इंदौर से भोपाल सुबह साढ़े 6 बजे इंटरसिटी ट्रेन जाती है। बीते 12 वर्षों से भी अधिक समय से इस ट्रेन में 75 वर्षीय दीपेश्वर नामक बुजुर्ग व्यक्ति 15 से 17 किलो वजन का एक झोला लेकर इंटरसिटी में चढ़ते हैं।
दीपेश्वर ट्रेन चलने के कुछ देर बाद, एक-एक डिब्बे में जातें हैं, किसी सीट पर सभी पुस्तकें रख देतें हैं, जिस यात्री को जो पुस्तक देखनी है, वो आराम से देखता है और फिर दीपेश्वर गीता प्रेस से प्रकाशित इन पुस्तकों का एक-एक कर परिचय कराने लगते हैं। इसके लिए न तो वे ग्राहकों से अतिरिक्त पैसे वसूलते हैं और न ही गीता प्रेस से किसी तरह का कोई कमीशन लेते हैं। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें पुस्तकें बेचने से कोई आर्थिक लाभ हो रहा है, वे आर्थिक रूप से भी सम्पन्न व्यक्ति हैं।
इसी तरह राधेश्याम खेमका जिन्हें हाल ही में पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया था। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित की जाने वाली पत्रिका कल्याण के सम्पादक राधेश्याम खेमका जी का दशकों से एक ही लक्ष्य रहा है; गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित किसी पत्रिका में कभी भी एक अशुद्धि न रहे।
भारत के करोड़ों घरों में गीता प्रेस की पुस्तकों से ही नित्य पूजा-पाठ होता है। मठ हो, मंदिर हो, आम हिंदू घर हो या फिर अकादमिक स्वाध्याय, सबका आधार गीता प्रेस गोरखपुर ही है। इस बात से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि गीता प्रेस गोरखपुर मात्र पुस्तक प्रकाशित करने का संस्थान नहीं है। गीता प्रेस गोरखपुर दर्शन है, धर्म है, कर्तव्य है और आम हिंदू जीवन का मार्ग है।
ऐसे में यह समझना कठिन नहीं है कि गीता प्रेस को साल 2021 का गांधी शांति पुरस्कार मिलने की घोषणा के बाद आई कांग्रेसी नेता जयराम रमेश की विवादित टिप्पणी से न तो गीता प्रेस की महानता कम होगी और न ही आम हिंदू के मन में उसके प्रति सम्मान कम होगा।
हाँ, यह बात जरूर है कि इस टिप्पणी से कॉन्ग्रेस की हिन्दू विरोधी मानसिकता एक बार फिर से उजागर हो गई है। गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार क्यों नहीं मिलना चाहिए? इसके पीछे जयराम रमेश का तर्क है कि गीता प्रेस गांधी जी के दृष्टिकोण से सहमत नहीं रहा है। इस लिहाज से तो अम्बेडकर और सुभाष चन्द्र बोस भी गांधी के विचारों से सहमत नहीं थे। ऐसे में कॉन्ग्रेस पार्टी को इन पर भी अपनी बात रखनी चाहिए।
गांधी ने कल्याण को लेकर कहा था कि कल्याण में कभी भी कोई विज्ञापन नहीं छापा जाए और आज भी कल्याण में विज्ञापन नहीं छापा जाता है। क्या यह गांंधी की विचारधारा का पालन नहीं माना जाएगा।
सनातन धर्म से जुड़ी धार्मिक पुस्तकों के अलावा गीता प्रेस बालक से लेकर वृद्ध व्यक्ति तक के जीवन को सकारात्मक दिशा देने के लिए कई पुस्तकें प्रकाशित करता है।
प्रत्येक हिंदू घर में हैं गीता प्रेस की पुस्तकें
आज एक भी हिंदू ऐसा नहीं होगा जिसके घर गीता प्रेस के प्रकाशित कोई पुस्तक नहीं होगी। हिंदू तो छोड़ ही दीजिए गैर हिंदू के घर से भी गीता प्रेस से प्रकाशित कोई न कोई पुस्तक मिल जाएगी। गीता प्रेस के साथ देश का सम्बन्ध 2014 के बाद से नहीं है बल्कि दशकों पुराना है। यह सब जानकारी होते हुए भी कॉन्ग्रेस आज सनातन धर्म के अनुयायियों के सबसे प्रिय संस्थानों में से एक के बारे में न केवल ऐसे विचार रखती है बल्कि उसे विवादित टिप्पणी के रूप में सार्वजनिक भी कर रही है।
अब सवाल यह है कि कॉन्ग्रेस को गीता प्रेस से समस्या क्यों है? वह तो मात्र हिन्दू धर्म की धार्मिक पुस्तकें और शास्त्र प्रकाशित करने के अलावा कोई अन्य कार्य अर्थात राजनीतिक कार्य तो नहीं करता है। ऐसे में कॉन्ग्रेस को देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थानों में से एक के प्रति इसके अलावा क्या केवल इसलिए समस्या हो सकती है कि संस्थान हिंदुओं का प्रिय है?
दरअसल, यहाँ केवल गीता प्रेस की ही बात नहीं है। यहाँ कॉन्ग्रेस के हिंदू विरोधी मानसिकता की बात है। कॉन्ग्रेस हमेशा से सनातन संस्कृति, उसकी सभ्यता, उसके प्रतीक, उसके चिन्हों को लेकर समय-समय पर विरोध दर्ज करती रही है। राम मन्दिर को लेकर, हनुमान को लेकर और हिंदू संगठनों को लेकर कॉन्ग्रेस का मत सभी भली-भाँति जानते हैं।
कॉन्ग्रेस का हिंदू विरोधी इतिहास
यह हास्यास्पद तो है ही लेकिन चिन्ताजनक भी है कि कॉन्ग्रेस जिस मुस्लिम लीग को आज सेकुलर और RSS को कम्युनल बता रही है यह नेहरू परिवार द्वारा बोए गए बीज का ही परिणाम है।
जवाहर लाल नेहरू 5 जनवरी, 1948 को देश के अधिकांश मुख्यमंत्रियों को पत्र लिख कर मुस्लिम लीग की बैठकों से सांप्रदायिक दंगे होने की संभावना को नकारते हैं और कहते हैं कि हिंदू और सिख सांप्रदायिकता ज़्यादा ख़तरनाक हो रही है।
इसी तरह उत्तरप्रदेश कांग्रेस कमिटी के तत्कालीन अध्यक्ष पुरुषोतम दास टंडन का उदाहरण देख लीजिए जिन्हें नेहरू केवल इसलिए पसन्द नहीं करते थे क्योंकि उनका सनातनी परंपराओं में अटूट विश्वास था। टंडन जब हिंदुओं के हितों की बात करते हैं तो नेहरू उन्हें कहते हैं कि बदनसीबी से आप देश के कई लोगों के लिए सांप्रदायिकता की मिसाल बन गए हैं।
पुरस्कारों का कॉन्ग्रेसी इतिहास
अब रही पुरस्कार न देने की बात तो कॉन्ग्रेस को शायद तकलीफ इसलिए भी हो रही हो कि पुरस्कारों को प्राप्त करने के लिए जो तप की आवश्यकता होती है वो कॉन्ग्रेसी इतिहास में है ही नहीं। इनका इतिहास तो ऐसा है कि खुद को खुद ही भारत रत्न तक दे देते हैं। फिर चाहे नेहरू हों, इन्दिरा गाँधी हों, या फिर राजीव गाँधी। हाँ, राजीव गाँधी का मामला थोड़ा सा अलग जरूर है क्योंकि उसी वर्ष सरदार पटेल को भी भारत रत्न दिया गया, आजादी के कई वर्ष बीतने के बाद।
दरअसल, सच्चाई यह है कि राहुल गाँधी और उनके पिछलग्गू अब कॉन्ग्रेस के इतिहास को बदल कर कॉन्ग्रेस को ‘मुस्लिम-लेफ्ट-कॉन्ग्रेस’ बनाना चाहते हैं। इसीलिए आए दिन कॉन्ग्रेस की ओर से हिन्दू विरोधी टिप्पणियाँ आती रहती हैं और इनमें अब बढ़ोतरी ही होंगी। आम देशवासी यह देख रहा है कि राहुल गाँधी और उनके जयराम रमेश सरीखे मिनियन्स कॉन्ग्रेस को कहाँ ले जा रहे हैं और गीता प्रेस भारत जैसे विशाल देश के लिए क्या कर रहा है।
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