भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक अधिसूचना जारी करके 19 मई, 2023 से 2000 रुपये के नोट वापस लेने का निर्णय लिया है। रिजर्व बैंक की ओर से ऐसे निर्णय की आशा लोगों को पहले से थी और इस पर सार्वजनिक मंचों पर चर्चा होती रही है। रिजर्व बैंक के ऐसे संभावित कदम को लेकर जिम्मेदार पदों पर बैठे सरकार के लोगों ने पहले भी सार्वजनिक तौर पर बात की थी। यह सर्वविदित है कि 31 मार्च 2018 के बाद 2000 रुपये के नोट की प्रिंटिंग बंद हो चुकी थी और आम भारतीयों के लिए इस नोट की उपलब्धता लगातार कम हो रही थी। वर्तमान में करेंसी सर्कुलेशन में जितनी भी मुद्रा है उसका करीब दस प्रतिशत 2000 के नोटों में है और यह राशि अनुमानतः करीब 3 लाख 60 हज़ार करोड़ रुपये है।
रिजर्व बैंक के इस कदम को लोगों ने अपनी अपनी तरह से परिभाषित किया। आशा के अनुरूप राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया तीखी रही। आशा के अनुरूप ही इसे सरकार का एक और घातक कदम बताया गया। आशा के अनुरूप ही सबसे तीखी प्रतिक्रिया दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की रही जिन्हें रिजर्व बैंक के इस कदम की आलोचना भी प्रधानमंत्री को बीच में लाये बिना करना गंवारा नहीं था। वे अपनी आदत के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बीच में ले आए और वही बातें की जो वे पिछले कई महीनों से करते रहे हैं, यानी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को अनपढ़ बताना। उनके अनुसार अनपढ़ प्रधानमंत्री से कोई कुछ भी करवा सकता है।
इस तरह की प्रतिक्रिया के पीछे का कारण क्या हो सकता है, उसे लेकर अनुमान लगाने के लिये सब स्वतंत्र हैं। जो बात सबसे खतरनाक है वह है केजरीवाल और उनके जैसे अन्य राजनेताओ का भारतीय रिजर्व बैंक जैसी संस्था की स्वायत्तता को लेकर इस तरह का विचार रखना। इन नेताओं द्वारा यह कहने का क्या अर्थ निकलता है कि अनपढ़ प्रधानमंत्री से कोई भी कुछ भी करवा सकता है? केजरीवाल और उनके जैसे नेता क्या यह कहना चाहते हैं कि भरतीय रिजर्व बैंक या उसके गवर्नर और अन्य अधिकारी प्रधानमंत्री से कोई ऐसा काम करवा रहे हैं जो देश के विरुद्ध है? या केजरीवाल यह मानते हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक चलाने वाले देश, उसकी अर्थव्यवस्था या भारतीयों के कल्याण के विरुद्ध काम कर रहे हैं?
इस राजनीति में जो बात अधिक चिंतित करती है वो यह है कि यही नेता कुछ महीने पहले ही 2016 के विमुद्रीकरण के केस को सर्वोच्च न्यायालय यह कहते हुए ले गये थे कि नवंबर 2016 में जो विमुद्रीकरण किया गया था वह भारतीय रिजर्व बैंक को विश्वास में लिए बिना किया गया था। अर्थात विमुद्रीकरण जैसा महत्वपूर्ण कदम सरकार ने खुद लिया और इसमें भरतीय रिजर्व बैंक की भूमिका नहीं थी। तब भी केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता और उसके निर्णय लेने की स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाए गए थे। पर नतीजा क्या हुआ? सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि 2016 में हुई विमुद्रीकरण की पूरी प्रक्रिया में भारतीय रिजर्व बैंक पूरी तरह से शामिल था और सरकार को इस कदम की सलाह बैंक ने ही दी थी।
रिजर्व बैंक की स्वायत्तता और निर्णय लेने की स्वतंत्रता पर जो सवाल तब और आज केजरीवाल और उनके जैसे अन्य नेताओं ने उठाए हैं, कुछ वैसे ही सवाल SEBI की स्वतंत्रता और कार्यप्रणाली पर कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी और अन्य विपक्षी दल के नेताओं ने उठाया। राहुल गांधी ने हिंडनबर्ग रिपोर्ट को आगे रखकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अड़ानी के संबंधों पर राजनीति तो की पर सबसे खतरनाक रहा उनका SEBI के काम करने के तरीके और उसकी स्वतंत्रता पर प्रश्न उठाना।
भारत की धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिका कितना ईमानदार है?
केवल राहुल गांधी ही नहीं बल्कि उनके इकोसिस्टम के सारे लघुमानव पिछले कई महीने से यही कर रहे हैं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जाँच के लिए बैठाई गई कमेटी की रिपोर्ट ने क्या साबित किया? आज कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक है जिसमें यह कहा गया है कि SEBI अपने कर्तव्यों से पीछे नहीं हटी और उसके रेगुलेटरी मैकेनिज्म अपनी जगह पर दुरुस्त काम कर रहे हैं। अड़ानी ग्रुप में कंपनियों की जहाँ तक बात है, तो कमेटी को ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे आगे रखकर कहा जा सके कि SEBI ने अपनी ज़िम्मेदारियों को नहीं निभाया।
भारतीय रिजर्व बैंक की स्वतंत्रता को लेकर सवाल पहले भी उठाये जाते रहे हैं। बस अन्तर यह है कि ये सवाल कभी सर्वोच्च न्यायालय तक इस तरह से नहीं ले जाए गये। कारण शायद यह था कि भारतीय राजनीति के तत्कालीन विपक्ष ने अपने लिए कभी नरेंद्र मोदी खोजने का प्रयास नहीं किया। तब भारतीय विपक्ष ने संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता को राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया, यह बात और है कि CBI तब पिंजरे में बंद तोता था और रिजर्व बैंक के गवर्नर ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पश्चात तत्कालीन सरकार के हारने के दो दिन के भीतर भी उसी सरकार के एक ऐसे आदेश का पालन किया, संयोग से जिसके परिणामस्वरूप कुछ लोगों को व्यक्तिगत लाभ हुआ था।
SEBI हो, रिजर्व बैंक हो या फिर चुनाव आयोग, वर्तमान विपक्ष संवैधानिक और प्रशासनिक संस्थाओं को लेकर जिस तरह की राजनीति कर रहा है वह खतरनाक है। सर्वोच्च न्यायालय में अभी कुछ दिन पूर्व ही अड़ानी के खिलाफ खड़े हुए एक वकील साहब ने जिरह करते हुए यह सवाल पूछा कि; यदि SEBI देख रहा था कि किसी FII से निवेश के लिए बाहर से आये पैसे से अड़ानी ग्रुप की कंपनियों के शेयर सबसे अधिक ख़रीदे जा रहे थे तो SEBI ने इसे रोका क्यों नहीं?
प्रश्न यह है कि इस तरह का सवाल पूछने वाले क्या चाहते हैं? SEBI वह सब करे जिसका उसे अधिकार नहीं है? या ये लोग उस कंट्रोल को वापस लाना चाहते हैं जो उन्नीस सौ साठ से लेकर नब्बे के दशक तक था? अड़ानी पर राजनीति करने के अपने एजेंडे में ये लोग क्या इतना गिर जाएँगे कि संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार और उनके कर्तव्यों पर ऐसे कुतर्क करेंगे?
PAK ने लागू किया मुख्य न्यायाधीश के पर कतरने वाला कानून
यह स्थिति ख़तरनाक है। यदि इस स्थिति को ऐसे ही चलने दिया गया तो ऐसे आरोपों का कोई अंत नहीं होगा। ऐसे निराधार आरोप और कुतर्कयुक्त पीआईएल अदालतों में आते रहेंगे, जो न केवल देश में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता का कारण बनेंगे बल्कि देश की सर्वोच्च न्यायपालिका का बहुत क़ीमती समय बर्बाद करेंगे।