आज संविधान दिवस मनाया जा रहा है। परसाई जी ने अपने एक लेख में लिखा था, दिवस कमजोर का मनाया जाता है। परसाई जी ने जब यह लिखा था, तब संविधान दिवस मनाने का चलन नहीं था। यदि होता तो वे अवश्य लिखते कि दिवस कमजोर का मनाया जाता है लेकिन संविधान दिवस के अलावा। कारण यह है कि हमारा संविधान कमजोर कभी नहीं रहा।
आज 26 नवम्बर को संविधान दिवस इसलिए मनाया जा रहा है, क्योंकि इसी दिन वर्ष 1949 में संविधान को स्वीकार किया गया था। स्वीकार करना, अर्थात संविधान के प्रारूप को स्वीकार करना। वैसे संविधान को पूर्णतः 26 जनवरी, 1950 को लागू किया और इसलिए हम गणतंत्र दिवस मनाते हैं।
दो महीने का यह समय नीति-निर्माताओं ने इसलिए लिया, क्योंकि वे चाहते थे कि संविधान उसी दिन लागू किया जाए, जिस दिन वर्ष 1930 में स्वतंत्रता सेनानियों ने रावी नदी के तट पर तिरंगा लहरा कर स्वराज्य की संकल्पना स्वीकार की थी।
पहले, संविधान दिवस को कानून दिवस के रूप में मनाया जाता था। वर्ष 2015 में संविधान से जुड़े डॉ अम्बेडकर के 125वें जयंती वर्ष के रूप में 26 नवम्बर को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने संविधान दिवस के रूप में मनाने की अधिसूचना जारी की।
आज 72 वर्ष पूरे हो चुके हैं। संविधान को लेकर कई वर्षों तक पहले संविधान सभा में बहस हुई, फिर स्वतंत्र भारत में यह बहस अनवरत चलती ही रही। कभी सुधार करने के आशय से संशोधन हुए तो कभी कुछ मुद्दों को लेकर संविधान सभा की ही आलोचना। चूँकि, संविधान सभा के प्रतिनिधि जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुने गए थे, इसलिए कई लोगों ने प्रस्तावना के “हम भारत के लोग” को ही हास्यास्पद बता दिया।
खैर, आज देश सफलतापूर्वक विश्व का सबसे बड़ा स्थापित लोकतंत्र है तो इसलिए क्योंकि इस देश की आत्मा संविधान में निहित है। यह इसलिए भी सफल है क्योंकि, संविधान निर्माताओं ने इस दस्तावेज में लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पेश की थी। आइए जानते हैं कि संविधान के भाग 4 में निहित नीति निदेशक तत्व राष्ट्र के लिए कितने कल्याणकारी रहे और सरकारों ने इन्हें किस रूप में स्वीकार किया।
नीति निदेशक तत्वों में मुख्य अनुच्छेद 38 की बात करें जो राज्य के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने की बात करता है।
आजादी के बाद सामाजिक न्याय की दिशा में सबसे बड़ा कदम पिछड़े, दलित एवं वंचित लोगों के लिए आरक्षण का था। जिसे देश की सभी सरकारों ने बखूबी लागू किया और इसी दिशा में वर्तमान सरकार ने भी एक कदम आगे जाकर आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था कर आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास किया।
आर्थिक न्याय में जरूर देश की स्थिति समय के साथ मजबूत हुई है। देश 70 के दशक के गरीबी हटाओ के नारे को आज हकीकत बनाने का प्रयास कर रहा है। वहीं, जिनको इतिहास में भेदभाव की नज़र से देखा गया, उन्हें इसी राष्ट्र में मुख्य संवैधानिक पद पर नियुक्त किया गया। मुस्लिम हो या दलित या फिर वनवासी, इसी राष्ट्र के राष्ट्रपति बने हैं।
नीति निदेशक तत्वों में श्रमिकों के लिए भी कई अनुच्छेदों में प्रावधान किया गया। श्रमिकों के लिए सरकारें निरन्तर प्रतिबद्ध रहीं। 21वीं सदी के भारत की बात करें तो श्रमिकों के लिए अटल सरकार द्वारा सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना लाई गई। इसी क्रम को जारी रखते हुए यूपीए सरकार ने भी मनरेगा के जरिए श्रमिकों को लाभ पहुँचाया।
अनुच्छेद 41 में एक विषय जिसे किसी भी सरकार ने अधिक तवज्जो नहीं दिया, वह था विकलांगता के मामलों में कार्य करने की इच्छा शक्ति। भारत सरकार द्वारा विकलांग को दिव्यांग कहना एक शब्द परिवर्तन से बढ़कर रहा। सार्वजनिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर आयुष्मान भारत अनुच्छेद 47 के निर्देशों को प्रासंगिक बनाता है। वहीं, स्वास्थ्य के मोर्चे पर देश की सबसे बड़ी उपलब्धि रही फ्री वैक्सीन।
अनुच्छेद 47 लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाने की बात करता है। देश की खाद्य सुरक्षा सदैव एक बड़ा विषय रहा है, जहाँ शास्त्री ने हरित क्रांति के माध्यम से देश को खाद्यान संकट से निकाला वहीं अटल सरकार ने दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य सुरक्षा योजना (अंत्योदय अन्न योजना) शुरू की।
संविधान के नीति निदेशक तत्वों में स्वास्थ्य और पोषण स्तर के अलावा शिक्षा की बात की गई थी। शिक्षा के क्षेत्र में 21वीं सदी के भारत में जहाँ अटल सरकार द्वारा सर्व शिक्षा अभियान से शिक्षा क्रांति लाई गई। वहीं कॉन्ग्रेस सरकार ने शिक्षा का अधिकार लाकर इस मुहिम को आगे बढ़ाया।
फिर 2014 में मोदी सरकार ने बेटी बढ़ाओ बेटी पढ़ाओ से शिक्षा के साथ बच्चों के विकास पर कार्य किया। जिसकी बात हमारे नीति निदेशक तत्व में अनुच्छेद 45 में की गई, जिसमें लिखा है कि सभी बच्चों को 6 वर्ष की आयु पूरी करने तक प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा प्रदान करना।
समान नागरिक संहिता
सबसे अधिक बहस का विषय बनने वाले अनुच्छेद 44 को लागू करने के प्रयासों में अब तेज़ी दिख रही है। जहाँ पिछली सरकारें इस तुष्टिकरण के चलते इस मुद्दे पर चुप रहीं वहीँ वर्तमान केंद्र सरकार ने उत्तराखंड एवं गुजरात राज्य में समान नागरिक संहिता को लागू करने के प्रयास आरंभ कर दिए हैं।
इन सभी विषयों के अलावा एक महत्वपूर्ण विषय को नहीं भूलना चाहिए जहाँ कार्यपालिका एवं न्यायपालिका को अलग करने के लिए कदम उठाने की बात कही है। यह अनुच्छेद तब और अधिक प्रासंगिक हो जाता है जब माननीय सुप्रीम कोर्ट भारत सरकार द्वारा नियुक्त किए गए चुनाव आयुक्त पर भी सवाल उठाने लगता है।
नीति निदेशक निर्देशों को सरकारों ने अपनाया और अपनी-अपनी क्षमतानुसार लागू करने के प्रयास भी किए और जो सरकारें लागू नहीं कर पाईं, उन्होंने इसके अपरिवर्तनीय होने का बहाना सामने रखा। चुनाव जीतने के बाद देश के प्रधानमंत्री लोकतंत्र के मंदिर,संसद की सीढ़ियों पर माथा टेकते हैं और फिर संविधान के सामने शीश भी झुकाते हैं।
अभी तक विभिन्न सरकारों द्वारा इन दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए प्रयास तो किए गए पर यह भी कहा जा सकता है कि कुछ को लागू करने में अधिक समय लगा। आज जब देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात भी न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणी के बाद होती है।
संविधान में लिखे कुछ नीति निर्देशों को लागू करने की बात पर सरकारें बहस से बचने की कोशिश करती रहीं। जैसे-जैसे लोकतंत्र परिष्कृत होता जाता है, वैसे-वैसे सरकारों के लिए और देर करना मुश्किल होता जाता है।