कॉन्ग्रेस पार्टी सिख दंगों के आरोपितों को लेकर एक बार फिर विवादों में है।
कॉन्ग्रेस ने आगामी दिल्ली नगर निगम चुनाव के लिए ‘प्रदेश चुनाव समिति’ का ऐलान किया है। इस चुनाव समिति में दिल्ली कॉन्ग्रेस के कई नेताओं को शामिल किया गया है। समिति में पूर्व केन्द्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर का नाम भी शामिल है। इस नाम को लेकर कॉन्ग्रेस पार्टी विपक्षी दलों समेत सिख समुदाय ने निशाने पर आ गई है।
बता दें कि कॉन्ग्रेस नेता जगदीश टाइटलर पर साल 1984 के दिल्ली में हुए ‘सिख नरसंहार’ को भड़काने का आरोप है। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी की हत्या के पश्चात हुए सिखों के नरसंहार में अकेले दिल्ली में लगभग 2,800 सिख मारे गए थे।
जगदीश टाइटलर के मामले में सीबीआई ने साल 2007, 2009 और 2014 में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की थी। हालाँकि, सिख नरसंहार के दौरान अपना पति को खोने वाली सिख महिला लखविंदर कौर की याचिका पर दिल्ली की कड़कड़डूमा अदालत ने सभी क्लोजर रिपोर्ट खारिज कर दिया था।
जगदीश टाइटलर को इससे पहले भी बीते वर्ष दिल्ली प्रदेश कॉन्ग्रेस कमेटी में स्थायी सदस्य मनोनीत किया गया था। जिसके बाद पंजाब में जमकर विरोध हुआ था।
सिख दंगों में कॉन्ग्रेस भले ही अपनी सक्रिय भूमिका को हमेशा से नकारती आई हो, लेकिन, सिख दंगों से जुड़ा इतिहास और तथ्य कॉन्ग्रेस के पक्ष में नहीं दिखते। जगदीश टाइटलर, सिख नरसंहार में अकेले आरोपित नहीं है, जिन्हें कॉन्ग्रेस ने न केवल अपनाया बल्कि पार्टी-संगठन में बड़े-बड़े पद भी दिए और जिम्मेदारी भी दी।
स्वर्गीय हरि किशन लाल भगत 70 और 80 के दशक में कॉन्ग्रेस के बड़े नेताओं में से एक थे। वे दिल्ली के मेयर से लेकर 6 बार सांसद तक रहे। साल 1983 के चुनावों में कॉन्ग्रेस को जीत दिलाने के बाद उन्हें ‘दिल्ली के बेताज बादशाह’ के रूप में जाना जाने लगा। वे कानून मंत्री रहे और सूचना और प्रसारण मंत्री भी।
भगत 1984 में सिख नरसंहार में परोक्ष रूप से घिरते नज़र आए। वहीं कॉन्ग्रेस पार्टी लगातार भगत को सरंक्षण देती रही। संरक्षण ऐसा कि वर्ष 1991 में भगत कॉन्ग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़े। हालाँकि, लाल भगत यह चुनाव हार गए।
वर्ष 1996 में कड़कड़डूमा अदालत ने लाल भगत को जेल भेज दिया। वर्ष 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी भगत के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी किया था। सिख दंगों की जाँच के लिए बना नानावटी आयोग ने भी लोगों को उकसाने में भगत की भूमिका को स्वीकार किया था। हालाँकि, तत्कालीन यूपीए सरकार ने भगत की ख़राब सेहत का हवाला देकर केस ही बन्द कर दिया।
सिख नरसंहार की न्यायिक लड़ाई लड़ने वाले सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील एचएस फुल्का बताते हैं कि कॉन्ग्रेस पार्टी ने नरसंहार में शामिल पार्टी के नेताओं को दण्डित करने की बजाय, उनको ऊंचे पदों पर बिठाया। फुल्का ने यह बयान वर्ष 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा सज्जन कुमार को आजीवन कारावास की सजा देने के बाद दिया था। कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया था कि आरोपियों को राजनीतिक लाभ प्रदान किया गया।
सज्जन कुमार बीते 3 दशक से कॉन्ग्रेस पार्टी में बड़े नेता के तौर पर रहे हैं। सज्जन कुमार के ऊपर भी सिख नरसंहार में लोगों को उकसाने का आरोप था। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि सज्जन कुमार ने भीड़ को उकसाया था। वर्ष 2018 में उम्रकैद की सजा मिलने के बाद से वो जेल में ही हैं।
1984 के सिख विरोधी दंगों में शामिल होने के बाद भी कॉन्ग्रेस ने सज्जन कुमार को न तो अपने दल से अलग किया, कार्रवाई करनी तो दूर की बात। कॉन्ग्रेस ने उल्टा सज्जन कुमार को राजनीति में सक्रिय बनाए रखा। वर्ष 1991 और 2004 में सज्जन कॉन्ग्रेस के टिकट पर लोकसभा तक पहुँचे।
सज्जन कुमार तो लोकसभा पहुंचे ही, इनके अलावा कॉन्ग्रेस के कुछ ऐसे नेता थे। जो सिख दंगों में बड़ी भूमिका निभा रहे थे, उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से नवाजा गया।
कमलनाथ। जो एक दौर में राजीव गाँधी के घनिष्ठ मित्र थे, इनको मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। सिखों के नरसंहार में कमलनाथ की भूमिका को लेकर आज भी सवाल उठते रहते हैं। 1984 में एक गुरुद्वारे के बाहर सिखों की हत्या से जुड़े एक मामले में उन्हें न्यायपालिका से लेकर एसआईटी के समक्ष पेश होना पड़ा। वहीं सिख समाज आज भी कमलनाथ की सिख दंगों में भूमिका को लेकर मुखर रहता है।
इसका हालिया उदाहरण इंदौर का है जब, गुरु नानक जयन्ती के अवसर पर कमलनाथ का विरोध किया गया। दरअसल, गुरु नानक जयन्ती के अवसर सिखों के एक कार्यक्रम में मौजूद प्रसिद्ध कीर्तनकार मनप्रीत कानपुरीया ने कमलनाथ का कार्यक्रम में शामिल होने का कड़ा विरोध किया था। विरोध में सिख समुदाय के लोगों ने कमलनाथ का बैनर, पोस्टर लगाकर नेवर फॉरगेट 1984, यानी ‘1984 को कभी नहीं भूल सकते’ के बैनर के जरिए कॉन्ग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को फांसी तक देने के नारे लगाए।
यह पहली बार नहीं है, जब सिख दंगों में कमलनाथ घिरे हैं। साल 2016 में कमलनाथ को पंजाब चुनावों का प्रभारी बनाने पर भी खूब बवाल हुआ था। पंजाब के स्थानीय राजनैतिक दलों ने कहा था कि कमलनाथ को 1984 में उनकी बड़ी भूमिका के लिए कॉन्ग्रेस अवॉर्ड दे रही है। विवाद इतना बढ़ा कि कमलनाथ को इस्तीफा तक देना पड़ा। कॉन्ग्रेस का इस मामले में बैकफुट पर आ जाना सिख दंगों में की गई भूल की ओर संकेत कर रहा था।
ऐसी तमाम घटनाएँ, जिनमें कॉन्ग्रेस एक्शन लेना तो दूर, उनमें सुधार तक करती नजर नहीं आती है। इसका एक बड़ा उदाहरण सैम पित्रोदा है। ये वही पित्रोदा हैं जो लम्बे समय से गाँधी परिवार के सिपहसालार रहे। सैम पित्रोदा ने सिख दंगों के एक सवाल पर वर्ष 2019 में कहा भी था कि “हुआ तो हुआ।”
सैम पित्रोदा का यह बयान दर्शाता है कि कॉन्ग्रेस सिख विरोधी दंगे को लेकर पश्चाताप करने के बजाय गर्व की अनुभूति करती है। सिख विरोधी दंगों के लिए गर्व की अनुभूति करने वाले कॉन्ग्रेसी नेताओं को पार्टी हमेशा पोषित करती आई है। इसका एक और उदाहरण यह है कि कॉन्ग्रेस ने सैम पित्रोदा को ‘इंडियन ओवरसीज़ कॉन्ग्रेस’ का चेयरमैन तक बनाया दिया। सैम पित्रोदा अभी तक इस पद पर बने हुए हैं।
वर्ष 1984 से लेकर अब तक, कॉन्ग्रेस पार्टी और उसके तमाम नेता सिख विरोधी दंगों को लेकर एक ही लाइन पर चलते हुए नज़र आते हैं। कॉन्ग्रेस आज भी अपने नेता यानी राजीव गाँधी के बयान “बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है” पर कायम नजर आती है और 38 साल बाद भी इसी बयान को प्रासंगिक बनाने में जुटी है।
सिख विरोधी नरसंहार जुड़े नेताओं को कॉन्ग्रेस ने पार्टी-संगठन के उच्च पदों पर जिम्मेदारी देकर, एक तरह से ईनाम ही दिया है। हालाँकि, सिखों के नरसहांर पर कॉन्ग्रेस पार्टी ने माफ़ी माँगने के रूप में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चुना।
मनमोहन सिंह ने सिख समुदाय से माफ़ी तो माँगी लेकिन, आज भी यह प्रश्न उठता है कि इस दंगे के असल कर्ता-धर्ता नेहरू-गाँधी परिवार के किसी सदस्य ने आज तक सिख समुदाय से माफ़ी माँगने का साहस क्यों नहीं किया?