बंगाल में दुर्गा पूजा को धूमधाम से मनाया जाता है। पूजा के लिए प्रदेश में थीम आधारित पांडाल बनाए जाते हैं। ऐसा ही एक पांडाल जो कि भारतीय सिक्कों के इतिहास पर आधारित है। इसे बाबू बागान द्वारा बनाया गया है। बाबू बागान दुर्गा पूजा आयोजन समिति ने अपने 61वें पांडाल को ‘माँ तुझे सलाम’ थीम पर सजाया है। यह दक्षिण कोलकाता के ढाकुरिया में स्थित है।
देश इस समय आजादी के अमृत महोत्सव को मना रहा है और यह पांडाल इसको धरातल पर साकार करते नजर आ रहा है। भारतीय संस्कृति को इतिहास से जोड़ने का इससे सुनहरा अवसर नहीं हो सकता है। इस पांडाल में आजादी के बाद से अब तक जारी हुए सभी सिक्के शामिल किए गए हैं।
जहाँ पांडाल में कुछ सिक्के वास्तविक हैं तो कुछ उनकी प्रतिकृति। इसको बनाने में 2-3 महीनों का समय लगा है और 30 से 40 लाख रुपए खर्च हुए हैं। माँ दुर्गा की मूर्ति को इस कॉइन म्यूजियम में स्थापित किया जाएगा। समिति ने इसे भारत की आजादी के नायकों को समर्पित किया है।
कोलकाता की दुर्गा पूजा
गंगा नदी के किनारे बसे इस शहर में दुर्गा पूजा (पूजो) बड़े स्तर पर मनाई जाती है। गंगा को ही यहाँ हुगली भी कहते हैं। कोलकाता को सांस्कृतिक राजधानी के रूप में भी जाना जाता है। ऐतिहासिक काल से ही यहाँ पर समृद्ध संगीत, नृत्य और धार्मिक संस्कृति का भंडार रहा है।
बंगालवासियों में हमेशा से शक्ति पूजा का चलन था। हर वर्ष कोलकाता आश्विन (अक्टूबर-सितंबर) में भव्य स्तर पर दुर्गा माँ के आगमन के लिए तैयार रहता है। दुर्गा माँ का जिक्र कई वैदिक ग्रंथों में मिलता है, जिनमें रामायण और महाभारत भी शामिल है। 15वीं शताब्दी में कृत्तिबासी द्वारा रचित रामायण में वर्णन मिलता है कि रावण से युद्ध पूर्व श्रीराम ने माँ दुर्गा की पूजा 108 नील कमल और 108 पवित्र दीपों से की थी।

जिस दिन श्रीराम ने रावण को हराया था, उस दिन दशहरा मनाया जाता है जो कि दुर्गा पूजा के 10वें दिन आता है। इतिहास में जमींदारों द्वारा दुर्गा पूजा के भव्य उत्सवों के आयोजन का उल्लेख मिलता है। बोनेदी बाड़ीर पूजो (जमींदारों के घर पूजा) बंगाल में एक बड़ी प्रथा के रूप में प्रचलित है।
बंगाल के हर घर में माँ दुर्गा का घर की बेटी के रूप में स्वागत होता है। जहाँ वो 9 दिन रहने आती है। माँ अपने घर अकेले नहीं बल्कि अपने बच्चों भगवान गणेश और कार्तिकेय के साथ आती हैं। विजया दशमी के दिन वो अपने पति के घर वापस लौट जाती है। माँ का उत्सव षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी और नवमी के उत्सव से शुरू होता है।
माता को हर घर से भोग समर्पित किया जाता है, जिसमें प्रत्येक दिन मंडलियों द्वारा भाग लिया जाता है। पूजा के आखिरी दिन माता को ढाक बजाते हुए धूमधाम से नदियों में विसर्जित किया जाता है, ताकि अगले साल फिर उनके आगमन की तैयारी कर सके।
पूजा के लिए बाँस से बने मंडप जो कि पांडाल कहे जाते हैं, में पंडितों के द्वारा पूजा की जाती है। माँ को फूल, फल, मिठाई, इत्र और चंदन भेंट कर के मंत्रोच्चारण किया जाता है।
हावड़ा में ही स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित बेलूर मठ में हर वर्ष दुर्गा पूजा का आयोजन किया जाता है। यहाँ वर्ष 1901 में स्वामी विवेकानंद द्वारा पहली बार दुर्गा पूजा की गई थी।
दुर्गा पूजा क्यों की जाती है
भारतीय संस्कृति में वर्णित देवियों में माँ दुर्गा सर्वोच्च स्थान रखती हैं। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, माता की उत्पत्ति ‘त्रिदेव’ यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) से हुई है।

कथा के अनुसार, एक असुर के यहाँ पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम उसने महिषासुर रखा था। महिषासुर ने बालपन से असुरों पर देवों की विजय देखी तो क्रोध से भर गया। असुरों की जीत के लिए महिषासुर ने शक्ति पाने के लिए भगवान बह्मा की कठोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान बह्मा ने महिषासुर को वरदान दिया कि उसे युद्ध में कोई स्त्री ही हरा सकती है।
महिषासुर का मानना था कि किसी स्त्री में इतनी शक्ति नहीं हो सकती कि वो उसे हरा सके, इसलिए यह वरदान उसको चिरायु देने वाला प्रतीत हुआ। इसी विचार से महिषासुर ने संपूर्ण सृष्टि में हाहाकार मचा दिया।
विश्व विजेता बनने की चाह में उसने देवताओं पर भी आक्रमण कर दिया। देवताओं और महिषासुर के बीच हुए भीषण युद्ध में अमरावती में इंद्र को हार का सामना करना पड़ा था। स्वर्ग पर असुरों का कब्जा होने पर देवतागण त्रिदेव की पास मदद माँगने गए।

त्रिदेव ने स्थिति का चिंतन करने के बाद अपनी शक्तियों से एक ऊर्जा का निर्माण किया, जो माँ दुर्गा के रूप में जानी गई। उन्होंने महिषासुर को युद्ध के लिए आह्वान दिया तो उसे लगा एक स्त्री मुझे क्या हराएगी।
युद्ध छिड़ने के बाद जल्द ही महिषासुर को माँ की शक्तियों का एहसास हो गया। दोनों के बीच 10 दिनों तक युद्ध जारी रहा, अंतिम दिन माँ ने भैंस का रूप धारण कर रखे महिषासुर का धड़ सिर से अलग कर दिया। इसके बाद वो महिषासुर मर्दिनी नाम से पहचानी गई। इस गौरवशाली दृश्य का वर्णन दुर्गा पूजा के दौरान कई पांडालों में नजर आता है।
माँ दुर्गा की मूर्तियाँ
पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में माँ को निराकार शक्ति के रूप में ही चित्रित किया गया है। माँ ने स्वयं को ‘आदि पराशक्ति’ कहा है। हालाँकि, पंडालों में माँ का भव्य रूप दिखाई देता है। यह रूप पुराणों में वर्णित उनकी महिमा के अनुरूप कलाकार उसे मिट्टी और रेत के मिश्रण से साकार करते हैं।
उत्तरी कोलकाता के कुमारतुलि क्षेत्र में भव्य स्तर पर माँ दुर्गा की मूर्तियों का निर्माण होता है। कुमारतुलि 17वीं शताब्दी से पहले की बसावट का शहर है। अंग्रेजों के आगमन के बाद कुम्हार समुदाय के लोग हुगली नदी के करीब इस क्षेत्र में आकर बस गए थे।

यहीं पर उन्होंने मूर्ति कला की शुरुआत की, जिसकी विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है। दुर्गा पूजा के लिए मूर्तियां बनाना एक सतत प्रक्रिया है। इसका पहला कदम सामग्री एकत्रित करना है। फिर, कलाकार इसे रूप प्रदान करता है और इसके बाद चित्रकारी और सजावट करता है।
मूर्ति निर्माण में इस्तेमाल होने वाली सामग्री में बाँस, पुआल, भूसी और पुण्य माटी शामिल है। पुण्य माटी- पवित्र गंगा नदी के किनारे की मिट्टी, गोबर, गौमूत्र, वेश्यालय की मिट्टी (इसे निशिद्धो पल्ली भी कहते हैं) का मिश्रण होती है।

माँ दुर्गा के मूर्ति निर्माण के कई चरण होते हैं, जिनमें सबसे कठिन उनके चेहरे की भाव-भंगिमाओं को चित्रित करना है। माता का आक्रमक लेकिन, शांत चेहरा उकेरने के लिए कलाकार घंटों मेहनत करते हैं।
सबसे अंत में जब माँ के धरती पर आगमन का दिन होता है, उस दिन उनकी आँखे बनाई जाती है। इस अंतिम स्पर्श को ‘चौखू दान’ नाम की परंपरा द्वारा माता को दिया जाता है।
पश्चिम बंगाल में क्यों है इतना महत्व
पूरे देश में दुर्गा माँ के आगमन पर भव्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है लेकिन, पश्चिम बंगाल में इसका अलग ही रूप सामने आता है। यहाँ पर देवी माँ के आगमन पर पांडाल बनाए जाते हैं। कई तरह की रीतियों के साथ इस उत्सव को मनाया जाता है। हालाँकि, यहाँ यह भव्य आयोजन क्यों होते हैं इसके इतिहासकार अलग-अलग कारण बताते हैं।
जहाँ कुछ इतिहासकारों का कहना है कि बंगाल में दुर्गा पूजा 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद शुरू हुई जब लॉर्ड क्लाइव ने हिंदू राजा नव कृष्णदेव के कहने पर शुरू की थी।
कोलकत्ता से वरिष्ठ पत्रकार रूपक दे चौधरी से जब द इंडियन अफेयर्स ने बात की तो उन्होंने बताया “राजा नवकृष्णदेव ने शोभा बाजार राजबारी से 1757 में दुर्गा पूजा की शुरुआत की थी जो जमींदार वर्ग के लिए प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया। जमींदार वर्ग ने हर वर्ष विशाल स्तर पर पूजा का आयोजन भी किया। यह वो समय था जब पूजा में अंग्रेजों का शामिल होना शान से जोड़ कर देखा जाता था।
इतिहास के पन्नों में वर्ष 1900 तक दुर्गा पूजा बड़े जमींदारों और अभिजात्य वर्ग तक सिमटी हुई थी, जिसमें पूजा के जरिए अंग्रेजों से संबंध बनाए जाते थे। यही कारण था कि ब्रिटिश काल के दौरान बंगाल और असम में दुर्गा पूजा बड़े स्तर पर मनाई जाने लगी थी।
हालाँकि, समय के साथ जमींदारों की संख्या घटी तो बाग बाजार में इस प्रथा की बेड़ियों को तोड़ते हुए 1919 में सबसे पहले आम समुदाय के लिए दुर्गा पूजा का आयोजन किया, जिसे बारोवारी (Barowari) कहा जाता है यानी कि लोगों के समूह के लिए।
वर्ष 1930, में कलकत्ता नगर निगम के अल्डर-मैन दुर्गाचरण बंद्दोपाध्याय पूजा समिति के अध्यक्ष बने तो उन्होंने राजा-सम्राज के विरुद्ध के खिलाफ एक प्रदर्शनी शुरू की और ब्रिटेन से आयातित सभी वस्तुओं के बहिष्कार को प्रोत्साहन भी दिया”।
वहीं दुर्गा पूजा के एक अन्य इतिहास रामायण के अध्याय से भी जुड़ा है। 15वीं सदी के बांग्ला भक्तकवि कृत्तिबास ओझा द्वारा रचित रामायण का दुर्गा पूजा पर व्यापाक प्रभाव माना जाता है, जिसे कृतिबासी रामायण भी कहा जाता है।
इसकी विशेषता यह है कि यह तुलसीदास की रामचरितमानस रचे जाने के भी डेढ़ सदी पहले की रचना है। साथ ही, संस्कृत से अलग किसी भी उत्तर भारत की भाषा में लिखी गई यह पहली रामायण है।

कृतिबासी रामायण के कथानकों में वर्णन है कि श्रीराम ने रावण को हराने से पूर्व देवी माँ की आराधना की थी। इसी प्रसंग को बंगाल की नारी-पूजा से जोड़ कर भी देखा जाता है। बंगाल की शक्ति-पूजा पर वहाँ के शाक्त समुदाय का प्रभाव भी है। कृतिबासी रामायण ने श्रीराम के सुंदर वर्णन के साथ शक्ति पूजा को दो ध्रुवों को मिलाने वाला बनाया था।
कृतिबासी रामायण के भव्य कथानक और भक्तिमय प्रसंगों ने बंगाल में दुर्गा पूजा को जनमानस में लोकप्रिय बना दिया था इसके बाद से ही 5 शताब्दियों से पश्चिमी बंगाल में दुर्गा पूजा और दशहरा की भव्यता का असर देखा जा सकता है।
इस वर्ष दुर्गा पूजा के पंडालों में संस्कृति के साभ देशभक्ति के रंग भी देखे जा रहे हैं। यूनेस्को ने भी 2021 में ही कोलकाता की दुर्गा पूजा को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में शामिल किया था।