हिमाचल चुनाव के परिणाम आ चुके हैं, कॉन्ग्रेस को बहुमत मिलने का परिणाम यह हुआ कि भाजपा जिस रिवाज को बदलने का दावा कर रही थी, वह हो न सका। हाँ, जीत के साथ इस राज्य में भी कॉन्ग्रेस के अपने रिवाज की शुरूआत हो गई है। मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के बीच शब्द वाणों का आदान-प्रदान शुरू हो गया है।
इसी घमासान को रोकने के लिए कॉन्ग्रेस ने अपनी विशेष समिति, जिसका गठन रिसोर्ट में बाड़ेबंदी जैसे मिशन के लिए किया गया है, के तीन महारथियों को हिमाचल रवाना कर दिया है। स्तिथि नियंत्रण में है लेकिन ख़तरा बना हुआ है।
राजनीति कभी आसान नहीं थी लेकिन आजकल कुछ ज़्यादा ही मुश्किल होती जा रही है। पहले टिकट वितरण से लेकर चुनाव प्रचार की रणनीति, फिर चुनाव परिणाम पक्ष में आ गए तो विधायकों को सँभालने की जिम्मेदारी और इतनी ‘तपस्या’ के बाद अगर गहलोत, पायलट जैसे नेता मिल गए तो पांच वर्ष तक साथ में चार हाथ एक साथ उठाने की प्रेक्टिस रुकती नहीं है।
इस मुश्किल का अंदाज़ा वही नेता लगा सकते हैं, जो राजनीति की मील का पत्थर तय करते हैं। हिमाचल कॉन्ग्रेस को लेकर दिल्ली से पहुँचे नेताओं का मील दर मील चलना शुरू हो गया है और वे इतना चल चुके हैं कि पत्थर का डर सताने लगा है।
हिमाचल कॉन्ग्रेस के कई नेता राजनीति के इन चरणों से गुजरे होंगे। कुछ गुजरने के बाद भी दख़ल रखते दिखाई दे रहे हैं। जो दिखाई नहीं दे रहे हैं वे कल दिखाई देंगे। इन सब के बीच एक नेता हैं जो इन सभी चरणों से दूरी बनाए हुए अपने चरणों पर चल रहे हैं और वे हैं राहुल गाँधी।
राहुल गाँधी भारत जोड़ो यात्रा के लिए जब से सड़क पर आए हैं, उन्होंने अपने दल का जीवन ही बदल दिया है। देशाटन में सत्तार्जन जैसे महत्वपूर्ण उद्देश्य जुड़ जाएँ तो नेता दूर तक निकल सकता है। राहुल जी ने भी ऐसा ही किया और जिन राज्यों में चुनाव थे, उनसे दूर ही रहे। उद्देश्य केवल एक, दल के लिए सत्ता अर्जित कर लेना।
पूर्व में लोग देशाटन पर भिन्न-भिन्न प्रयोजनों हेतु जाते थे, अब इसमें सत्ता अर्जित करने का नया आयाम जुड़ गया है। विपक्षी कुछ भी कहें राहुल गाँधी ने इन चुनाव परिणामों से स्वयं को साबित कर दिया है। अब उनके दल के नेता हिमाचल में पार्टी की जीत का क्रेडिट राहुल गाँधी को यह कहते हुए दे सकते हैं कि हिमाचल में चुनाव प्रचार के लिए न जाना राहुल जी की ही बनाई गई योजना थी ताकि दल की सत्ता में वापसी को लेकर कोई शंका न रहे।
राहुल जी हिमाचल में चुनावी प्रचार से दूर ही रहे। यह शोध का विषय है कि एक नेता के तौर पर उन्होंने यह योजना खुद बनाई या हिमाचल के कॉन्ग्रेस नेताओं ने शीर्ष नेतृत्व से राहुल गाँधी को दूर ही रखने का आग्रह किया?
वैसे कल से ही ऐसे कयासों को हवा मिलते ही हिमाचल कॉन्ग्रेस ने डैमेज कंट्रोल के प्रयास शुरू कर दिए। कुछ ने दावा किया कि राहुल जी का ध्यान भारत जोड़ो यात्रा पर ही लगा रहे, इसलिए ऐसा कदम उठाया गया। वहीं कुछ सूत्रों ने राहुल जी की भाषा हिमाचली जनता तक समझाने के लिए ट्रांसलेटर की कमी का हवाला दिया।
विरोधी कुछ भी कहें लेकिन तथ्य तो यह है कि कॉन्ग्रेस हिमाचल में चुनाव जीत गई। पार्टी के चुनाव जीतने के पीछे जो मुख्य कारण जो सामने आ रहे हैं वह हैं, स्थानीय मुद्दे। हिमाचल प्रदेश में हर 5 साल में सरकार बदली जाती है, यह वहाँ का रिवाज माना जाता है जिसे एक्स्पर्ट के शब्दों एंटी इनकम्बेन्सी कहते हैं। जी हाँ, राजनीति की दृष्टि से स्थानीय भाषा में जिसे रिवाज कहा जाता है, विशेषज्ञों की भाषा में उसे एंटी इंकम्बेन्सी कहते हैं।
इस बार इस एंटी इनकम्बेन्सी के साथ लोकल मुद्दे भी चुनावी समीकरण तय कर रहे थे। उधर भाजपा कहती है कि ओल्ड पेन्शन स्कीम लाना मुश्किल है और इधर कॉन्ग्रेस कहती है कि कोई मुश्किल नहीं है। फ़ाइनैन्स की ऐसी की तैसी। हमें जिताओ और हम कंधे पर लाद लाएँगे। हिमाचल में ढाई लाख सरकारी कर्मचारी हैं, इसलिए कॉन्ग्रेस का दावा मान लिया गया।
भाजपा अपने स्टार प्रचारक तय करती रही और कॉन्ग्रेस ने अपने स्टार प्रचारक को लिस्ट में जगह ही नहीं दी। भाजपा के सामने अपने नेताओं को चुनाव के पहले सँभालने की चुनौती थी तो कॉन्ग्रेस के सामने अपने नेताओं को चुनाव के बाद सँभालने की चुनौती होगी। इसी को कहते हैं असली वैचारिक मतभेद। बाद में खुलासा हुआ कि वह विश्लेषक योगेन्द्र यादव ही थे जो भारत जोड़ो यात्रा के कंटेनर में बैठकर यह विश्लेषण जारी कर रहे थे। ऐसे विश्लेषण को भविष्य में इतिहासकार तथ्य बनाकर किताबों में बेच सकते हैं।
संयोगवश हिमाचल के साथ गुजरात चुनाव परिणाम भी आए। गुजरात में राहुल गाँधी यात्रा से समय निकाल कर गए और दो रैलियाँ भी की लेकिन वहाँ कॉन्ग्रेस की बुरी तरह हार हो गयी। इसकी जिम्मेदारी कॉन्ग्रेस ने आम आदमी पार्टी पर डाल दी। अच्छा होता अगर इसकी ज़िम्मेदारी कॉन्ग्रेस पार्टी अमेरिका के राष्ट्रपति जो बायडेन पर डालती।
खैर, राहुल के हिमाचल ना जाने से वहाँ जीतना और गुजरात में राहुल के स्टार प्रचारक के तौर पर जाने पर बुरी तरह हारना। इस पैटर्न ने कॉन्ग्रेस पार्टी की रणनीति के लिए नए दरवाजे अवश्य खोल दिए हैं। अब देखना यह होगा कि क्या कॉन्ग्रेस नेतृत्व राहुल को चुनाव से दूर रखने की रणनीति जारी रखेगा?
या यह राहुल गाँधी की देशाटन से उत्पन्न एक नयी रणनीति है? जैसा एक वीडियो में वह बता रहे थे कि पहले सारी शक्तियाँ वे दुश्मन को देते हैं और फिर दुश्मन की शक्तियों के सहारे ही अपने उद्देश्य पूरे करते हैं। राहुल गाँधी भारत जोड़ने सड़क पर उतरे हैं। हिमाचल में पार्टी जोड़ने की चुनौती से कोई और दो-चार कर लेगा।