पटना में हुई विपक्ष की बैठक से कांग्रेस का नजरिया कुछ-कुछ साफ होने लगा है। कर्नाटक की जीत ने न सिर्फ कांग्रेस का मनोबल बढ़ाया है बल्कि नजरिया भी बदल दिया है। कांग्रेस का यह नया नजरिया भले ही पार्टी को फायदा पहुँचाए पर यह विपक्ष की कथित एकता के विरुद्ध काम कर सकता है। दरअसल कर्नाटक की सफलता ने कांग्रेस में उत्साह के साथ इस नजरिए को भी बढ़ावा दिया है कि मुस्लिम वोट बैंक फिर से पार्टी के साथ हो गया है। साथ ही दल कर्नाटक की जीत को लोकसभा चुनावों के आगाज के रूप में प्रस्तुत कर रही है। अजय माकन ने तो ऐलान भी कर दिया है कि कांग्रेस के बिना कोई विपक्षी गठबंधन मजबूत हो ही नहीं सकता। अब जब पार्टी इसमें विश्वास करती है कि उसका वोट बैंक फिर से उसके साथ है तो वो स्थानीय दलों को इस गठबंधन में क्या स्थान देगी यह देखने वाली बात है।
विपक्षी दल भी यह समझते हैं। यही कारण है कि ममता बनर्जी पटना में विपक्षी एकता चाहती है पश्चिम बंगाल में नहीं। टीएमसी पर अधीर रंजन लगातार हमलावर हैं और भ्रष्टाचार से लेकर बीजेपी की ‘बी’ टीम होने का तंज कसे जा रहे हैं। जाहिर है टीएमसी भी कांग्रेस पर पलटवार कर रही है। कांग्रेस-टीएमसी की इस राजनीतिक लड़ाई में सुलह संभव भी नहीं है क्योंकि दोनों का कोर वोटर मुस्लिम समाज से आता है। ममता बनर्जी ने इसी धार्मिक तुष्टिकरण को सार्वजनिक दिखाने से भी परहेज नहीं किया है भले ही इसके लिए राजनीतिक हिंसा का सहारा लेना पड़ा हो।
समस्या यह भी है कि अधिकतर स्थानीय दल के लिए कोर वोट बैंक मुस्लिम समुदाय से आता है। ऐसे में कांग्रेस अगर स्वयं को इसी आधार पर सशक्त मानती है तो उसे वोट बैंक के लिए वास्वत में विपक्षी एकता की आवश्यकता नहीं है। पटना में हुई विपक्षी बैठक में कांग्रेस अपने इसी दंभ के साथ गई भी थी। पार्टी को लगता है कि कर्नाटक की जीत के साथ एक बार मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से जुड़ गया है। अगर ऐसा है तो क्या कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर भी मुस्लिम वोट बैंक की ताकत को दोहरा पाएगी? क्या कांग्रेस के लिए स्थानीय दल अपना स्थान खाली करने को तैयार हैं?
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पहले प्रश्न को देखें तो कांग्रेस की स्थिति उतनी बेहतर नजर नहीं आती। कर्नाटक में कांग्रेस को जेडीएस के वोट मिले। साथ ही वहां भाजपा के वोट प्रतिशत में कोई कमी नहीं आई। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को वोट प्रतिशत 19 के करीब है। ऐसे में कर्नाटक की सफलता को राष्ट्रीय स्तर पर दोहराने के लिए मुस्लिम वोट बैंक से कुछ अधिक चाहिए। साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं की प्राथमिकता में भी बदलाव देखा गया है। पिछले 2 चुनावों को चलन देखें तो चाहे उत्तर प्रदेश हो या लोकसभा चुनाव में समुदाय विशेष के वोट का विजयी योगदान नहीं रहा है।
इसके बाद भी वोट बैंक की गणित में समुदाय विशेष महत्वपूर्ण तो है। हालांकि कांग्रेस इसके लिए अकेला दावा करने वाली पार्टी नहीं है। उत्तर प्रदेश में क्या समाजवादी पार्टी अपना स्थान कांग्रेस के लिए छोड़ देगी? टीएमसी तो पहले से ही कांग्रेस को पश्चिम बंगाल से बाहर रहने का इशारा कर रही है। शिवसेना-यूबीटी के प्रमुख नए सेक्यूलर बने घूम रहे हैं।
मध्यप्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक निर्णायक साबित नहीं होते हैं। भोपाल और बुरहान सीट को छोड़ दें बाकी कोई सीट ऐसी नहीं है जहां कांग्रेस को अपनी खुशफहमी का फायदा मिल सके। राजस्थान में 13 प्रतिशत मुस्लिम हैं। पारंपरिक रूप से इनका वोट कांग्रेस के साथ रहता है पर पिछले चुनावों में इस चलन में हल्का बदलाव दिखाई दिया था। कमोबेश इसी स्थिति का सामना कांग्रेस को अन्य राज्यों में भी करना पड़ेगा।
राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरणों के बारे में कांग्रेस को भी पता है। यही कारण है कि दक्षिण में गौरक्षकों को जेल में डालने का आदेश देने वाली कांग्रेस अन्य राज्यों में आते ही सॉफ्ट हिंदूत्व की बात करने लगती है।
मुस्लिम तुष्टिकरण और हिंदूत्व को एक साथ जोड़ कर कांग्रेस कौनसे राजनीतिक गठजोड़ बनाती है यह बाद की बात है। फिलहाल तो कांग्रेस अगर मुस्लिम वोट बैंक पर अकेला दावा करती है तो विपक्षी एकता संभव नहीं और विपक्षी एकता के लिए जाती है तो अपनी साथी पार्टियों को स्थान देना होगा। यह समीकरण किस बैठक में संभव होगा यह देखना दिलचस्प बात होगी।
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