रामायण में कैकेयी ने जब राम के राज्याभिषेक की सूचना सुनी तो वो कोप भवन में जा कर बैठ गयी ताकि राजा को उनका वचन याद दिला सके और उस वचन के बदले अपने पुत्र के लिए सिंहासन मांग सके। ये सबको पता है कि कैकेयी न तो अपने पुत्र को राजा बना पायी, न ही राम का राज्याभिषेक रोक पायी, और तो और उसे अपने पति से भी हाथ धोना पड़ा और युगों-युगों तक लोकपवंचन का भागी होना पड़ा।
इस क्षेपक में नए संसद भवन के अनावरण का बहिष्कार करने वाले दलों के भविष्य की झलकियां मिल रही होंगी तो ये संयोग मात्र है। मेरे लिए इस कहानी में जो महत्वपूर्ण तथ्य है वो है कैकेयी को दशरथ द्वारा दिया गया वचन, जिसने पूरी रामायण की कहानी को संचालित किया, दिशा दी। “रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाये पर वचन न जाई” बोलकर तुलसीदास ने दशरथ के निर्णय को न्यायोचित सिद्ध करने की भरपूर कोशिश की है लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या किसी वस्तुनिष्ठ न्याय प्रणाली में दशरथ खुद को स्वार्थी होने के अपराध से मुक्त कर सकते हैं? न्याय और नैतिकता की दृष्टि से या तो दशरथ को राजा कौन होगा. का फैसला कैकेयी से विचार कर के लेना चाहिए था या दशरथ को कैकेयी को दिया वचन पहले ही सार्वजानिक कर देना चाहिए था।
खैर, अब मुद्दे की बात पर आते हैं कि रामायण में क्यों कैकेयी को दिया वचन, जिसे राजा दशरथ ने गुप्त रखा, महत्त्वपूर्ण है और इसका नए संसद भवन के अनावरण से क्या लेना देना है। क्या कांग्रेस अपने इतिहास की सबसे बड़ी भूल, या यूँ कहें कि खुद के तैयार किये सबसे बड़े झूठ से रूबरू होने से डर रही है, इसलिए संसद भवन के अनावरण से बचने की कोशिश कर रही है? ये लेख इसी बात की पड़ताल करता है और शुरुआत इस शेर के साथ करना उचित होगा क्योकि कांग्रेस के अन्तर्द्वन्द्व को यह कायदे से रेखांकित करता है-
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
ये जान कर भारत के बहुसंख्यक नागरिकों को आश्चर्य हुआ होगा कि भारत की सम्प्रभुता के प्रतीक के तौर पर तमिलनाडु के किसी मठ के आचार्य ने चोल साम्राज्य की परम्परानुसार एक राजदंड का निर्माण कराया था जिसे लार्ड माउंटबेटन ने हिन्दू विधि विधान से नेहरू को सौंप कर सत्ता हस्तांतरण की प्रतीकात्मक घोषणा की थी। यह नेहरू साहब के प्रसिद्ध आधी रात के भाषण के पूर्व बंद दरवाजों के पीछे हुआ एक शासकीय समारोह था, जिसकी सूचना शायद आम नागरिकों को नहीं दी गयी, या यूँ कहें कि ऐसे किसी आयोजन की सूचना आम नागरिकों को देना शासक वर्ग द्वारा उचित नहीं समझा गया। इस प्रकार स्वतंत्र भारत का यह पहला समारोह था जिसको याद रखने की जरूरत नहीं समझी गयी।
ये याद रखने की बात है कि इसी दिन अशोक स्तम्भ के शेरों को भारत के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में भी शामिल किया गया और बाद में संविधान लागू होने पर इसे भारत के शासकीय चिन्ह के रूप में मान्यता दी गयी। आखिर मौर्य साम्राज्य के प्रतीक को राजकीय प्रतीक बनाने वाले लोगों को दक्षिण भारतीय चोल साम्राज्य के प्रतीक को छुपाने की क्या आवश्यकता थी? दोनों ही दर्शन भारतीय वैदिक विचार परंपरा के अंग थे और दोनों ही साम्राज्य भारत की प्राचीन सम्पन्नता और वैभव के उदाहरण थे, और इन साम्राज्यों के प्रतीक स्वतंत्र भारत के लिए गर्व का विषय थे, और शायद ही चोल साम्राज्य के प्रतीक के सार्वजनीकरण या उस प्रतीक के साथ जुड़े सत्ता हस्तांतरण समारोह से किसी सामान्य भारतीय को समस्या होती। ब्रिटिश शासन के प्रतिनिधि द्वारा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री को दिया राजदंड भारतीयों के प्रतिरोध की विजय का प्रतीक था तो फिर इसे छुपाया क्यों गया? इस प्रश्न पर लौटने से पहले राज्य के चरित्र और दर्शन में सूचनाओं के महत्व को समझते हैं, ताकि इस प्रश्न से पैदा हुए सन्दर्भों को समझा जा सके।
किसी राज्य और शासन का चरित्र और दर्शन इस बात से नहीं पता चलता कि वह अपने नागरिकों को क्या बताता है, बल्कि शासक और शासन नागरिकों से क्या छुपाता है, यह शासन और राज्य के चरित्र और दर्शन की ज्यादा महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। कोई राज्य नागरिकों के सामने जब कोई ऐसा तथ्य या प्रमाण रखता है जो उस राज्य के इतिहास के किसी नाज़ुक क्षण से सम्बंधित हो और जो अब तक छुपा हुआ था, तो यह राज्य के बदलते चरित्र और दर्शन का प्रमाण है। छुपा कर रखे गए ऐसे तथ्यों और प्रतीकों के सार्वजनीकरण के माध्यम से राज्य दुनिया के समक्ष अपनी पहचान बदल रहा होता है और यह प्रक्रिया एक सामान्य नागरिक का राज्य के प्रति दृष्टिकोण भी बदल रही होती है। फिर से हम रामायण के अपने क्षेपक पर आते हैं।
कैकेयी को दिए वचन के सार्वजानिक होने से पहले अयोध्या की पहचान एक ऐसे राज्य के तौर पर थी जहाँ बड़ा पुत्र राज्याधिकारी होता था, लेकिन जैसे ही कैकेयी को दशरथ द्वारा दिया वचन प्रभाव में आया, अयोध्या की उस स्थापित परंपरा को पुनः स्थापित होने में चौदह वर्ष लग गए। उस एक वचन ने अयोध्या के राज्य और उसके राजा के स्वरुप को बदल कर रख दिया और राज्य की परंपरा और राजा के वचन के बीच द्वन्द में फंसे दशरथ ने प्राण त्याग दिए ये कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।
तो सवाल ये उठता है कि आखिर मॉउन्टबेटन द्वारा सौंपे गए राजदंड को नेहरू द्वारा छुपाया क्यों गया? जो लोग ये तर्क दे रहे हैं कि आज़ाद हिंदुस्तान कोई राजशाही नहीं होने वाला था जहाँ राजा राजदंड हाथ में लेकर राज्य चलता, उनका तर्क इसलिए मूर्खतापूर्ण है क्योकि ये बात तो नेहरू साहब को इस पूरी कवायद के पहले सोचनी चाहिए थी। पूरी कवायद ख़त्म होने के बाद उस कवायद में उपयोग हुए सामान को आनंद भवन में नेहरू जी को उपहार में मिली छड़ी के तौर पर रखवा देना पाप था, इतिहास से धोखा था। किसी ऐतिहासिक महत्व की सामग्री को संग्रहालय में रखा जाये, यहाँ तक तो बात समझ में आती है लेकिन उस सामग्री का ऐतिहासिक सन्दर्भ और अर्थ ही बदल कर संग्रहित किया जाये तो ये इतिहास को बदल देने की कवायद ही कही जाएगी।
प्रकरण की इतिहास में किसी अन्य प्रकरण के साथ समानता याद आती है वो ये है कि भारत में ऐसी इमारतें हैं जो कभी हिन्दू हुआ करती थीं लेकिन इस्लामिक आक्रमणकारियों ने उनका स्वरुप बदल दिया। ऐसी इमारतों को उनके मौलिक स्वरुप में लाने की मांग को इस्लामॉफ़ोबिआ कहा जाता है और ऐसी मांग करने वाले लोग फासीवादी और हिन्दू अतिवादी कहे जाते हैं।
क्या नेहरू साहब और उनके अनुयायी उक्त राजदंड को नेहरू साहब को उपहार में मिली छड़ी के नाम से संग्रहित करवा कर उन्ही इस्लामी आक्रमणकारियों के साथ नहीं खड़े हो गए हैं?
हालाँकि नेहरू साहब के कृत्य का कम से कम एक स्पष्टीकरण मैं दे सकता हूँ जो किसी नैतिक दावे पर नहीं किन्तु नेहरू साहब की राजनीतिक बाध्यताओं पर आधारित है। शायद नेहरू साहब जो स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने, उनको सांप्रदायिक कारणों से हिन्दू रीति-रिवाज़ से हस्तांतरित किये गए राजदंड का प्रदर्शन करने से समस्या थी। ये कारण उचित जान पड़ता है, जब हम नेहरू साहब के सोमनाथ मंदिर और राम जन्मभूमि के बारे में दृष्टिकोण को देखते हैं। इस प्रकार के हिन्दू विधि-विधान से हस्तांतरित किये गए राजदंड के सार्वजानिक प्रदर्शन से नेहरू साहब की धर्मनिरपेक्ष छवि धूमिल होती थी और देश के बचे हुए मुस्लिम जो व्यक्तिगत तौर पर नेहरू के लिए एक बड़े और स्वाभाविक वोट बैंक थे, नाराज हो सकते थे और किसी इस्लामिक पार्टी के झंडे के नीचे एकत्र हो सकते थे। नेहरू के इस दृष्टिकोण को इस आधार पर उचित ठहराया जा सकता है कि एक तो वो नेता थे और उनका एक स्थायी वोटबैंक के लिए स्वार्थी होना कोई आश्चर्य कि बात नहीं थी, और दूसरा कि एक नए-नए स्वतंत्र हुए देश में, जो धार्मिक दंगों से घिरा हुआ था, इस प्रकार का प्रदर्शन सांप्रदायिक समस्या को अगर बढ़ाता नहीं तो कम भी न करता। लेकिन अगर इस व्याख्या को मान लिया जाये तो नेहरू साहब भारतीय संस्कृति की कीमत पर मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने के आरोपी हो जाते हैं।
एक तीसरा कारण कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति दिखाई देता है जिसमें नेहरू साहब कांग्रेस के हिंदूवादी नेताओं के दबाव में नहीं दिखना चाहते थे। जिनको न पता हो उनको बता दें कि स्वतंत्रता के समय कांग्रेस एक हिंदूवादी पार्टी ही थी और राज्य कांग्रेस समितियों में हिंदूवादी नेताओं का बोलबाला था जिनके नेता सरदार वल्लभभाई पटेल थे। राज्य स्तर पर कांग्रेस के हिंदूवादी नेताओं में प्रमुख नाम उत्तर प्रदेश से पंडित गोविन्द वल्लभ पंत, गुजरात-महाराष्ट्र से श्री कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी, बिहार से डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, मद्रास राज्य से श्री राजगोपालाचारी आदि थे। उस समय की परिस्थितियों का यह मेरा आकलन है और मैं किसी और सम्भावना के लिए पाठकों को स्वतंत्र छोड़ता हूँ कि राजदंड को सार्वजानिक न करने के नेहरू के फैसले को वो कैसे देखते हैं।
नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री एक छोटे और अशांत समय के लिए प्रधानमंत्री बने इसलिए उनको भी राजदंड छुपाने का दोष देना मैं उचित नहीं समझता। शास्त्री साहब तो इतने बेचारे थे कि नेहरू साहब की पुत्री इंदिरा गाँधी ने चिट्ठियां लिख-लिख कर उनको इतना प्रताड़ित किया कि वो कभी तीन-मूर्ति भवन में घुसे ही नहीं, जो नेहरू के शासनकाल में आधिकारिक प्रधानमंत्री निवास हुआ करता था। लेकिन शास्त्री के बाद आये प्रधानमंत्रियों खास कर इंदिरा गाँधी के सामने मुस्लिम तुष्टिकरण को छोड़ कर ऐसा कोई कारण नहीं था कि उन्होंने सत्ता हस्तानांतरण के प्रतीक राजदंड को सामान्य जनता से छुपाये रखा। मुझे ठोस जानकारी नहीं है लेकिन मुझे ऐसी सम्भावना दिखती है कि नेहरू के समय तक वह राजदंड दिल्ली में ही रहा होगा और इंदिरा गाँधी के समयकाल में मूर्धन्य वामपंथी इतिहासविदों ने उक्त राजदंड पर नेहरू को उपहार में मिली छड़ी का मुलम्मा चढ़ा कर इतिहास बदलने की कोशिश की होगी। इस सन्दर्भ में मुझे भी कौतुहल है और राजकीय दस्तावेज देखने पर यह पता लगाया जा सकता है कि उक्त राजदंड को नेहरू की छड़ी बता कर कब संग्रहालय में रखा गया।
अब राजदंड सार्वजानिक हो चुका है और जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा और नए तथ्य बाहर आते जायेंगे, भारत के सामान्य नागरिकों का भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास, स्वतंत्रता पश्चात की कांग्रेस और भारतीय राज्य के प्रति दृष्टिकोण बदलता जायेगा इसमें कोई दो राय नहीं है। राजदंड का इस प्रकार सार्वजनिक होना और नए संसद भवन के अनावरण के समय उपस्थित रहना इस बात की तरफ भी इशारा है कि भारतीय राज्य का कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण वाले स्वरुप से भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद वाले स्वरुप की तरफ संक्रमण पूर्ण हो चुका है और किसी भी प्रकार इस परिवर्तन को अब दशकों तक बदला नहीं जा सकता। ऐसा मैं क्यों कह रहा हूँ इसको समझने के लिए प्रतीकों के महत्व को समझना जरूरी है।
राज्य निर्माण में प्रतीकों की भूमिका
प्रसिद्द विचारक एरिक हॉब्सबॉन के अनुसार राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान के अतिरिक्त इमारतें, पुस्तकें, खेल, और राष्ट्रीय अवकाश आदि प्रतीक भी राष्ट्रीय पहचान निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आपने कभी सोचा है कि अशोक स्तम्भ के शेरों की आकृति भारतीय गणराज्य के राष्ट्रीय चिन्ह के रूप में क्यों ली गयी? क्या ये एक औपचारिकता मात्र थी जिसको संविधान निर्माताओं ने ऐसे ही हलके फुल्के ढंग से स्वीकार कर लिया? चलिए मान लिया कि राष्ट्रीय चिन्ह ऐसे ही ले लिया गया होगा क्योकि वो शेर बड़े खूबसूरत और मर्दाने दिखते हैं, लेकिन एक और सवाल का जवाब सोचिये। सवाल ये है कि राष्ट्रीय चिन्ह में जो धर्म चक्र है, उच्चतम न्यायलय के प्रतीक चिन्ह में वो राष्ट्रीय चिन्ह के ऊपर क्यों विराजमान है? जाहिर सी बात है कि इन प्रतीकों को यूँ ही नहीं ले लिया गया है और इनके गूढ़ मतलब हैं। संविधान निर्माताओं ने खूब समय और दिमाग लगाकर इन प्रतीकों को चुना है। राज्य के प्रतीक वो शेर चारों दिशाओं में देख रहे हैं जो राज्य के संप्रभु, शक्तिशाली, और सर्वव्यापी होने का संकेत है लेकिन शेरों के आधार में धर्म चक्र इस बात का द्योतक है कि इन शेरों की हिंसात्मक शक्ति का आधार धर्म अर्थात संविधान है। उच्चतम न्यायलय के प्रतीक में वही धर्म चक्र राष्ट्रीय प्रतीक के ऊपर बड़े आकार में उपस्थित है, अर्थात राज्य की शक्तियां संविधान अर्थात धर्म द्वारा सीमित है। यहाँ यह बता दूँ कि यह अशोक चिन्ह के बारे में मेरी समझ है। कई विद्वान नेहरू साहब के संविधान सभा में २२ जुलाई १९४७ को दिए भाषण को उद्धृत करके अशोक स्तम्भ के शेरों को शांतिप्रियता का प्रतीक बताते हैं जो चारों दिशाओं में संस्कृति, शांति के प्रचार को प्रदर्शित करते हैं। हालाँकि, २२ जुलाई का नेहरू साहब का संविधान सभा में भाषण अशोक स्तम्भ के शेरों के बारे में बिलकुल नहीं था बल्कि उक्त सम्बोधन में नेहरू साहब भारत के राष्ट्रीय ध्वज में धर्म चक्र ही क्यों होना चाहिए के बारे में सदन के सम्मुख अपने विचार रख रहे थे। मैं ये पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वो शेर जैसे जानवर को अहिंसा का प्रतीक स्वीकार करने के लिए तैयार हैं या नहीं।
जनता के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक विकास पर प्रतीकों का प्रभाव
ये तो स्पष्ट है कि प्रतीकों और संकेतों का गहरा महत्व होता है और प्रतीकों के माध्यम से व्यक्ति एक समूह के साथ अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त करता है। यह केवल राष्ट्रीय प्रतीकों और संकेतों के लिए ही सही नहीं है बल्कि धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रतीकों के साथ जुड़कर भी व्यक्ति सामूहिकता का प्रदर्शन करता है और दूसरे समूहों से अलग दिखना चाहता है। लेकिन क्या ये प्रतीक किसी देश और समाज के विकास की दिशा भी तय करते हैं, या तय करने की क्षमता रखते हैं? चलिए इस प्रश्न पर भी विचार करते हैं।
रेयमंड फ़र्थ जिन्होंने प्रतीकों के मानव वैज्ञानिक प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया है अपनी प्रसिद्द पुस्तक “सिम्बल्स: पब्लिक एंड प्राइवेट” में लिखते हैं कि किसी समाज के प्रतीक उस समाज के ज्ञान, मूल्यों, संस्कृति, इतिहास और यादों के सूक्ष्म द्योतक होते हैं। भारत इस मामले में बहुत समृद्ध देश रहा है और भारतीय संस्कृति में बहुतायत में प्रतीक उपलब्ध हैं जो भिन्न-भिन्न समय, काल और परिस्थिति से सम्बंधित हैं। उपयुक्त समय पर समाज इन प्रतीकों का उपयोग करता है।
स्वतंत्रता के पश्चात गाँधी जयंती को अवकाश घोषित करने का इसके अलावा क्या उद्देश्य हो सकता है कि हम एक देश और आधुनिक राष्ट्र के तौर पर खुद को गाँधी के आदर्शों के अनुसार देखें। इसके पहले ही मैंने बताया है कि नेहरू साहब अशोक के राज्य से प्रेरणा लेकर भारतीय राज्य की आधारशिला रख रहे थे और २ अक्टूबर और अशोक स्तम्भ ने हमारे मानस को और हमारी सामाजिक विकास प्रक्रिया को बहुत गहराई से प्रभावित किया है। प्रतीकों के सामाजिक विकास पर प्रभाव को समझने के लिए पाकिस्तान को देखना आवश्यक है जो इस्लाम को अपनी राष्ट्रीय पहचान के तौर पर देखता है। ये मानना बेईमानी होगी कि आज का पाकिस्तान जिन्ना के सपनों के इस्लामिक समाज से अलग है क्योकि भारतीय इस्लाम प्रतीकात्मक तौर पर हिंसा, मतांतरण और धार्मिक विध्वंश को ही इंगित करता है।
भारत के अंदर ही देखना हो तो अगर देखा जाये कि कोई सामुदायिक भीड़ किन प्रतीकों का देश के प्रति सम्मान दिखाने के लिए इस्तेमाल करती है और किन प्रतीकों को नकार देती है, तो हम ये समझ सकते हैं कि किस तरह अलग-अलग प्रतीकों का चयन देश के भीतर ही विभिन्न समुदायों की विकास प्रक्रिया को तय करता है। इस सन्दर्भ में “भारत माता की जय” और “जय हिन्द” दोनों ही नारे देश के प्रति अपने सम्मान को प्रदर्शित करने के लिए प्रतीकात्मक रूप से उपयोग किये जाते हैं लेकिन दोनों नारे सामाजिक विकास की दो अलग अलग संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। भारत माता की जय बोलने वाली भीड़ के सदस्य सहोदरता के सूत्र से जुड़े हैं और क्योकि जमीन को वो मां कह रहे हैं और उसके प्रति उनकी प्रतिबद्धता में पारिवारिकता की भावना है, इस प्रकार माँ के माध्यम से वो एक परिवार हो जाते हैं। जय हिन्द बोलने वाली भीड़ का आशय ठीक वही है जो भारत माता की जय बोलने वाली भीड़ का लेकिन जय हिन्द में पारिवारिक सहकारिता का आभाव है और भीड़ के सदस्य देश के माध्यम से एक दूसरे से नहीं जुड़े हैं लेकिन वो अलग-अलग व्यक्तिगत तौर पर देश से जुड़े हैं। जय हिन्द आर्थिक संवृद्धि तो लाएगा लेकिन आर्थिक विकास जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकार शामिल हैं, उसकी सम्भावना भारत माता की जय बोलने वाली भीड़ में ज्यादा है। भारत माता की जय बोलने वाली भीड़ अपनी कमियों को स्वीकार करने के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा तत्पर होगी जबकि जय हिन्द बोलने वाली भीड़ भाड़े के सैनिक की तरह होगी, जिसका उद्देश्य सिर्फ देश प्रेम की कीमत वसूलना होगा।
भारत में ही संविधान सभा जिसमें सवर्णों का भारी बहुमत था, ने स्पष्ट मत से भारतीय समाज के निर्बल वर्ग को आरक्षण का प्राविधान किया। क्या विश्व के इतिहास में कोई ऐसा उदाहरण मिलता है जहाँ सत्ता हाथ में आने पर शासक वर्ग ने शासित वर्ग के एक तबके को इतनी व्यापक संवैधानिक सुरक्षा दी हो? क्या भारत के संविधान निर्माताओं ने कई यूरोपीय देशों के पहले महिलाओं को मताधिकार का निर्णय देकर उनको सबल बनाने कि दिशा में प्रयत्न नहीं किये। क्या भारतीय संसद के सदस्य जिनमें सर्वर्णों का एकाधिकार था, ने हिन्दू कुरीतियों को हिन्दू कोड बिल बना कर समाप्त करने कि दिशा में कदम नहीं उठाये? और क्या कोई इस बात से इंकार कर सकता है कि आंबेडकर की अनुशंसा पर आये हिन्दू कोड बिल ने हिन्दू समाज को संगठित नहीं किया। क्या संविधान सभा में बैठे लोग भारतीय परंपरा और इतिहास के सुधारवादी और नूतन परिवर्तन करने के प्रतीकों से प्रेरित नहीं थे? संविधान सभा में विभिन्न सदस्यों के व्याख्यानों में ही भारतीय परंपरा के प्रतीकों की झलक मिल जाती है। वहीँ दूसरी तरफ भारत का मुस्लिम समाज लगातार अपनी कुरीतियों को अल्पसंख्यकवाद की आड़ लेकर छुपाता रहा और अपनी कुरीतियों को बचाये रखने के लिए सड़क पर संघर्ष करने के लिए आमादा रहा। आजादी के समय से आजतक हिन्दू दलितों और मुस्लिमों के विकास की तुलना कर के कोई भी देख सकता है कि अम्बेडकर के प्रतीक ने दलितों के बीच शैक्षणिक चेतना का प्रसार किया है और आज वो समाज की मुख्यधारा हैं जबकि मुस्लिम समाज सिर्फ पहचान के प्रश्नों में ही उलझा हुआ है।
राजदंड का प्राकट्य और भारत की राजनीति
लोकतंत्र में शासक का चुनाव जनता करती है। निश्चित तौर पर संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार “हम भारत के लोग” पिछले सत्तर सालों से प्रधानमंत्री या पेशवा का चुनाव करते रहे हैं लेकिन संवैधानिक चुनावी प्रक्रिया में भारत की ऐतिहासिक सांस्कृतिक परंपरा से ऐक्य का आभाव था। हालाँकि संविधान आधुनिक युग की स्मृति की ही भांति है लेकिन फिर भी पुरानी स्मृतियों से संविधान का संपर्क उपनिवेशवाद के अवरोध के कारण अधूरा था। इस राजदंड के प्राकट्य ने आधुनिक प्रधानमंत्री को पेशवा से जोड़ दिया और संविधान को धार्मिक ग्रन्थ की मान्यता दे दी। इस धर्मदंड के आलोक में, संविधान किसी भी जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्रियता के व्यक्ति को पेशवा नियुक्त होने का अधिकार देता है और जनता को ये जिम्मेदारी देता है कि वह योग्य पेशवा का चुनाव करे। इस प्रकार यह राजदंड आधुनिकता का परंपरा से मिलन पूर्ण करता है।
चोल साम्राज्य का प्रतीक राजदंड भारतीय संस्कृति की उस ऐतिहासिक मुख्यधारा का प्रतीक है, बुद्ध जिसके हिस्से हैं। अशोक के साम्राज्य की ही भांति चोल साम्राज्य पूरे पूर्वी एशिया में विस्तृत था। मौर्य स्थापत्य की भाँति चोल स्थापत्य भी विस्तृत और विराट हैं जिसके सन्देश सार्वभौमिक और शाश्वत हैं। मौर्य और चोल साम्राज्य से राष्ट्रीय प्रतीक ग्रहण करना उत्तर और दक्षिण भारत के सांस्कृतिक ऐक्य को पुष्ट करना है, ऐतिहासिक स्वरुप देना है। अभी तक भारतीय राज्य आंशिक भारतीय था और इसमें उपनिवेशवाद जनित भय और आशंका आवश्यक तत्व के रूप में शामिल थे। नए संसद भवन में चोल साम्राज्य के प्रतीक राजदंड का उपस्थित होना भारतीय राज्य के भय और आशंका रहित होने की दिशा में प्रयाण है। उक्त राजदंड के ऊपर स्थापित नंदी, अशोक चक्र पर अंकित बैल का पूरक है। स्वर्णदंड भारत की चोल सम्राज्य की भांति संपन्न होने की आकांक्षा को उपयुक्त रूप से रेखांकित करता है और भारतीय नागरिकों को विकसित भारत बनाने की दिशा में प्रयास करने के लिए प्रेरित करता है।
कांग्रेस और सहयोगी दल जो संसद के अनावरण का बहिष्कार कर रहे हैं, वो कुछ अप्रत्याशित नहीं कर रहे हैं। जैसे औरंगजेब और मुहम्मद बिन तुगलक के अनुयायियों से ये उम्मीद करना बेमानी है कि वो भारत के सांस्कृतिक धरोहरों के विनाश को स्वीकार करेंगे, वैसे ही चोल साम्राज्य के प्रतीक राजदंड को नेहरू साहब की छड़ी बता कर संग्रहालय में स्थापित करने वाले राजनीतिक विचार से ये उम्मीद करना कि वो स्वतंत्र भारत के इतिहास के पहले क्षण के साथ की गयी बेईमानी से आखें चार कर पाएंगे, व्यर्थ है। ये दोनों ही प्रकार के लोग भारत के साथ सिर्फ सौदेबाज़ी के सम्बन्ध में हैं।
जो भारत को एक परिवार की तरह देखते हैं, ये संसद की इमारत उनकी है।
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