13 नवंबर को Jharkhand Assembly Election के पहले चरण का मतदान होना है। मोटा-मोटी देखें तो मतदान में लगभग एक सप्ताह का समय बचा है, इसके बावजूद अभी तक राहुल गाँधी ने झारखंड में एक भी रैली नहीं की है।
सवाल है कि राहुल गाँधी को Jharkhand Assembly Election के प्रचार से दूर क्यों रखा जा रहा है? इससे पहले हमने देखा कि इसी तरह से हरियाणा में भी राहुल गाँधी को मतदान से कुछ दिन पहले ही चुनाव प्रचार के लिए लाया गया था। हिमाचल प्रदेश के चुनावों में भी राहुल गांधी को बहुत कम प्रचार करने दिया गया था।
सवाल उठ रहे हैं कि क्या राहुल गाँधी को कांग्रेस पार्टी चुनाव प्रचार से जानबूझकर दूर रख रही है? क्या पार्टी को राहुल गांधी की राजनीति पर भरोसा नहीं है? क्या कांग्रेस को लगता है कि राहुल गाँधी अगर चुनाव प्रचार करेंगे तो पार्टी को नुकसान होगा?
निश्चित तौर पर ये अटकलें हैं लेकिन ये अटकलें इसीलिए लगाई जा रही हैं क्योंकि या तो राहुल गाँधी ख़ुद चुनावी प्रचार से दूरी बनाये हुए हैं या पार्टी ने उन्हें चुनाव प्रचार से दूर रखा है।
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ये सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि पिछले कुछ समय से कांग्रेस पार्टी राहुल गाँधी को जननायक के तौर पर पेश करती है। अब अगर वे जननायक हैं तो फिर जन के सामने खड़े होकर संवाद करने से कतरा क्यों रहे हैं?
क्या इसलिए क्योंकि पार्टी को भय सता रहा है कि वो राहुल गांधी के लिए जिस छवि की मैनुफैक्चरिंग कर रही है, उसे राहुल के बोलने से धक्का लगेगा?
सवाल है कि क्या कांग्रेस राहुल गाँधी को संवाद करने से इसलिए रोक रही है क्योंकि चुनावी रैली के दौरान वे जो कुछ बोलते हैं वो उल्टा पड़ जाता है।
हरियाणा में हमने देखा कि उन्होंने जलेबी की फैक्ट्री की बात की थी। उनका वो बयान उनकी पार्टी के लिए बैकफायर कर गया। इसी तरह से राजस्थान चुनावों के दौरान उन्होंने पीएम मोदी को पनौती बताया था, वो बयान भी पार्टी पर भारी पड़ा।
क्या इसीलिए कांग्रेस पार्टी रणनीति के तहत राहुल गांधी को Jharkhand Assembly Election के प्रचार से दूर रख रही है? राजनीति के जानकारों का कहना है कि कांग्रेस की पीआर टीम ने बहुत मेहनत से राहुल गाँधी की एक छवि बनाने का प्रयास किया है।
चुनावी रैली में जब राहुल गाँधी बोलते हैं तो पार्टी द्वारा उनकी गढ़ी गई छवि के विपरीत उनकी अपरिपक्वता लोगों को दिख जाती है। यही कारण है कि पार्टी उन्हें चुनावी प्रचार से दूर रख रही है।
एक बात और समझिए, एक तरफ जहाँ राहुल गाँधी को चुनावी प्रचार से दूर रखा जा रहा है वहीं दूसरी तरफ इकोसिस्टम इस तरह का नैरेटिव बनाने का प्रयास कर रहा है कि जिन राज्यों में पार्टी की हार हुई है, उन राज्यों में हार के लिए राहुल गाँधी नहीं बल्कि उन राज्यों के कांग्रेस नेता जिम्मेदार हैं।
हरियाणा में हुई हार का ठीकरा भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर, राजस्थान की हार का ठीकरा अशोक गहलोत पर, मध्य-प्रदेश की हार की जिम्मेदारी कमलनाथ पर और छत्तीसगढ़ की हार का जिम्मेदार भूपेश बघेल को बताया जा रहा है।
यह सबकुछ किया जा रहा है जिससे कि राहुल गाँधी की जो जननायक की छवि बनाने का प्रयास किया जा रहा है, उसमें बाधा ना पड़े। सवाल उठता है कि ऐसे कब तक कांग्रेस पार्टी राहुल गाँधी को छुपाकर, बचाकर रखेगी?
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नेतागिरी कोई ऐसा काम नहीं है कि आप छिपकर बैठे रहेंगे और बड़े नेता भी बन जाएं। इसमें आपको लोगों के पास जाना पड़ेगा, लोगों से बात करनी पड़ेगी, लोगों को संबोधित करना पड़ेगा, उनसे मिलना पड़ेगा, लोगों के और कार्यकर्ताओं के नाम याद रखने पड़ेंगे और यह तभी संभव है जब आपका व्यक्तित्व यह सब करने में सक्षम हो।
लोकतंत्र में किसी भी नेता की मैन्युफ़ैक्चर्ड छवि लंबे समय तक नहीं टिकती जिसे हम पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, अरविंद केजरीवाल और अब राहुल गांधी के केस में देख रहे हैं।
देखने वाली बात ये होगी कि कब तक कांग्रेस पार्टी राहुल गाँधी को जननायक बनाने का प्रयास भी करती रहेगी और उन्हें नागरिकों से सीधे संवाद से भी दूर रखेगी?
एक ऐसा नेता जो विदेश में जाकर देश के तमाम मुद्दे पर लगातार बोलता है, एक ऐसा नेता जो देश को नेतृत्व देने की महत्वाकांक्षा रखता हो, वह अगर देश में होने वाले लोकतांत्रिक प्रक्रिया यानी चुनाव से ख़ुद को दूर रखेगा तो सवाल तो उठेंगे।