बहन कामरेड बहुत चिंतित थीं। लंबे समय से देश में ‘फाशीवाद’ का माहौल चल रिया था। एक मिनट! मैं ‘स’ को ‘श’ नहीं बोलता। अन्यथा न लें! दरअसल, बहन कामरेड अंग्रेजी में फाशिज्म बोलने की आदी हैं। वहीं तालव्य हिंदी में सहज आयातित होकर फाशीवाद बन जाता है। वैसे, बहन कामरेड फासीवाद भी बोलें तो कोई अंतर नहीं पड़ता। इस देश के लोगों को फांसी ही सुनाई देता है।
भाषा मुद्दे को भटकाने का एक अच्छा साधन है। यहीं देखिए, बात अटक-भटक गई। तो मौजूं ये है कि एक जमाना था जब रूस में पानी बरसता था तो हिंदुस्तान के कामरेड भाई-बहन छाता खोल लेते थे। मुहावरा है। वैसे तो यहां बारिश होने पर भी छाता खोलते ही रहे होंगे। छाता समझते हैं न? इंश्योरेंस, या कहिए सुरक्षा कवच। राजनीति में पार्टी को छाता कहा जाता है। जैसे, भारतीय जनता छाता, भारतीय कम्युनिस्ट छाता, समाजवादी छाता, आदि। कांग्रेस छाता नहीं है। इस पर कभी आगे बात करेंगे।
तो हुआ ये कि अब रूस में बारिश बंद हुए कोई तीस बरस हो चुके थे और छाता कोने में पड़ा सड़ रहा था। बहन कामरेड भी कोई एक दशक से छाते के बिना खुलेआम चौतरफा चर रही थीं। किसी भी मेले में मुट्ठी उठा के चली जाती थीं। छाते को भी उनसे कोई दिक्कत नहीं थी। फिर अचानक एक दिन मेघ गड़गड़ाए, बिजली चमकी, धुआं उठा और बादल फट गया। शुरू में तो थोड़ा भ्रम हुआ कि क्या करें, छाता खोलें या नहीं। समझ ही नहीं आ रहा था कि पानी गिर कहां रहा है, रूस में या उसके पड़ोस में। कोई तीन हफ्ते भ्रम की स्थिति रही। छाता बहन का मुंह देखे, बहन छाते का।
इंकलाबी पार्टी में गतिरोध की स्थिति नहीं आनी चाहिए। बहस जरूरी है। तो बहस शुरू हुई कि पानी कहां बरसा है। इस पर दो मत थे। पार्टी मानती थी कि बारिश रूस में हुई है। बहन कामरेड का कहना था कि बारिश यूक्रेन में हुई है। बहन कामरेड के सामने सवाल था कि छाता खोल लें या हमेशा के लिए फेंक दें। उस पर देश में ‘फाशीवाद’ का दबाव अलग से था। फैसला लेने की जल्दी इसलिए थी क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में पार्टी के भीतर बहस की परंपरा कमज़ोर पड़ चुकी थी चूंकि पार्टी फल की चिंता किए बगैर निष्काम कर्म में लिप्त रहना सीख चुकी थी। बस, उसका औपचारिक लिबरेशन बाकी था। ऐसे में बहन के लिए यह फैसला लेना बहुत जरूरी हो चुका था कि छाता खोलने की सच्ची वस्तुगत स्थितियां आ चुकी हैं या यह मीडिया का प्रोपेगंडा मात्र है।
अब पता नहीं कामरेड बहन को छाते के बाहर रहने की लत लग चुकी थी या वाकई पानी रूस में नहीं बरसा था, पर उन्होंने लाइन ले ली- उक्रेन के मुद्दे पर पार्टी से अपनी राहें अलग करने की लाइन। मीडिया से उन्होंने खुल कर कहा कि दरअसल मैं कुछ जरूरी सवाल उठाना चाह रही थी। रिपोर्टर ने पूछा कि क्या पार्टी में सवाल उठाना गुनाह है। इस पर बहन ने कहा नहीं। फिर इस्तीफा क्यों? छाता उठाकर फेंकने की क्या जरूरत थी? सड़ने देते रहतीं उसे? बहन कामरेड मुस्कुराईं और रिपोर्टर को इतिहास के ऐसे कोने में उठा कर ले गईं जहां स्टालिन और हिटलर आपस में हाथ मिला रहे थे। बीबीसी की दिव्य रिपोर्टर इतिहास से अनजान थी। मासूम थी। उसने पूछा, आगे क्या करना है। बहन कामरेड बोलीं- ऐसे ही चरती रहूंगी, बिना छाते के।
इस बयान पर बरसों से सांयसांयवाद के शिकार लाल कुएं में जमी काई मचलने लगी। पुराने चूहे बिलों से निकल आए। वर्चुअल जंतर मंतरों पर बहन कामरेड को सुधारवादी और क्रांति विरोधी ठहराया जाने लगा। यह देखकर शकरपुर की गलियों में लिबरेटेड पड़ा छाता बेचैन हो उठा। उसने खुद को बड़ी मुश्किल से खोला और बोला- बहन अब हमारे साथ नहीं हैं लेकिन उनकी ट्रोलिंग बर्दाश्त नहीं की जाएगी। इस बयान पर लाल कुआं ऐतिहासिक भ्रम से हिलने लगा। अरे? ये कम्युनिस्ट छाता है या लिबरल छाता? यहां तो बाहर जाने वाला वर्ग शत्रु माना जाता है, फिर बहन से ऐसी सहानुभूति काहे की?
कुएं में जमी काई उछल कर किताबी चेहरों पर आ गई। चौतरफा सवाल उठने लगे कि असल में लिबरेट कौन हुआ है? बहन कामरेड या छाता? सवाल और पीछे गया। असल में बंधक कौन था? कामरेड या पार्टी? बहस करने वाले मुट्ठी भर गुदड़ी के थे पर बहन कामरेड को ये बात रास नहीं आई कि बात यूक्रेन और मुद्दे पर नहीं, उन पर केंद्रित हो गई है। बहन कामरेड बरसों पार्टी के पालित ब्यूरो में रह कर आत्म से मुक्त हो चुकी थीं और केवल दूरदृष्टि पर यकीन करती थीं। सो, उन्होंने अपनी ट्रोलिंग से परेशान होकर एक बयान दे डाला- संघी और कम्युनिस्ट ट्रोल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
ये सुनते ही उदार छाता फिर से खुद में सिमट गया। लाल कुएं का बचा खुचा पानी-पत्थर मार्क्स की उक्ति के अनुसार भाप बन कर हवा में उड़ गया। यूक्रेन की बारिश में कृष्णवर्णी आकाश कवितामय हो गया। फेसबुक पर फाशीवाद का क्षय हो गया।