स्वामीनारायण संप्रदाय के खान-पान पर आम आदमी पार्टी के नेता गोपाल इटालिया की अशोभनीय टिप्पणी के साथ ही गुजरात चुनावों में एक नया विवाद उठने लगा है।
इस विवाद के साथ ही मेरा ध्यान ‘साम्प्रदायिक’ शब्द पर जाता है। धर्म के हिसाब से देखें तो स्वामीनारायण संप्रदाय के लोग भी हिन्दू ही लिखेंगे लेकिन ‘संप्रदाय’ विशिष्ट हो जाता है। इसकी तुलना में जब आप अख़बारों में देखेंगे तो दंगो के समय क्या लिखा मिलता है?
समाचार के करीब-करीब सभी माध्यम दंगों को सांप्रदायिक दंगा बुलाते हैं। जब मजहबी या रिलीजियस आधार पर वैमनस्य की बात होती है, तो उसे भी ‘साम्प्रदायिकता’ बुलाने की परिपाटी है। वास्तविकता देखें तो हिन्दुओं का एक संप्रदाय दूसरे से लड़ता हुआ तो इन तथाकथित ‘सांप्रदायिक दंगों’ में दिखता ही नहीं।
असल में ये दिक्कत अनुवाद की दिक्कत है। अंग्रेजी में ऐसे वैमनस्य या फसाद की बात करने के लिए ‘कम्युनल’ शब्द इस्तेमाल होता था। इसके अलावा उन समाजों में भी एक ही मजहब-रिलिजन के लोग एक दूसरे से लड़ते नजर आ जाते थे।
प्रोटेस्टेंट और कैथोलिक समुदायों में लम्बे समय तक लड़ाई रही। यहाँ तक कि कुछ ही समय पहले, ‘आल सोल्स डे’ पर 2 नवम्बर, 2022 को जब रोहतक, हरियाणा में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट पादरी एक दूसरे से मिले तो ये एक बड़ी खबर थी।
मुख्य धारा में बिकने वाले समाचारों का ध्यान इस घटना पर कम गया, लेकिन जिनका मजहबी-रिलीजियस मुद्दों पर ध्यान रहता है, उनको इसकी खबर थी। ‘द डेल्ही ब्रदरहुड सोसाइटी’ नाम की संस्था अलग-अलग मजहबों और अंतर-साम्प्रदायिक संगठनों को सेमिनार-बैठकों के जरिए एक मंच पर साथ लाने का प्रयास कर रही है।
दूसरे मजहबों पर गौर करने से भी नजर आ जाएगा कि जिन्हें ‘साम्प्रदायिक’ कहा जा सके ऐसी वारदातें हुई हैं। केवल भारत के इतिहास में देखें तो ‘ताराज ए शिया’ की दस बड़ी घटनाएँ दर्ज मिलती हैं।
पंद्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के बीच ताराज ए शिया 1548, 1585, 1635, 1686, 1719, 1741, 1762, 1801, 1830, और 1872 में दर्ज किया गया है। कश्मीर से शिया समुदाय का इन्हीं घटनाओं में करीब-करीब सफाया हो गया था। पूरे भारत में जो ताजिये का जुलुस नजर आता है, उसपर अलग संविधान और अलग कानूनों की वजह से कश्मीर में लम्बे समय तक प्रतिबन्ध रहा।
हाल में जब दो विधान, दो निशान और दो संविधान को समाप्त कर के जम्मू-कश्मीर में बाबा साहेब आंबेडकर का समानता वाला संविधान लागू हुआ, तब जाकर ऐसे नियमों से मुक्ति मिली।
साम्प्रदायिकता की बात गुजरात में चुनावी हलचल शुरू होते ही इसलिए भी शुरू हो जाती है, क्योंकि आयातित विचारधारा वाला एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो गुजरात की बात ही 2002 से शुरू करने पर तुला होता है।
ये समुदाय भारत को कभी ये याद नहीं दिलाता कि गुजरात में 2002 से काफी पहले से दंगे होते रहे हैं। जिस गोधरा कांड में 23 महिलाओं और बच्चों समेत तीर्थयात्रियों को जला देने से ये दंगे शुरू हुए, उसे भी कुछ लोग याद नहीं करना चाहते। हाँ ये जरूर है कि अब्दुल लतीफ जैसे बड़े तस्कर और खूंखार अपराधी का महिमामंडन करने के लिए ये गिरोह, ‘रईस’ जैसी फिल्में बनाते हैं।
जहाँ ‘साम्प्रदायिक’ शब्द ही दंगों के सन्दर्भ में एक गलत प्रयोग है, वहाँ इस शीर्षक से शुरू होने वाली बातों के आगे सही होने की कोई संभावना भी नहीं बचती थी। शब्दों के गलत प्रयोग में ‘भक्त’ शब्द का प्रयोग हम लोगों ने हाल ही में देखा है, इसलिए इनसे पहले कभी सही होने की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए थी।
चूँकि, हिन्दुओं में एक संप्रदाय दूसरे से लड़ता नहीं दिखता, इसलिए कहा जा सकता है कि धर्म परिवर्तन उन दंगो का कारण रहा है जो वास्तव में एक ही मजहब-रिलिजन के लोगों के बीच होने के कारण साम्प्रदायिक थे। संभवतः यही कारण होगा कि गाँधी जैसे अहिंसावादी घर-वापसी का समर्थन करते हुए लिखते हैं-
“अगर भय, दबाव, भूखमरी, या किसी आर्थिक लोभ अथवा फायदे के लिए कोई दूसरी आस्था की ओर चला गया है तो उसे धर्म परिवर्तन कहना गलत है। मेरी समझ में अधिकांश धर्म परिवर्तन खोटे सिक्के हैं। इसलिए बिना किसी हील-हुज्जत के मैं ऐसे सभी हिन्दू प्रायश्चित्त करने वालों को वापस हिन्दुओं में सम्मिलित कर लेना चाहूँगा। अगर कोई व्यक्ति आपनी मूल शाखा की ओर लौटता है तो उसका उसी तरह स्वागत किया जाना चाहिए जैसे सुबह का भूला, शाम को घर लौट आये और अपनी गलती का पश्चाताप करके पुन: कुमार्ग पर न बढ़े तो होना चाहिए।” (गाँधी के संकलित कार्य भाग 66, पृष्ठ 163-164)
साम्प्रदायिकता शब्द की थोड़ी सी जाँच ही हमें इस तथ्य पर ले आती है कि एक तो ये शब्द गलत है, ऊपर से जिन कारणों से ये साम्प्रदायिकता फैलती है, उस धर्म परिवर्तन के विरुद्ध तो गाँधी जैसे विचारक भी रहे हैं।
हाल में धर्म परिवर्तन सम्बन्धी कानूनों पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस भी शुरू हुई है। अब देखना ये है कि सिर्फ नौ राज्यों में धर्म परिवर्तन सम्बन्धी कानूनों तक ही केंद्र सरकार रुकी रहती है, या इसके लिए राष्ट्र व्यापी क़ानून बनना शुरू भी होता है।