जयकारा शेरावाली दा! दूर बिक्रम को आता देख मैंने सहज अभिवादन किया और उचक कर उसके कंधे पर जा बैठा। जिज्ञासावश मैंने पूछ दिया- और बताओ भइया, यात्रा कहां तक पहुंची?
बिक्रम थोड़ा खिन्न लग रहा था। बोला- जहां थी वहीं है अभी। एक कदम आगे, दो कदम पीछे।
मुझे समझ नहीं आया। मैंने कहा- खुलासा करो। और पिछली बार का उधार भी बाकी है, कि राहुल गांधी का सिर किसके कंधे पर है। बताओ बिक्रम वरना तुम्हारा सिर बची-खुची गंगा-जमुनी संस्कृति की तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।
धीर गंभीर मुद्रा बनाकर बिक्रम ने वामपंथियों की तरह ‘देखो’ से अपना विश्लेषण शुरू किया।
देखो, ऐसा है कि कांग्रेस पार्टी उस अर्थ में पार्टी नहीं है जिस तरह भाजपा या सपा या डीएमके है। तुमने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को पढ़ा है? वे लिखते हैं कि संगठन एक केंचुए की तरह होता है। उसको आगे बढ़ने के लिए खुद को बाकी दिशाओं से सिकोड़ना पड़ता है। आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि आपको पता हो किधर जाना है। कांग्रेस के पास यही सवाल बरसों से हल हुए बगैर दस जनपथ की किचेन कैबिनेट में ज़ंग खा रहा है। इसीलिए यात्रा शुरू तो हुई है लेकिन बीस दिन से एक ही राज्य में अटकी हुई है। राहुल गांधी को पता है कि केरल से नीचे नहीं जाया जा सकता इसलिए वे ऊपर आ रहे हैं। दिक्कत बस इतनी सी है कि ऊपर आते ही जो चौड़ाई और विस्तार मिलेगा भारतवर्ष का, उसमें उनको ये नहीं पता कि दाएं जाना है या बाएं। इसीलिए थोड़ा स्लो हैं।
मने, कांग्रेस केंचुआ नहीं है और बाकी पार्टियां केंचुआ हैं? मुझे इतना ही पकड़ में आया।
मान सकते हो। केंचुआ जिस जमीन में रहता है, उसकी मिट्टी को उर्वर बनाता है। मिट्टी को उपजाऊ बनाने के लिए उसमें केंचुए डाले जाते हैं। कांग्रेस की स्थिति ठीक उलटी है। उसे जहां डालोगे वहां की उर्वरता को वह खा जाएगी। जहां जाएगी, अपनी ही जमीन को कमजोर करेगी। मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार याद करो, कैसे चली गयी थी। गोवा को याद करो। छोड़ो पुरानी बातें, राजस्थान को देख लो। कैसे आपस की सिर फुटौव्वल में गहलोत और पायलट ने पार्टी को जगहंसाई का पात्र बना दिया है।
मुझे कल कहीं देखा एक मीम याद आ गया। उसमें राहुल गांधी का चेहरा बना था और लिखा था, ‘राजस्थान सरकार भी जाए तो मैं मुक्ति पाऊं’। मैंने बिक्रम को ये बात बतायी, तो वो बोला-
बस, बस, एकदम सही पकड़े। असल सवाल मुक्ति का है। राहुल गांधी की मुक्ति कांग्रेस की सरकार रहने में नहीं, जाने में है। इसे ऐसे समझो कि जब तुम्हारे घर में बिजली चली जाती है तो बाहर निकल के देखते हो कि मुहल्ले में भी गयी है या नहीं। अगर मोहल्ले में भी अंधेरा होता है तो आश्वस्त हो जाते हो कि सब जगह एक साथ बिजली गयी है तो मामला पावर स्टेशन का है, यानी सब जगह एक साथ लाइट आ जाएगी। अभी कांग्रेस के एकाध बल्ब यहां-वहां जल रहे हैं, उसकी बत्ती पूरी तरह गुल नहीं हुई है। राहुल गांधी को पता है कि अपने फ्यूज को ठीक करने से कुछ नहीं होगा, पूरे मोहल्ले में बत्ती जानी जरूरी है। मसलन राजस्थान जाए, छत्तीसगढ़ जाए, तब कहीं जाकर कुछ हो पाएगा। इसीलिए वो राजस्थान के मामले में चुप्पी मारे केरल में टहल रहे हैं। फरवरी-मार्च तक जब बत्ती पूरी तरह गुल हो हो जाएगी, तब तक उनकी यात्रा भी निपट जाएगी। फिर वे राजनीतिक और सत्ता से जुड़ी बाध्यताओं से मुक्त हो जाएंगे।
तब तो वो कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे। छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस को हटाना मुश्किल है बिक्रम भाय!
हां, दिक्कत तो है। गाय, गोबर, गोठान वाला मॉडल राहुल के लिए दिक्कत खड़ी कर रहा है। उस पर से यूपी चुनाव में बघेल ने जो पैसा लगाया है, दिल्ली के दर्जन भर तथाकथित सेकुलर पत्रकारों को जो पैसे की मासिक आमद हो रही है, उस सब का अहसान भी पार्टी पर है। लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि भाजपा कभी भी राहुल गांधी को मुक्त देखना नहीं चाहेगी। पूरे देश से कांग्रेस की बत्ती गुल हो गयी तो ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ के नारे का क्या होगा? देख रहे हो न बिनोद… सॉरी, बेताल… मंदिर का मुद्दा भी गया, कश्मीर भी गया, समान आचार संहिता भी चला ही जाएगा। कांग्रेस भी चली गयी तो राजनीति कैसे हो पाएगी? किसके खिलाफ होगी? राहुल की मुक्ति की राह में यही सबसे बड़ा रोड़ा है।
गंभीर बात आप कह दिए भैया! मने ये समझा जाए कि राहुल गांधी यात्रा करते रहेंगे, चाहे कहीं पहुंचें या न पहुंचें। लेकिन बकाया अभी बाकी है, आपने बताया नहीं कि राहुल का कंधा किसके सिर पर टिका है?
रे मंदबुद्धि! अब भी नहीं समझा तो तुम वापस पीपल पर जाकर लटक जाओ। सी यू लेटर।