कांग्रेस ने भी बहिष्कार की राजनीति आरंभ कर दी है। बहिष्कार की राजनीति पर पहले लेफ्ट लिबरल नेताओं और दलों का एकाधिकार था और यह केवल लेफ्ट के राजनीतिक पैंतरेबाज़ी का हिस्सा थी। अब चूँकि राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी पर लेफ्ट का कब्जा हो चुका है तो इस बात से आश्चर्य नहीं होता कि कांग्रेस पर भी यह राजनीतिक पैंतरा हावी हो चुका है। ज़ाहिर है कि कांग्रेस पार्टी और उसका नेतृत्व वर्तमान में जिन लोगों के कब्जे में है, वे केवल ये राजनीतिक पैंतरे लेकर चलते ही नहीं बल्कि उसका इस्तेमाल भी करते हैं।
लेफ्ट को लगातार यह डर सताये रखता है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भी उसे कोई समन्वय स्थापित करने की कोशिश करते हुए न देख ले। दरअसल सत्ता में भागीदारी के लिए उसे आवश्यक समन्वय स्थापित करने से कोई गुरेज नहीं है, बस जो चिंता उसे सताये रखती है वो यह है कि ऐसी कोशिश करते हुए उसे कोई देख न ले। लेफ्ट कांग्रेस ही नहीं बल्कि इस्लामिक और समाजवादी दलों के साथ रहता है क्योंकि उसे हर संभावित सत्ता में अपना हिस्सा चाहिए, बस वह ऐसा करते हुए दिखना नहीं चाहता।
पिछले नौ वर्षों में बहिष्कार की राजनीति को विपक्ष ने समय समय पर राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। कांग्रेस ने हर मौक़े पर EVM पर सवाल उठाकर जनता के वोट और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति उसकी भावनाओं का बहिष्कार किया। किसान आंदोलन की आड़ में राष्ट्रपति का बहिष्कार किया। अब राष्ट्रपति की आड़ लेकर संसद भवन का बहिष्कार कर रही है। EVM के बहिष्कार से आरंभ करके संसद के बहिष्कार की कांग्रेस की यात्रा पार्टी द्वारा भारतीय लोकतंत्र के बहिष्कार की यात्रा है।
दरअसल कांग्रेस के लिए लोकतंत्र वही है जिसमें कांग्रेस खुद सत्ता में रहे। कांग्रेस यदि सत्ता में नहीं है तो भारत में लोकतंत्र ही नहीं है और अब तो पार्टी का सबसे बड़ा नेता भी संसद सदस्य नहीं रहा। ऐसे में कांग्रेस के लिए संसद के बहिष्कार करने का इससे ठोस कारण और क्या हो सकता है? इसी अधिनायकतंत्र को कांग्रेस लोकतंत्र मानती है, भले बीस वर्षों से सांसद रहे उसके नेता की संसद में उपस्थिति पचास प्रतिशत से भी कम है क्योंकि वह उस अधिनायक का ख़ानदानी वारिस है जिसने देश की स्वतंत्रता की लड़ाई अकेले लड़ी और देश की जनता पर एहसान करके कबूतर उड़ाया ताकि जनता ताली बजा सके।
कांग्रेस की देखा-देखी अन्य विपक्षी दलों ने भी संसद भवन के उद्घाटन का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी है। इन दलों के पास कोई चारा भी तो नहीं है। कर्नाटक की जीत का सेहरा कांग्रेस पार्टी ने शरद पवार से अपने वारिस को बँधवा लिया है। ऐसे में अन्य दलों के पास बहिष्कार नामक गीत में कोरस गाने के अलावा अपना कोई राग छेड़ने का कोई स्कोप दिखाई नहीं दे रहा। अधिनायकतंत्र की रक्षा में लोकतंत्र की किरकिरी हो भी जाए तो क्या है।
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