राजनीतिक परिस्तितियों को देखते हुए भारत के आत्मनिर्भर बनने के इस निर्णय ने यह संभव बनाया कि आज देश में चंद्रयान-3 की सफल लॉन्चिंग का साक्षी बना।
पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी के अनुयायी चंद्रयान मिशन पर वाजपेयी सरकार का ठप्पा लगाने क्यों नहीं आए यह भी देखा जाना चाहिए। इसका एक कारण उनके राजनीतिकरण का डर हो सकता है। वाजपेयी को श्रेय देना वैज्ञानिकों के प्रयासों को कम करने जैसा और राजनीति से प्रेरित लगता है। पर इसरो की स्थापना में नेहरू जी का योगदान ही वैज्ञानिकों के लिए एकमात्र प्रेरणा का स्त्रोत है।
आगामी दिनों में जब भारत चंद्रमा पर मिशन की सफलता की घोषणा करेगा तो फिर से एक आवाज उठेगी और बताएगी कि यह किस प्रकार नेहरू जी के आइडिया ऑफ इंडिया का हिस्सा है। देश के पहले प्रधानमंत्री के तौर पर अनेक निर्णयों का श्रेय पंडित नेहरू को मिलना स्वाभाविक है। अब चाहे यह डॉ. विक्रम ए. साराभाई की दूरदर्शिता पर 1962 में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (इन्कोस्पार) को स्थापित करना रहा हो या कथित भूखमरी की बात कहकर PL 480 के गेंहू भारत लाना। नेहरूवियन सिद्धांत के पक्षधारों के लिए यह संभव नहीं है कि वे श्रेय की लड़ाई में भी विकल्प ढूंढ़ने का प्रयास करें। क्योंकि जब-जब यह सेलेक्टिव राजनीति से संचालित श्रेय की लड़ाई सामने आएगी तब उपलब्धियों के साथ विफलताओं की जिम्मेदारी पर भी चर्चा की जाएगी। क्या नेहरूवादी इसे स्वीकार कर पाएंगे?
यह भी पढ़ें- फैक्ट चेक: ISRO में ईंटें भी नेहरु जी ने लगाई थी, सच्चाई क्या है?