अभी दो दशक पहले तक यह बात बोलचाल में अक्सर कही और सुनी जाती थी कि; देखिए राज करना तो कांग्रेस को ही आता है। एक आम भारतीय की ऐसी राय का क्या कारण हो सकता था? शायद यह कि 1990 के दशक तक जब भी कांग्रेस की जगह अन्य राजनीतिक दलों या गठबंधनों ने सरकार बनाई, वो सरकारें चल नहीं पाई, यह बात और है कि ऐसी सरकारों के न चल सकने का एक कारण यह भी था कि इनमें से कुछ कांग्रेस के ही समर्थन से बनी थीं और समर्थन वापस लेने के कारण गिर गईं।
इस विचार का एक भाग वहां से भी आता है, जहां स्वतंत्रता से पहले अंग्रेजों और अंग्रेजी शासन से लगातार ‘लड़ने’ के कारण शासन के अंग्रेजी तौर तरीक़ों का असली वाहक कांग्रेस को माना जाता था। भारतवर्ष और भारतवासियों को कैसे कंट्रोल करना है, वह सब कुछ अंग्रेज शासक या तो कांग्रेसियों को सिखा गए थे या कांग्रेसियों ने अपने प्रयास से अग्रेजों से सीख लिया था। इन सबके ऊपर बुद्धिजीवी वर्ग ने राज करने की कांग्रेसी योग्यता पर न केवल खुद विश्वास किया बल्कि आम भारतीय को भी यह विश्वास दिलाया कि; अंग्रेजों से लंबे समय की नजदीकियां कांग्रेसियों को राज करने लायक बनाती हैं।
राज और राज करने के तरीके के इर्द-गिर्द बनाया गया यह कांग्रेसी तिलिस्म पहली बार तब दरका जब स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकारें लगभग सात वर्ष चलीं। पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार चूंकि बिना कांग्रेस के समर्थन से चली इसलिए कांग्रेस उन्हें समर्थन वापस लेकर बीच में नहीं गिरा सकी। यह बात और है कि डॉक्टर स्वामी के प्रयासों से कांग्रेस ने कुछ और दलों के साथ मिलकर अविश्वास प्रस्ताव लाकर वाजपेयी जी की पहली सरकार को एक वोट के अंतर से गिरा दिया था। उसके बाद वाजपेयी जी चुनाव में जीतकर वापस आए और पहली बार देश ने ऐसा शासन और प्रशासन देखा जो सुधार मूलक था और जिसमें भारत जैसे विशाल देश के लिए आवश्यक सुधारों की रूपरेखा न केवल तैयार की गई बल्कि उन्हें सफलतापूर्वक लागू किया गया।
पहली बार समय के अनुसार आवश्यक सुधार के साथ-साथ एक सरकार की भूमिका को आगे लाया गया। पहली बार एक विशाल देश के लिए आवश्यक बड़े सपनों के महत्व को समझा गया। सपनों की बात करनी इसलिए आवश्यक है क्योंकि गोल्डन चतुर्भुज (Golden Quadrilateral) तक की बात पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी जी का मजाक यह कह कर उड़ाया गया कि वे दिवास्वप्न देख रहे हैं। और यह काम केवल राजनीतिक दल या उनके नेताओं ने ही नहीं किया बल्कि बुद्धिजीवियों, संपादकों, पत्रकारों ने भी किया। कारण बस एक ही था, कि अंग्रेजों से राज करने के तरीकों को सीखने वाली कांग्रेस ने देशवासियों को कंट्रोल करने के अपने दर्शन में उन्हें सपना देखने की छूट कभी नहीं दी थी।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि वाजपेयी जी के नेतृत्व वाला गठबंधन एनडीए फिर से सत्ता में वापस नहीं आ सका। इसका सबसे बड़ा परिणाम यह रहा कि एक बार फिर उस सोच को जनता के बीच फ्लोट करने का बहाना मिल गया कि; राज चलाना तो देखिए कांग्रेस को ही आता है। हाँ, इस सोच की परिणति दस वर्षों में कहाँ जाकर हुई, उसका पंजीकरण अब इतिहास में हो चुका है।
2014 में जबसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने फिर से सरकार बनाई है, “देखिए सरकार चलाना तो केवल कांग्रेस को आता है” नामक कांग्रेसी तिलिस्म एक एक करके टूट रहा है। भारत जैसे विशाल देश को सपनों का जो महत्व स्वर्गीय वाजपेयी जी ने समझाया था, नरेंद्र मोदी उसी को पूरा करने का काम कर रहे हैं। योजनाएँ, सुधार, शासन और प्रशासन के नये मॉडल और स्तंभ एक एक करके जिस तरह से देश के सामने रखे जा रहे हैं, उनसे यह तिलिस्म लगातार टूट रहा है और जैसे-जैसे यह टूट रहा है, कांग्रेस की बेचैनी बढ़ती जा रही है। इस बेचैनी बढ़ने के मूल में बड़ी भूमिका कांग्रेस और कांग्रेसियों के उस दर्शन की भी है कि; देश की सत्ता पर पहला हक़ कांग्रेस का है, ठीक उसी तरह जैसे एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने बताया था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है।
देश की सत्ता पर पहला हक़ कांग्रेस का है, नामक दर्शन ने ही कांग्रेस को विपक्ष में रहने का तौर तरीका नहीं सीखने दिया। विपक्ष में रहने का कोई मॉडल विकसित नहीं करने दिया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के परिणाम आने से दो दिन पहले राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका वाड्रा कलम, कागज और टेलीफोन लेकर सरकार बनाने का समीकरण हल कर रहे थे, क्योंकि उन्हें उनके चुनाव प्रबंधकों ने विश्वास दिला दिया था कि उनका दल सरकार बनाने वाला है। इसका दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण इस वर्ष देखने को मिला जब गांधी कुल गौरव ने अंग्रेजों के बीच बैठकर उनसे घिघियाते हुए पूछा कि आप लोग भारत में ‘असली’ लोकतंत्र लाने के लिए कुछ कर क्यों नहीं रहे?
यह तिलिस्म टूटने के ही उदाहरण हैं। यह उस व्याकुलता से निकला प्रश्न है कि कोई गैर कांग्रेसी ढाई वर्षों में देश के लिए इतने बड़े संसद भवन का केवल शिलान्यास ही नहीं बल्कि उद्घाटन भी कैसे कर सकता है? कैसे? हमने तो देश को बताया था कि ऐसे बड़े-बड़े काम करने में कई दशक लगते हैं। यह उस सोच का परिणाम है कि भारत में कोई ऐसी सरकार कैसे आ सकती है जो कुछ बनाने के ठेके भी देती है और उसे बनवा भी लेती है? यह सब तो सत्ता चलाने की कांग्रेसी स्कीम में कभी था ही नहीं।
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा देशवासियों के लिए नौ वर्षों में सरकारी सर्विस डिलीवरी का जो तरीक़ा लाया और इंप्लीमेंट किया गया है वह कांग्रेस की राजनीतिक व्याकुलता को लगातार बढ़ा रहा है। चूंकि कांग्रेस ने स्वतंत्रता के बाद विपक्ष की भूमिका में रहने के लिए राजनीतिक आचरण सीखने के बारे में कभी सोचा नहीं इसलिए उसका कष्ट केवल बढ़ रहा है।
ऐसे कष्ट में कहीं कोई सेंगोल निकल आता है तो कष्ट बढ़ना स्वाभाविक है। ऐसे में विपक्ष की भूमिका में रहते हुए सरकार के विरोध का मात्र एक अस्त्र चलाती रहती है और वह अस्त्र है कैंसलेशन। सरकार के हर काम का कांग्रेस के पास एक मात्र जवाब है कैंसलेशन। सरकार की उपलब्धियों को कैंसिल करके कांग्रेस लोकतंत्र को मजबूत करना चाहती है। पिछले नौ वर्षों में उसे कैंसलेशन की ऐसी आदत लगी है कि वह देश के लोकतंत्र को भी बड़े आराम से कैंसिल कर देती है, बिना कुछ सोचे, बिना पलक झपकाए।
देश को स्वतंत्र हुए पचहत्तर वर्ष हो गए परन्तु इन पचहत्तर वर्षों में कांग्रेस इस स्थिति के लिए खुद को कभी तैयार कर नहीं पाई कि कोई ऐसी सरकार भी आ सकती है जो बिना लाग-लपेट के देशवासियों को सामान्य सेवाएं देने के लिए तत्पर है। ऐसी सरकार जो दिल्ली से निकलने वाले एक रुपए में से पचासी पैसे वापस लेने के लिए कोई उपक्रम नहीं करती।
इसी प्रक्रिया में उसने कभी ऐसी सरकार की भी कल्पना नहीं की जो उस कांग्रेसी तिलिस्म की दीवार की एक एक ईंट निकाल कर फेंक रही है जिस पर लिखा था कि; देखिए राज करना तो कांग्रेस को ही आता है।
यह भी पढ़ें: लोकतंत्र पर हावी अधिनायकतंत्र